Saturday 10 December 2016
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर
रोप्यों तू ही मान, काबुल झण्डो हिन्द को ।
अमिट रही या स्यान, दोन्याँ का इतिहास मैं ।।
हे राजा मानसिंह ! यह पहला अवसर था कि तुमने काबुल को जीतकर वहाँ सर्वप्रथम भारत की विजय-पताका फहरा दी थी ।
यह शानदार विजय भारत और अफगानिस्तान के इतिहास में सदैव अमर रहेगी ।।
...
29 जनवरी 2017
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
दोपहर 1 बजे से ।।
निवेदक- इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।
राजा मानसिंह आमेर कि काबुल विजय कवियों की दृष्टि में |
दोहा:-
शिखा, सूत्र, यज्ञ, देव सह, रहता किम हिन्दूवान ।...
काबुल हद न पाङतो, कूरा राजा मान ।।
काबुल हद पाङी जणां, मान हुयो ध्रम भारुण ।।
ऐ न हो तो हिन्द में, कछवाहो नृप मान ।
गरदिश में रहतो गर्क, आखो हिन्दुस्तान ।।
काबुल प्रस्थान करने से पूर्व वे अपनी माता से आशीर्वाद लेने व प्रणाम करने गये, तब माता ने स्पष्ट कहा कि
"जा तो रहे हो, परन्तु यह याद रखना कि मार्ग में अटक नदी है । उसको पार करने से हिचक न जाना । यदि शत्रु की प्रबलता देखकर रणांगण त्याग दिया, तो आकर मुझे मुख न दिखलाना"।
ऐसी वीरांगना जननी का क्षत्रियोंचित उद्बोधन पाकर उन्होंने काबुल विजय अभियान के लिए प्रस्थान किया । काव्य में माता के उद्बोधन के दोहों की चर्चा गर्व से की जाती है ।
दोहा :-
विनती अपने पुत्र की, माता लीज्यो जान ।
आज्ञा अकबर शाह की, काबुल चढि़या मान ।।
बीच अटक दरिया बाहै, जल की ना परनाम ।
जल में सेना न उतरै, (गर) लौटे अपना मान ।।
रघुकुल तिलक, ढूंढा़ङ रवि, चिरंजीव प्रिय भान ।
यवन दमन कर लेहु जस, रहियो जब लग भान ।।
रण में खड्ग चलाइया, कुल की ओर निहार ।
एक वार शत्रु करै, आरत हाहाकार ।।
सोच न करियो मौत को, माता तब बलि जाय ।
जो रण त्यागे शत्रु डर, मुख दिखलाजो नांय ।।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
दोपहर 1 बजे से ।।
Friday 25 November 2016
राजा मानसिंह आमेर - बिहार के गवर्नर के रुप में
मार्च 1590 में मानसिंह पटना लौट गये । जल्दी वह बिहार प्रान्त में गया जिले के अनन्त चेरोस (द्रविड़) के विरूद्ध रवाना हुवे । और उन्हें नियंत्रण में किया ।
ज्ञात रहे चेरोस द्रविडियन लोग थे जो राजभान कबीले से अलग हो गये थे । वे एक समय बिहार में बङा वर्चस्व रखते थे । इन्हें उज्जैनियों ने बाहर निकाला तो वे दक्षिण की ओर भाग गये । अब वे बिहार के पलामू जिले में पाये जाते है ।
...
जयपुर वंशावली का कथन है कि राजा मानसिंह ने फाल्गु नदी के उस पार में एक नये नगर की स्थापना की और इसका नाम "मानपुर" रखा ।।
कछवाहा फौजौ और शंभुपुरी के मुस्लिम सेनानायक के बीच हुई लङाई की कहानी की पुष्टि परिस्थितिजन्य प्रमाणों से भी होती है । सैयदी जैसा कि उसके नाम से ही प्रकट है, पठान थे । गया और उसका सिमान्त प्रदेश पठानो का संरक्षित एवं सुदृढ़ प्रदेश और उनको दबाने के लिये मानसिंह स्वयं गये ।।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह 29 जनवरी 2017, राजपूत सभा भवन जयपुर
कार्य योजना मिटिंग
27 नवम्बर 2016,
राजपूत सभा भवन जयपुर
दोपहर 1 बजे से ।।
निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान
राजपूत होस्टल व राजपुत सभा भवन
राजपूत सभा भवन
1. श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
2. मारवाङ सभा भवन जोधपुर
3. राजपूत सभा भवन मकराना
4. राजपूत सभा भवन डीडवाना
5. राजपूत सभा भवन हिसार ( हरियाणा )
6. राजपूत सभा भवन पंचकुला ( हरियाणा )
7. राजपूत सभा भवन लारेंसरोड दिल्ली
8. राजपूत सभा भवन जायल
9. राजपूत सभा भवन रणसीगांव, जोधपुर
10. महाराणा प्रताप सभा भवन सहारनपुर ( उत्तर प्रदेश )
11. राजपूत सर्किट हॉउस ,भीनमाल
12.राजपूत सभा संस्था भवन ,सांचोर
13. राजपूत धर्मशाला कनखल हरिद्वार
14. संघ शक्ति जयपुर
15. आयुवानसिंह निकेतन कुचामन
16. श्री राजपूत सेवा समिती गुणवती मकराना
17. महाराणा प्रताप भवन -धर्मशाला कुरुक्षेत्र
18. नारायण निकेतन बीकानेर
19. तनायन जोधपुर
20. तनाश्रय बाङमेर
21. तनाश्रम जैसलमेर
22. राव भोजराज चांदावत संस्थान गोटन
23. राजपूत सभा भवन भोपालगढ
24. महाराजा गजसिंह विश्राम गृह राईकाबाग जोधपुर
25. परचमि राजस्थान सिवांची गेट जोधपुर
राजपूत छात्रावास
1. श्री राजपूत छात्रावास जयपुर
2. हणुवन्त सिंह राजपूत छात्रावास जोधपुर
3. राजपूत छात्रावास कुचामन
4. कल्याण सिंह राजपूत छात्रावास सिकर
5. सार्दुल सिंह राजपूत छात्रावास बीकानेर
6. हिम्मत सिंह राजपूत छात्रावास डीडवाना. 7.चारभुजा राजपुत छात्रावास मेडता शहर
8. श्री मल्लीनाथ राजपूत महाविद्यालय छात्रावास, बाड़मेर
9. श्री मल्लीनाथ बोर्डिंग छात्रावास बाड़मेर
10. श्री राजपूत छात्रावास, बाड़मेर
11. श्री जवाहर राजपूत छात्रावास, जैसलमेर
12. राजपूत छात्रावास (हठ हम्मीर चौहान छात्रावास ) छीपाबडौद जिला बारां
13. वीर दुर्गादास राठौड़ राजपूत हॉस्टल ,पाली
14. राजमाता कृष्णा कुमारी राजपूत बालिका छात्रावास,देसूरी,पाली
15. श्री उम्मेद राजपूत होस्टल,बाली,पाली
16. वीरबाला राजपूत बालिका छात्रावास,खिमेल,पाली
17. राजपूत हॉस्टल,जैतारण,पाली
18. राजपूत हॉस्टल,बरकाना, पाली
19. राजपूत हॉस्टल,राणावास,पाली
20. राजपूत हॉस्टल,सोजत,पाली
21. अमरसिंह राजपूत छात्रावास नागौर
22. श्री महाराजा गजसिंह शिक्षण संस्थान ओसिया
23. श्री भवानी राजपूत छात्रावास दौसा
24. महाराव भीमसिंह छात्रावास कोटा
25. हाङी रानी छात्रावास कोटा
26. मैजर शैतानसिंह राजपूत छात्रावास अजमेर
27. राजपूत छात्रावास नवलगढ
28. राजपूत छात्रावास पिलानी
29. प्रताप राजपूत छात्रावास लक्ष्मणगढ़
30. चौपासनी होस्टल जोधपुर शैतान हॉउस प्रताप हॉउस उमेद हॉउस पॉलट हॉउस हार्डिग हॉउस जोधपुर।।
31. दुर्गा महिला छात्रवास सिकर ।
32. मीरा बालिका छात्रावास डीडवाना
33. उदय राजपूत छात्रावास पिपाङ जौधपूर
34. शार्दूल सिंह छात्रावास झुंझुनु
35. राजपूत छात्रावास अम्बाला ( हरियाणा )
36. श्री करणी राजपूत छात्रावास नोखा (बीकानेर)
37. राजपूत छात्रावास सांचोर
38. श्री सरदार सिंह मेमोरियल राजपूत छात्रावास जोधपुर
39. राजपूत छात्रावास करौली
40. राजपुत होस्टल फागी
41. महाराणा प्रताप होस्टल भवानी मड़ी झालावाड़
42. राजराणा हरिश्चन्द्र राजपूत छात्रावास झालावाड़
43. राजपूत छात्रावास बारां
44. महाराव राजा बहादुरसिंह राजपूत छात्रावास बूंदी
45. श्री राजपूत छात्रावास फतेहपुर
46. श्री राजपूत छात्रावास महुआ
47. 🌞 श्री विरमदेव राजपूत छात्रावास, जालौर 🌞
48. श्री गोपाल राजपूत छात्रावास ,भीनमाल
49. श्री राव बल्लूजी राजपूत छात्रवास सांचोर
50. श्री कल्ला रायमलोत राजपूत छात्रावास सिवाना
51. श्री जयमल छात्रावास परबतसर
52. श्री महाराव शेखा संस्थान - खेजरोली राजपूत छात्रावास
53. महाराव मदनसिंह छात्रावास कच्छ-भुज, गुजरात
54. जङेजा राजपूत छात्रावास नखटराणा कच्छ, गुजरात
55. श्री जगदम्बा राजपूत छात्रावास टोंक
56. श्री मीरा बाई राजपूत छात्रावास निवाई-टोंक
57. राजपूत छात्रावास कोटपूतली
58. श्री प्रताप राजपूत छात्रावास नीमकाथाना
59. श्री करणी बालिका छात्रावास बीकानेर
60. श्री स्वरुप राजपूत छात्रावास रतनगढ
61. श्री नागणेच्या माता राजपूत कन्या शिक्षण संस्थान एवं छात्रावास पाँचोटा जालौर
62. राजपूत सभा भवन भोपालगढ
अपने क्षेत्र के राजपूत छात्रावास व होस्टल का नाम लिखकर आगे बढाये
राजा मानसिंह आमेर - बिहार के गवर्नर के रुप में ।
राजा मानसिंह ने सर्वप्रथम गिध्दौर के राजा पूरणमल कि और ध्यान लगाया यह बिहार के प्रमुख जमींदार थे । मानसिंह ने इनके किले को कब्जे में ले लिया परन्तु मानसिंह का अपने धर्म के लोगों के प्रति भावना का यह एक जिवान्त उदाहरण है जो कुँवर मानसिंह काबुल अभियान में मुसलमानों के लिये काल का रुप थे उन्होंने बिहार के हिन्दू राजा को हराने के बाद संबंध स्थापित किये ।
राजा मानसिंह आमेर से गिध्दौर के राजा पुरणमल ने संरक्षण माँगा । उसने मानसिंह के... भाई चन्द्रभान से अपनी पुत्री का विवाह किया । इसके अलावा स्थानीय जमींदारों ने भी उनकी पुत्रियों का विवाह मानसिंह के भाई और पुत्रों से किया ।
29 जनवरी 2017
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
कार्य योजना मिटिंग
27 नवम्बर 2016,
1 बजे से श्री राजपूत सभा भवन जयपुर ।
निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।
राजा मानसिंह आमेर - बिहार के गवर्नर के रुप में ।
राजा मानसिंह ने सर्वप्रथम गिध्दौर के राजा पूरणमल कि और ध्यान लगाया यह बिहार के प्रमुख जमींदार थे । मानसिंह ने इनके किले को कब्जे में ले लिया परन्तु मानसिंह का अपने धर्म के लोगों के प्रति भावना का यह एक जिवान्त उदाहरण है जो कुँवर मानसिंह काबुल अभियान में मुसलमानों के लिये काल का रुप थे उन्होंने बिहार के हिन्दू राजा को हराने के बाद संबंध स्थापित किये ।
राजा मानसिंह आमेर से गिध्दौर के राजा पुरणमल ने संरक्षण माँगा । उसने मानसिंह के... भाई चन्द्रभान से अपनी पुत्री का विवाह किया । इसके अलावा स्थानीय जमींदारों ने भी उनकी पुत्रियों का विवाह मानसिंह के भाई और पुत्रों से किया ।
29 जनवरी 2017
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
कार्य योजना मिटिंग
27 नवम्बर 2016,
1 बजे से श्री राजपूत सभा भवन जयपुर ।
निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।
Friday 11 November 2016
गाँव
पढ़ा-लिखा इस शहर का कुत्ते को टहलाये ।
पढ़ा-लिखा इस शहर का मेहनत "से" रोटी खाये ।
पढ़ा-लिखा इस शहर का भगवान को ही ना जाने ।
अनपढ मेरे गाँव का देश पर जान लुटाये,
पढ़ा-लिखा इस शहर का बस अपनी जान बचाये ।
अनपढ मेरे गाँव का देश की भूख मिटाये,
पढ़ा-लिखा इस शहर का बस अपनी भूख मिटाये ।।
Tuesday 8 November 2016
कुँवर मानसिंह - बिहार के गवर्नर के रूप में
अबुल फ़ज़्ल के अनुसार मानसिंह बिहार में दिसम्बर 1587 से मार्च 1594 तक रहे ।
मानसिंह के नियुक्त किये जाने के समय बिहार की हालात कुछ अराजकता पूर्ण थी । एक तरफ छोटे छोटे सरदार लोग थे जो आपसी लड़ाइयों तथा मतभेदों में अपनी शक्ति का अपव्यय करते थे और गवर्नर को कुछ नही समझते थे ।
दूसरी और छोटे पठान और अफगान शासक थे जो सत्ता के विरूद्ध विद्रोह में उठ खड़े होते थे । इस प्रकार बिहार के गवर्नर के लिये ये खासा सिरदर्द बने हुए थे । बिहार का प्रान्त छोटे झगड़ो, पारस्परिक संघर्षों और आन्तरिक अशांति के कारण टूकड़े टुकड़े हो रहा था । वास्तव में मानसिंह को बड़ी कठिन स्तिथि का सामना करना पड़ा, लेकिन उसने अवसर के अनुकूल शक्ति और दृढ़ निश्चय से प्रान्त में शांति व्यवस्था कायम करने का काम हाथ में लिया ।
पर इसके पूर्व कि मानसिंह बिहार में अच्छी प्रकार जम पाते एक बड़ी विपति टूट पड़ी । उनके पिता भगवन्तदास कि लाहौर में 13 नवम्बर 1589 को मृत्यु हो गयी । वह लाहौर राजा टोडरमल के दाह संस्कार में सम्मिलित होने के लिये गए थे जिनकी मृत्यु लाहौर में 8 नवम्बर 1589 में हो गयी थी ।
कुँवर मानसिंह आमेर की गद्दी पर 14 फरवरी 1590 को बैठे जयपुर वंशावलि अनुसार ।।
कुँवर राजा मान सिंह आमेर का काबुल में अंतिम अभियान और पचरंगा ध्वज ।।
कुँवर मानसिंह आमेर को काबुल के बाद बिहार का गवर्नर बनाया गया लेकिन काबुल से बिहार आने से पहले उन्हें दूसरा कार्य मिला वह था तारीकियों का पूर्ण विनाश ।
अगस्त 1587, में उन्होंने डर समन्द में (बंगश) जलाल तारीकी को बुरी तराह पराजित किया । जलाल तारीकी की हार से अफरीदी और ओरकजाई कबीलो ने भी आत्म समर्पण कर दिया । जलाल तारीकी हार के बाद अपने स्थानीय क्षेत्र से बंगश की और भाग गया ।
...
अपनी "हकीकत-ए-हिंदुस्तान" में लक्ष्मीनारायण का कथन है की जब मानसिंह सियालकोट के जागीरदार थे उन्होंने इसके पुराने दुर्ग की मरम्मत कराई और नगर के सौन्दर्ये में वृद्धि की ।
श्री हनुमान शर्मा ने अपनी पुस्तक "जयपुर के इतिहास" में लिखा है कि जयपुर पचरंगा ध्वज की डिजाइन मानसिंह ने बनायी थी, जब वह काबुल के गवर्नर थे । इससे पहले राज्य का ध्वज श्वेत रंग था । श्री हनुमान शर्मा आगे चलकर कहते है की जब मनोहारदास जो मानसिंह के एक अधिकारी था, उतर-पश्चिम सीमांत प्रदेश के अफगानों से लड़ रहा था, उसने लूट के माल के रूप में उनसे भिन्न भिन्न पांच रंगों के ध्वज प्राप्त किये थे । ये ध्वज नीले, पिले, लाल, हरे, और काले रंग के थे । मनोहरदास ने कुंवर को सुझाव दिया कि राज्य का ध्वज कई रंगों का होना चाहिये केवल श्वेत रंग का नहीं । इस सुझाव को शीघ्र स्वीकार कर लिया गया । उस समय से जयपुर राज्य का ध्वज पांच रंगों का हो गया । ये रंग है नीला, पिला, लाल, हरा, और काला ।।
श्री शर्मा के कथन के पीछे स्थानीय परम्परा है ! जयपुर के लोग इस कथन की पुष्टि करते हुए कहते है कि राज्य का पचरंगा झण्डा सबसे पहले कुँवर मानसिंह ने ही तैयार करवाया था ।
इसके अतिरिक्त श्री पट्टाभिराम शास्त्री जो महाराजा संस्कृत कॉलेज जयपुर के प्रिंसिपिल थे ने अपने राजवँश महाकाव्य की भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि जयपुर के पचरंग ध्वज की कल्पना मानसिंह की थी ।।
साभार पुस्तक - राजा मानसिंह आमेर
लेखक- राजीव नयन प्रसाद (बिहार)
राष्ट्रकूट वंश
राष्ट्रकूट वंश का आरम्भ 'दन्तिदुर्ग' से लगभग 736 ई. में हुआ था। उसने नासिक को अपनी राजधानी बनाया। इसके उपरान्त इन शासकों ने मान्यखेत, (आधुनिक मालखंड) को अपनी राजधानी बनाया। राष्ट्रकूटों ने 736 ई. से 973 ई. तक राज्य किया।
राष्ट्रकूट वंशीय शासक
शासकों के नाम शासन काल
दन्तिदुर्ग (736-756 ई.)
कृष्ण प्रथम (756-772 ई.)
गोविन्द द्वितीय (773-780 ई.)
ध्रुव धारावर्ष (780-793 ई.)
गोविन्द तृतीय (793-814 ई.)
अमोघवर्ष प्रथम (814-878 ई.)
कृष्ण द्वितीय (978-915 ई.)
इन्द्र तृतीय (915-917 ई.)
अमोघवर्ष द्वितीय (917-918 ई.)
गोविन्द चतुर्थ (918-934 ई.)
अमोघवर्ष तृतीय (934-939 ई.)
कृष्ण तृतीय (939-967 ई.)
खोट्टिग अमोघवर्ष (967-972 ई.)
कर्क द्वितीय (972-973 ई.)
शासन तन्त्र
राष्ट्रकूटों ने एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली को जन्म दिया था। प्रशासन राजतन्त्रात्मक था। राजा सर्वोच्च शक्तिमान था। राजपद आनुवंशिक होता था। शासन संचालन के लिए सम्पूर्ण राज्य को राष्ट्रों, विषयों, भूक्तियों तथा ग्रामों में विभाजित किया गया था। राष्ट्र, जिसे 'मण्डल' कहा जाता था, प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई 'ग्राम' थी। राष्ट्र के प्रधान को 'राष्ट्रपति' या 'राष्ट्रकूट' कहा जाता था। एक राष्ट्र चार या पाँच ज़िलों के बराबर होता था। राष्ट्र कई विषयों एवं ज़िलों में विभाजित था। एक विषय में 2000 गाँव होते थे। विषय का प्रधान 'विषयपति' कहलाता था। विषयपति की सहायता के लिए 'विषय महत्तर' होते थे। विषय को ग्रामों या भुक्तियों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति में लगभग 100 से 500 गाँव होते थे। ये आधुनिक तहसील की तरह थे। भुक्ति के प्रधान को 'भोगपति' या 'भोगिक' कहा जाता था। इसका पद आनुवांशिक होता था। वेतन के बदले इन्हें करमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। भुक्ति छोटे-छोटे गाँव में बाँट दिया गया था, जिनमें 10 से 30 गाँव होते थे। नगर का अधिकारी 'नगरपति' कहलाता था।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम के अधिकारी को 'ग्रामकूट', 'ग्रामपति', 'गावुण्ड' आदि नामों से पुकारा जाता था। इसकी एक ग्राम सभा भी थी, जिसमें ग्राम के प्रत्येक परिवार का सदस्य होता था। गाँव के झगड़े का निपटारा करना इसका प्रमुख कार्य था।
राजस्व प्रणाली
आय का प्रमुख साधन भूमि कर था। नियमित करों में 'उद्रंग', 'उपरिक', 'शुल्क' तथा 'विकर' प्रमुख कर थे। उद्रंग या भागकर उत्पादन का 1/4 था। मुद्रा प्रणाली विकसित थी। राष्ट्रकूट मुद्राओं में 'द्रम्य', 'सुवर्ण', 'गध्यांतक', 'कतंजु' तथा 'कसु' का उल्लेख मिलता है। इसमें कलंजु, गध्यांतक तथा कसु स्वर्ण मुद्राएँ थीं।
धर्म
राष्ट्रकूट शासकों के संरक्षण में ब्राह्मण एवं जैन धर्म का अधिक विकास हुआ। ब्राह्मण धर्म सर्वाधिक प्रचलित था। प्रारम्भिक राष्ट्रकूट शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे तथा विष्णु एवं शिव की आराधना करते थ। राष्ट्रकूट शासक अपनी शासकीय मुद्राओं पर गरुढ़, शिव अथवा विष्णु के आयुधों का प्रयोग करते थे। ब्राह्मण धर्म की तुलना में जैन धर्म का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। इसे राजकीय संरक्षण प्रदान था। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष के समय में जैन धर्म का सर्वाधिक विकास हुआ। अमोघवर्ष के गुरु 'जिनसेन' जैन थे, जिसने ‘आदि पुराण’ की रचना की। युवराज कृष्ण का अध्यापक गुणभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्य था। गंग शासक वेंकेट या उसके पुत्र लोकादित्य जैन धर्म के अनुयायी थे। राष्ट्रकूटों के प्रसिद्ध सेनापति श्री विजय नरसिंह आदि जैन थे।
साहित्यिक उपलब्धियाँ
राष्ट्रकूट काल साहित्यिक उन्नति के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। अग्रहार उच्च संस्कृत शिक्षा का केन्द्र था। यहाँ पर ब्राह्मण संस्कृत विद्या की शिक्षा दी जाती थी। अग्रहार के अतिरिक्त मन्दिर भी उच्च शिक्षा का केन्द्र था। मान्यखेट, पैठन, नासिक, करहद आदि शिक्षा के उच्च केन्द्र थे। संस्कृत के अनेक विद्वान तथा लेखक-'कुमारिल भट्ट', 'वाचस्पति', 'लल्ल', 'कात्यायन', 'राजशेखर', 'अंगिरस' इसी युग के हैं। इसके अतिरिक्त अन्य विद्वानों में 'हलायुध', 'अश्लक', 'विद्यानंद', 'जिनसेन', 'प्रभाचन्द्र', 'हरिषेण', 'गुणभद्र' और 'सोमदेव' प्रमुख थे। हलायुध, जिसने ‘कवि रहस्य’ नामक ग्रन्थ लिखा, कृष्ण तृतीय का दरबारी कवि था। कृष्ण तृतीय के ही शासन काल में 'अवलंक' और 'विद्यानन्द' ने जैन ग्रन्थ 'आप्त मीमांसा' पर 'अष्टशती' एवं 'अष्टसहस्त्री' टीकाएँ लिखीं। इसी काल में 'मणिक्यनन्दिन' ने ‘परीक्षामुख शास्त्र’ की रचना की, जो न्याय शास्त्र का प्रमुख ग्रन्थ माना गया है। राष्ट्रकूट शासक स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान था, उसने कन्नड़ भाषा में ‘कविराज मार्ग’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके गुरु एवं आचार्य जिनसेन ने 'आदि पुराण', 'हरिवंश' तथा 'पाश्र्वभ्युदय' की रचना की। इसी समय के महान गणितज्ञ 'वीराचार्य' ने 'गणिसारसंग्रह' की रचना की तथा शाकटायन ने 'अमोघवृत्ति' की रचना की। राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के शासन काल में महाकवि 'त्रिविक्रम' ने ‘नलचम्पू’ काव्य की रचना की। 9वीं शताब्दी में सोमदेव ने यशस्तिक चम्पू नामक उच्च कोटि के ग्रन्थ की रचना की। उसकी एक अन्य रचना ‘नीति वाक्यमृत’ है, जो तत्कालीन राजनीतिक सिद्धान्तों का मानक ग्रन्थ माना जाता है। 10वीं शताब्दी के महानकवि 'पम्प' ने कन्नड़ भाषा में ‘आदि पुराण’ तथा ‘विक्रमार्जुन विजय’ की रचना की। आदि पुराण में प्रथम जैन तीर्थकरों का उल्लेख किया गया है।
कन्नड़ कवि 'पोत्र' (950) ने रामायण की कहानी पर आधारित ‘रामकथा’ तथा ‘शान्तिपुराण’ नामक ग्रन्थ की रचना की। 'रन्न' (993 ई.) ने 'गदायुद्ध' तथा 'अजीत तीर्थकर पुराण' की रचना की। गंगवाड़ी राज्य के प्रसिद्ध सेनापति 'चामुण्डराज' ने ‘चामुण्डराज पुराण’ नामक ग्रन्थ लिखा; जिसे गद्य साहित्य का उत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है।
कला
राष्ट्रकूटों के समय का सबसे विख्यात मंदिर एलोरा का कैलाश मंदिर है। इसका निर्माण कृष्ण प्रथम के शासनकाल में किया गया था। भड़ौदा अभिलेख में इस मन्दिर की भव्यता का वर्णन मिलता है। दशावतार मन्दिर दो मंजिला ब्राह्मण मन्दिर का एक मात्र उदाहरण है। इनके जैन मन्दिर पाँच मंजिलें हैं, जिनमें इन्द्रमहासभा, छोटा कैलाश तथा जगन्नाथ सभा प्रमुख हैं।
गोविन्द प्रथम
गोविन्द प्रथम मान्यखेट में अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण पथ पर शासन करने वाले, जिन राष्ट्रकूट राजाओं ने सर्वप्रथम अपने वंश की वास्तविक राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित की, उनमें प्रमुख थे दंतिदुर्ग और कृष्ण प्रथम। उनके पूर्व उस राजकुल में अन्य अनेक सामंत राजा हो चुके थे। गोविंद प्रथम उन्हीं में से एक था
राष्ट्रकूटों की किसी अन्य सामान्य शाखा में भी गोविंद नाम का कोई सरदार हो चुका था। इसका आधार है विभिन्न वंशावलियों में गोविंद नाम की क्रम से दो बार प्राप्ति हुई।
मुख्य शाखा का गोविंद प्रथम सामंत उपाधियों को धारण करता था, जो दूसरे गोविंद के बारे में नहीं कहा जा सकता था।
डा. अल्तेकर, उसका संभावित काल 690 ई. से 710 ई. तक निश्चित करते हैं। कुछ राष्ट्रकूट अभिलेखों से उसके शैव होने की बात ज्ञात होती है।
दन्तिदुर्ग
राष्ट्रकूट वंश की स्थापना 736 ई. में दंतिदुर्ग ने की थी। राष्ट्रकूट वंश के उत्कर्ष का प्रारम्भ दन्तिदुर्ग द्वारा हुआ।
किंतु उससे पहले भी इस वंश के राज्य की सत्ता थी, यद्यपि उस समय इसका राज्य स्वतंत्र नहीं था।
सम्भवतः वह चालुक्य साम्राज्य के अंतर्गत था।
उसने माल्यखेत या मालखंड को अपनी राजधानी बनाया। उसने कांची, कलिंग, कोशल, श्रीशैल, मालवा, लाट एवं टंक पर विजय प्राप्त कर राष्ट्रकूट साम्राज्य को विस्तृत बनाया।
उसके विषय में कहा जाता है कि उसने उज्जयिनी में हरिण्यगर्भ (महादान) यज्ञ किया था।
उसने चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन द्वितीय को एक युद्ध में पराजित किया था।
उसने महाराजधिराज परमेश्वर, परमभट्टारक आदि उपाधियां धारण की थी।
चालुक्य शासक विक्रमादित्य ने उसे पृथ्वी वल्लभ या खड़वालोक की उपाधि दी थी।
दन्तिदुर्ग ने न केवल अपने राज्य को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त ही किया, अपितु अपनी राजधानी मान्यखेट (मानखेट) से अन्यत्र जाकर दूर-दूर तक के प्रदेशों की विजय भी की।
उत्कीर्ण लेखों में दन्तिदुर्ग द्वारा विजित प्रदेशों में काञ्जी, मालवा और लाट को अंतर्गत किया गया है।
कोशल का अभिप्राय सम्भवतः 'महाकोशल' है। महाकोशल, मालवा और लाट (गुजरात) को जीतकर वह निःसन्देह दक्षिणापथपति बन गया था, क्योंकि महाराष्ट्र में तो उसका शासन था ही।
काञ्जी की विजय के कारण दक्षिणी भारत का पल्लव राज्य भी उसकी अधीनता में आ गया था। जो प्रदेश वातापी चालुक्यों सम्राटों की अधीनता में थे, प्रायः वे सब अब दन्तिदुर्ग के आधिपत्य में आ गए थे।
दक्षिणापथ के क्षेत्र में राष्ट्रकूट वंश चालुक्यों का उत्तराधिकारी बन गया था।
कृष्ण प्रथम
कृष्ण प्रथम राष्ट्रकूट वंश के सबसे योग्य शासकों में गिना जाता था। इसे 'कृष्णराज' भी कहा जाता था। चालुक्यों की शक्ति को अविकल रूप से नष्ट करके राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज ने कोंकण और वेंगि की भी विजय की थी। कृष्णराज की ख्याति उसकी विजय यात्राओं के कारण उतनी नहीं है, जितनी कि उस 'कैलाश मन्दिर' के कारण है, जिसका निर्माण उसने एलोरा में पहाड़ काटकर कराया था। कृष्ण प्रथम ने 'राजाधिराज परमेश्वर' की उपाधि ग्रहण की थी।
राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका चाचा 'कृष्णराज' मान्यखेट के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।
राष्ट्रकूटों के द्वारा परास्त होने के बाद भी चालुक्यों की शक्ति का पूर्णरूप से अन्त नहीं हुआ था। उन्होंने एक बार फिर अपने उत्कर्ष का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।
दंतिदुर्ग के चाचा एवं उत्तराधिकारी कृष्णराज (कृष्ण प्रथम) ने बादामी के चालुक्यों के अस्तित्व को पूर्णतः समाप्त कर दिया।
कृष्ण प्रथम ने मैसूर के गंगो की राजधानी मान्यपुर एवं लगभग 772 ई. में हैदराबाद को अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। उसने सम्भवतः दक्षिण कोंकण के कुछ भाग को भी जीता था। इसके प्रतिहार राजा ने द्वारपाल का कार्य किया।
चालुक्यों की शक्ति को अविकल रूप से नष्ट करके राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज ने कोंकण और वेंगि की भी विजय की।
पर कृष्णराज की ख्याति उसकी विजय यात्राओं के कारण उतनी नहीं है, जितनी कि उस 'कैलाश मन्दिर' के कारण है, जिसका निर्माण उसने एलोरा में पहाड़ काटकर कराया था।
एलोरा के गुहा मन्दिरों में कृष्णराज द्वारा निर्मित कैलाश मन्दिर बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, और उसकी कीर्ति को चिरस्थायी रखने के लिए पर्याप्त है। उसने ऐलोरा में सुप्रसिद्ध गुहा मंदिर (कैलाशनाथ मंदिर) का एक ही चट्टान काटकर निर्माण करवाया। यह एक आयताकार प्रांगण के बीच स्थित है तथा द्रविड़ कला का अनुपम उदाहरण है।
कृष्णराज का भाई गोविन्द अत्यन्त कमज़ोर शासक होने के कारण अधिक दिन तक शासन नहीं कर सके ।
गोविन्द द्वितीय
772 ई. में कृष्णराज की मृत्यु होने पर उसका पुत्र गोविन्द राजा बना।
वह भोग-विलास में मस्त रहता था, और राज्य-कार्य की उपेक्षा करता था।
आठवीं सदी में कोई ऐसा व्यक्ति सफलतापूर्वक राजपद नहीं सम्भाल सकता था, जो 'उद्यतदण्ड' न हो। अतः उसके शासन काल में भी राज्य का वास्तविक संचालन उसके भाई ध्रुव के हाथों में था।
अवसर पाकर ध्रुव स्वयं राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया। उसका शासन काल 779 ई. में शुरू हुआ था। इस युग में उत्तरी भारत में दो राजशक्तियाँ प्रधान थीं, गुर्जर प्रतिहार राजा और मगध के पालवंशी राजा।
ध्रुव धारावर्ष
772 ई. में कृष्णराज की मृत्यु होने पर उसका पुत्र गोविन्द राजा बना।
वह भोग-विलास में मस्त रहता था, और राज्य-कार्य की उपेक्षा करता था।
आठवीं सदी में कोई ऐसा व्यक्ति सफलतापूर्वक राजपद नहीं सम्भाल सकता था, जो 'उद्यतदण्ड' न हो। अतः उसके शासन काल में भी राज्य का वास्तविक संचालन उसके भाई ध्रुव के हाथों में था।
अवसर पाकर ध्रुव स्वयं राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गया। उसका शासन काल 779 ई. में शुरू हुआ था। इस युग में उत्तरी भारत में दो राजशक्तियाँ प्रधान थीं, गुर्जर प्रतिहार राजा और मगध के पालवंशी राजा।
गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज और पाल राजा धर्मपाल राष्ट्रकूट राजा ध्रुव के समकालीन थे।
ध्रुव ने सिंहासन पर बैठने के उपरान्त वेंगी के चालुक्य नरेश विष्णु वर्धन, पल्लव नरेश दंति वर्मन एवं मैसूर के गंगो को पराजित किया।
उत्तर भारत के ये दोनों राजा प्रतापी और महत्त्वाकांक्षी थे, और उनके राज्यों की दक्षिणी सीमाएँ राष्ट्रकूट राज्य के साथ लगती थीं। अतः यह स्वाभाविक था, कि इनका राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष हो। यह संघर्ष ध्रुव के समय में ही शुरू हो गया था, पर उसके उत्तराधिकारियों के शासन काल में इसने बहुत उग्र रूप धारण कर लिया।
शुरू में ध्रुव की शक्ति अपने भाई गोविन्द के साथ संघर्ष में व्यतीत हुई। अनेक सामन्त राजा और ज़ागीरदार ध्रुव के विरोधी थे और गोविन्द का पक्ष लेकर युद्ध के लिए तत्पर थे। ध्रुव ने उन सबको परास्त किया, और अपने राज्य में सुव्यवस्था स्थापित कर दक्षिण की ओर आक्रमण किया।
मैसूर के गंग वंश को परास्त कर उसने काञ्जी पर हमला किया, और पल्लवराज को एक बार फिर राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकृत करने के लिए विवश किया।
दक्षिण की विजय के बाद वह उत्तर की ओर बढ़ा। सबसे पूर्व भिन्नमाल के गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज के साथ उसकी मुठभेड़ हुई। वत्सराज परास्त हो गया।
अब ध्रुव ने कन्नौज पर आक्रमण किया। इस समय कन्नौज का राजा इन्द्रायुध था। वह ध्रुव का सामना नहीं कर सका, और राष्ट्रकूट विजेता की अधीनता को स्वीकृत करने के लिए विवश हुआ।
ध्रुव राष्ट्रकूट वंश का पहला शासक था जिसने कन्नौज पर अधिकार करने हेतु 'त्रिपक्षीय संघर्ष' में भाग लेकर प्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पाल नरेश धर्मपाल को पराजित किया।
उसने गंगा-यमुना दोआब तक अधिकार कर लिया था।
कन्नौज के राज्य को अपना वशवर्ती बनाने के उपलक्ष्य में ध्रुव ने गंगा और यमुना को भी अपने राजचिह्न्नों में शामिल कर लिया। इस प्रकार अनेक राज्यों की विजय कर 794 ई. में ध्रुव की मृत्यु हुई।
ध्रुव को 'धारावर्ष' भी कहा जाता था।
इसके अतिरिक्त उसकी अन्य उपाधि 'निरुपम', 'कालीवल्लभ' तथा 'श्री वल्लभ' था।
गोविन्द तृतीय
गोविन्द तृतीय ध्रुव का पुत्र एवं राष्ट्रकूट वंश का उत्तराधिकारी था। वह ध्रुव का ज्येष्ठ पुत्र नहीं था, किंतु उसकी योग्यता को दृष्टि में रखकर ही उसके पिता ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी नियत किया था। ध्रुव का ज्येष्ठ पुत्र 'स्तम्भ' था, जो गंगवाड़ी (यह प्रदेश पहले गंग वंश के शासन में था, पर अब राष्ट्रकूटों के अधीन हो गया था) में अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में शासन कर रहा था। उसने अपने छोटे भाई के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। शीघ्र ही गोविन्द तृतीय उसे परास्त करने में सफल हुआ। अपने भाई के विरुद्ध आक्रमण करने के अवसर पर ही गोविन्द तृतीय ने वेंगि और कांची पर पुनः हमले किए, और इनके राजाओं को वशवर्ती होने के लिए विवश किया। सम्भवतः ये राजा गोविन्द और स्तम्भ के गृहयुद्ध के कारण उत्पन्न परिस्थिति से लाभ उठाकर स्वतंत्र हो गए थे।
विजय अभियान
दक्षिण भारत में अपने विशाल शासन को भली-भाँति स्थापित कर गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत की ओर रुख़ किया। गोविन्द तृतीय के पिता ध्रुव ने भिन्नमाल के राजा वत्सराज को परास्त कर अपने अधीन कर लिया था। दक्कन में अपनी स्थिति मज़बूत करने के उपरान्त उसने कन्नौज पर अधिपत्य हेतु 'त्रिपक्षीय संघर्ष' में भाग लेकर चक्रायुध एवं उसके संरक्षक धर्मपाल तथा प्रतिहार वंश के नागभट्ट द्वितीय को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। जिस समय गोविन्द तृतीय उत्तर भारत के अभियान में व्यस्त था, उस समय उसकी अनुपस्थिति का फ़ायदा उठा कर उसके विरुद्ध पल्लव, पाण्ड्य, चेर एवं गंग शासकों ने एक संघ बनाया, पर 802 ई. के आसपास गोविन्द ने इस संघ को पूर्णतः नष्ट कर दिया।
राष्ट्रकूटों का उत्कर्ष
ध्रुव की मृत्यु के बाद राष्ट्रकूट राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उससे लाभ उठाकर भिन्नमाल के गुर्जर प्रतिहार राजा अपनी शक्ति की पुनः स्थापना के लिए तत्पर हो गए थे। वत्सराज के बाद गुर्जर प्रतिहार वंश का राजा इस समय नागभट्ट था। गोविन्द तृतीय ने उसके साथ युद्ध किया, और 807 ई. में उसे परास्त किया। गुर्जर प्रतिहारों को अपना वशवर्ती बनाकर राष्ट्रकूट राजा ने कन्नौज पर आक्रमण किया। इस समय कन्नौज के राजसिंहासन पर राजा चक्रायुध आरूढ़ था। यह पाल वंशी राजा धर्मपाल की सहायता से इन्द्रायुध के स्थान पर कन्नौज का अधिपति बना था। उसकी स्थिति पाल सम्राट के महासामन्त के जैसी थी, और उसकी अधीनता में अन्य बहुत से राजा सामन्त के रूप में शासन करते थे। चक्रायुध गोविन्द तृतीय के द्वारा परास्त हुआ, और इस विजय यात्रा में राष्ट्रकूट राजा ने हिमालय तक के प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। पालवंशी राजा धर्मपाल भी गोविन्द तृतीय के सम्मुख असहाय था। कन्नौज के राजा चक्रायुध द्वारा शासित प्रदेश पाल साम्राज्य के अंतर्गत थे, पर धर्मपाल में यह शक्ति नहीं थी, कि वह राष्ट्रकूट आक्रमण से उनकी रक्षा कर सकता। राष्ट्रकूटों के उत्कर्ष के कारण पाल वंश का शासन केवल मगध और बंगाल तक ही सीमित रह गया।
शत्रुओं का संगठन
गोविन्द तृतीय के आक्रम
णों और विजयों का वर्णन करते हुए पेशवाओं का वर्णन भी ध्यान आता है, जो राष्ट्रकूटों के समान ही दक्षिणापथ के राजा थे, पर जिनके कतिपय वीर पुरुषों ने उत्तरी भारत में हिमालय और सिन्ध नदी तक विजय यात्राएँ की थीं। जिस समय गोविन्द तृतीय उत्तरी भारत की विजय में तत्पर था, सुदूर दक्षिण के पल्लव, गंग, पांड्य, केरल आदि वंशों ने उसके विरुद्ध एक शक्तिशाली संघ को संघठित किया, जिसका उद्देश्य दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट आधिपत्य का अन्त करना था। पर यह संघ अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। ज्यों ही गोविन्द तृतीय को यह समाचार मिला, उसने तुरन्त दक्षिण की ओर प्रस्थान किया, और इस संघ को नष्ट कर दिया।
गोविन्द तृतीय के शासन काल को राष्ट्रकूट शक्ति का चरमोत्कर्ष काल माना जाता है। गोविन्द तृतीय ने पाल शासक से मालवा छीनकर अपने एक अधिकारी परमार वंश के उपकेन्द्र को सुपर्द कर दिया।
अमोघवर्ष प्रथम
814 ई. में गोविन्द तृतीय की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र अमोघवर्ष मान्यखेट के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।
उसने पूर्वी चालुक्यों एवं गंगो से लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी।
वह योग्य शासक होने के साथ-साथ जिनसेन 'आदिपुराण' के रचनाकार, महावीरचार्य 'गणितसार-संग्रह' के रचनाकार एवं सक्तायाना 'अमोघवर्ष 'के रचनाकार जैसे विद्धानों का आश्रयदाता भी था।
उसने स्वयं ही कन्नड़ के प्रसिद्ध ग्रंथ 'कविराज मार्ग' की रचना की।
अमोघवर्ष ने ही 'मान्यखेत' को राष्ट्रकूट की राजधानी बनाया।
तत्कालीन अरब यात्री सुलेमान ने अमोघवर्ष की गणना विश्व के तत्कालीन चार महान शासकों में की थी।
वह जैन मतावलम्बी होते हुए भी हिन्दू देवी देवताओं का सम्मान करता था।
वह महालक्ष्मी का अनन्त भक्त था।
संजन ताम्रपत्र से यह पता चलता है कि उसने एक अवसर पर देवी को अपने बाएं हाथ की उंगली चढ़ा दी थी। उसकी तुलना शिव, दधीचि जैसे पौराणिक व्यक्तियों से की जाती है।
राष्ट्रकूट साम्राज्य में उसके विरोधियों की भी कमी नहीं थी। इस स्थिति से लाभ उठाकर न केवल अनेक अधीनस्थ राजाओं ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, अपितु विविध राष्ट्रकूट सामन्तों और राजपुरुषों ने भी उसके विरुद्ध षड़यंत्र आरम्भ कर दिए।
अमोघवर्ष का मंत्री करकराज था। अपने सामन्तों के षड़यंत्रों के कारण कुछ समय के लिए अमोघवर्ष को राजसिंहासन से भी हाथ धोना पड़ा। पर करकराज की सहायता से उसने राजपद पुनः प्राप्त किया।
आंतरिक अव्यवस्था के कारण अमोघवर्ष राष्ट्रकूट साम्राज्य को अक्षुण्ण रख सकने में असमर्थ रहा, और चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर एक बार फिर अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्न किया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।
अमोघवर्ष के शासन काल में ही कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार राजा मिहिरभोज ने अपने विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, और उत्तरी भारत से राष्ट्रकूटों के शासन का अन्त कर दिया।
गुर्जर प्रतिहार लोग किस प्रकार कन्नौज के स्वामी बने, और उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
यह सर्वथा स्पष्ट है, कि अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूट साम्राज्य का अपकर्ष प्रारम्भ हो गया था।
अमोघवर्ष ने 814 से 878 ई. तक शासन किया।
कृष्ण द्वितीय
अमोघवर्ष की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय 878 ई. में राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।
अमोघवर्ष के इस उत्तराधिकारी को प्रतिहार एवं चोल शासकों से परास्त होना पड़ा।
वह एक कमज़ोर शासक था।
उसका शासन काल मुख्यतया चालुक्यों के साथ संघर्ष में व्यतीत हुआ।
वेंगि और अन्हिलवाड़ा में चालुक्यों के जो दो राजवंश इस समय स्थापित हो गए थे, उन दोनों के साथ ही उसके युद्ध हुए।
अब राष्ट्रकूटों में इतनी शक्ति नहीं रह गई थी, कि वे अपने प्रतिस्पर्धी चालुक्यों को पराभूत कर सकते।
कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों के साथ भी कृष्ण द्वितीय के अनेक युद्ध हुए, पर न गुर्जर प्रतिहार दक्षिणापथ को अपनी अधीनता में ला सके, और न ही गोविन्द तृतीय के समान कृष्ण द्वितीय ही हिमालय तक विजय यात्रा कर सका।
इन्द्र तृतीय
इन्द्र तृतीय (915-917 ई.) कृष्ण द्वितीय के बाद राष्ट्रकूट राज्य का स्वामी बना था। यह कृष्ण द्वितीय का पौत्र था। यद्यपि शासन की बागडोर उसके हाथों में सिर्फ़ चार वर्ष तक ही रही थी, किन्तु इतने कम समय में ही इन्द्र तृतीय ने विलक्षण पराक्रम का परिचय दे दिया था।
साम्राज्य विस्तार
इन्द्र तृतीय ने पाल वंश के देवपाल प्रथम को परास्त करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने अपने अल्प शासन काल में ही साम्राज्य को काफ़ी विस्तार प्रदान कर दिया था। उसके समय में ही अल मसूदी अरब से भारत आया था। अल मसूदी ने तत्कालीन राष्ट्रकूट शासकों को 'भारत का सर्वश्रेष्ठ शासक' कहा। इन्द्र तृतीय का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था- गुर्जर प्रतिहार तथा राजा महीपाल को परास्त करना। कन्नौज के प्रतापी सम्राट मिहिरभोज की मृत्यु 890 ई. में हो चुकी थी और उसके बाद निर्भयराज महेन्द्र (890-907 ई.) ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को बहुत कुछ सम्भाले रखा था, लेकिन महेन्द्र के उत्तराधिकारी महीपाल के समय में कन्नौज की शक्ति घटना प्रारम्भ हो गई थी। इसीलिए राष्ट्रकूट राजा कृष्ण ने भी उस पर अनेक आक्रमण किए थे।
कन्नौज की विजय
इन्द्र तृतीय ने तो कन्नौज की शक्ति को जड़ से ही हिला दिया। उसने एक बहुत बड़ी सेना लेकर उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और कन्नौज पर चढ़ाई कर इस प्राचीन नगरी का बुरी तरह से सत्यानाश किया। राजा महीपाल उसके सम्मुख असहाय था। इन्द्र ने प्रयाग तक उसका पीछा किया और राष्ट्रकूट सेनाओं के घोड़ों ने गंगा के जल द्वारा अपनी प्यास को शान्त किया।
Saturday 5 November 2016
राजा मानसिंह आमेर- वृन्दावन गोविन्ददेवजी मन्दिर !
विद्वान लेखक ने दसवें अध्याय में मानसिंह पर बंगाल के राधाकृष्ण सम्प्रदाय के प्रभाव होने का उल्लेख किया है । यह भी लिखा है की यह सम्प्रदाय उस समय बंगाल में बहुत प्रभावी था, जब सन 1587 ईस्वी में राजा मानसिंह बंगाल के सुबेदार बने, व इसी सम्प्रदाय के प्रभाव से सन 1590 ईस्वी में वृन्दावन में गोविन्ददेवजी के मन्दिर का निर्माण करवाया ।
जबकि लेखक ने स्वयं उपर्युक्त मन्दिर के शिलालेख के आधार पर लिखा है की यह मंदिर संवत 34 में अकबर के समय बनाया गया । अकबर का शासन संवत 1600 में था अतः शिलालेख के अनुसार सन 1572 ईस्वी में इस मन्दिर का निर्माण हुआ जब की मानसिंह 1587 ईस्वी में बंगाल गया था । सम्भवतया लेखक से यह त्रुटि जयपुर के पोथीखाना के अधिकारियो द्वारा दी गई गलत सूचना के कारण हुई ।
इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद प्रकाशित हुई पुस्तक "मान चरितावली" में भी यही त्रुटि हुई है, जिसका कारण उसी मन्दिर पर लिखे गए एक अन्य श्लोक का गलत अर्थ करना रहा है ।
अतः यह मान्यता सच्चाई से परे है की मानसिंह कभी भी किसी सम्प्रदाय विशेष के प्रभाव में रहे हो ।
राजपूत हमेशा अपने ही कुलदेवी, कुलदेवता व इष्ट के उपासक रहे है व सभी सम्प्रदायो का समान रूप से आदर करते रहे हैं । सन्तों का आदर करना उनकी दीर्घकालीन परम्परा का एक अंग रहा है । यदि मानसिंह के जीवन पर किसी सन्त का सर्वाधिक प्रभाव रहा है तो व थे दादूदयाल, जो रामभक्त थे ।।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017
रविवार 1 बजे से ।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
निवेदक- इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।
राजा मानसिंह आमेर- प्रभावशाली व्यक्तित्व, नितीज्ञ !!
काबुल को फतेह करके वहाँ के पाँच राज्यों के झंडो को मिलाकर के पंचरंगे झंडे को आमेर का राज्य ध्वज घोषित कर दिया, उस समय मानसिंह राजा नही थे उनके पिता भगवन्तदास जी राजा थे फिर भी उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि बात मानी गई ।
हल्दीघाटी के युद्ध के लिए अकबर ने मानसिंह को सेनापति बनाकर भेजा उस समय मानसिंह कि उम्र मात्र 24 वर्ष थी । मुसलमानों के राज्य में यह नियम था कि सेना को लूटपाट से जो संपत्ति मिलती थी उसे राजकोष में जमा कराया जाता था ।
अकेले मानसिंह को यह छुट थी कि वह लूट कि संपत्ति को राजकोष में जमा नहीं करायेंगे ।।
हल्दीघाटी के युद्ध विजय के बाद राणा प्रताप युद्ध से विमुख होकर लौट रहे थे तब मुसलमान सैनिकों ने उनका पिछा किया । मानसिंह ने पिछा करने वाले सैनिकों को वापस बुला लिया था व लूटपाट कि आजादी नही दी ।
इस घटना कि सूचना जब अकबर को मिली तो वह इतना नाराज हुआ कि कुछ महिनों तक मानसिंह से मिला नहीं । लेकिन उससे एक अधिक कुछ भी वह कर नहीं पाया ।।
राजा मानसिंह आमेर- नितीज्ञ !
इतिहास में जिस काल को राजपूत काल कहा जाता है उसमें विदेशियों व तथाकथित बुद्धिजीवीयों के अनुसार राजपूत बिना परिणाम के बारे में सोचे यूं ही लङते रहे व मरते रहे । राज्य करने वाले के लिए निती का अनुसरण करना आवश्यक है, और निति का अर्थ है ऐसे उपाय करना जिससे हर हालात में विजय प्राप्त हो । राजपूतों ने विजय को महत्व नहीं दिया व त्याग, बलिदान को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाया । जिसका परिणाम यह हुआ कि उनकी किर्ती ने तो इतनी उँचाई प्राप्त की जहां को दुसरा पहुँच ना सका लेकिन उनके राज्य व शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती चली गई, व मुगलकाल के आते आते तो राजपूत शक्ति पूरी तरह क्षीण हो गयी थी ।।
ऐसे समय में आमेर के राजा भारमल ने निति का आश्रय ले अकबर से समझौता किया । दुसरे राजपूत राजाओं को भी मुगलों से संधी कर अपनी शक्ति बढाने को प्रेरित किया । अकबर का शासन आरम्भ होने के समय जो राजपूत शक्ति इतनी दुर्बल हो गयी थी कि उसे शक्ति के रुप में स्वीकारा ही नही जा रहा था । अकबर के शासनकाल में वही शक्ति पुनर्जिवीत हुई व मुगलों के बराबर की शक्ति बन गयी ।।
राजपूतों ने विज्ञान के विकास की ओर कोई ध्यान नही दिया जिसके परिणामस्वरूप जब मुसलमानों ने बंदूक व तोपों का आविष्कार कर लिया तो राजपूतों को पराजित होना पङा । मानसिंह पहला शासक था जिसने वैज्ञानिक हथियारों के विकास की तरफ ध्यान दिया । आज जहाँ जयगढ का किला है आमेर में उस स्थान पर हथियार बनाने का कारखाना खोला गया व दुसरे राजपूत राजाओं को भी यह तकनीक उपलब्ध करवाई लेकिन इस कौम का दुर्भाग्य देखिये मानसिंह कि मृत्यु के बाद किसी ने भी हथियारों के विकास की तरफ ध्यान नहीं दिया ।
सिंधिया, मराठे, जाट खुद हथियारों का निर्माण नही कर सके तो विदेशों से आधुनिक तोपें खरीदकर ले आए लेकिन राजपूतों ने कोई पटाखे बनाने का कारखाना भी नहीं खोला ।।
साभार- देवीसिंह महार साहब ।।
कुँवर मानसिंह आमेर और लाहौर
कुँवर मानसिंह आमेर जब लाहौर किले में थे मिर्जा हाकिम ने किले का घेरा डाला, इस बारे मे सुजानसिंह लिखते है ।
सुजानसिंह ने अपनी खुलासात-उल-तवारीख में कहा है "अपने उद्देश्य में विफल होकर मिर्जा हकीम निराश होकर लाहौर नगर को छोङकर चला गया । उसने जलालपुर, हाफिजाबाद, भन्नड होकर काबुल और सिंध नदी खुंट के पास पार की ।
कुँवर मानसिंह ने मिर्जा हाकिम का सिन्ध नदी तक पिछा किया और फिर लाहौर लौट आया ।
इसके बाद मिर्जा हाकिम को अधीनता में किये जाने के लिये अभियान शुरु किया गया, जुलाई 1581 में ।
इस अभियान में कुँवर मानसिंह, नौरंगखान, माधोसिंह, मानसिंह दरबारी, मुहम्मद बेग तकलू अग्र भाग में चले ।
अबुल फज्ल का कथन है कि शेरख्वाजानाद अली, कुरबान अली, मीर सिकन्दर आदि अफगान सेनापतियों ने कई बार किले पर हमले किये पर उन्हें वापिस खदेड़ दिया गया । यह घेरा अधिक दिनों तक नहीं चला व रसद सामग्री खत्म होने लगी और उन्हें पिछे हटना पङा ।।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
निवेदक- इतिहास शुद्धिकरण अभियान
कुँवर मानसिंह आमेर कि काबुल अभियान में भूमिका
जुलाई 1581 में काबुल अभियान शुरु हुआ मानसिंह इस अभियान में अग्र भाग में थे । मिर्जा हाकिम पहले ही लाहौर से भाग चुका था मानसिंह ने उसका लम्बे समय तक पिछा किया पर वह बच निकला ।।
फादर मोनसरेट इस अभियान में अकबर के शिवीर में था उसने इस अभियान के बारे में लिखा है कि मानसिंह जो कि जाति से भारतीय और मूर्तिपूजक था वह एक उत्साही सरदार था प्रमुख व्यक्ति था । इस अभियान में अकबर का पुत्र मुराद अग्रदल का नेता बणाया गया । उसके साथ "कालीचूमैकेनिस" जो सुरत का गवर्नर और एक अनुभवी वृद्ध योद्धा था तथा नौरानकेनुस जो गेडरासियाम चम्पालेनियम का गवर्नर था, को भेजा ।
कालीचूमैकनस के साथ मंगोलो की सेना थी, नौरनमैनूस के साथ चार हजार क्षाकटियन घुङसवार थे और मैकिनस के पास अपनी सेना थी ।
मोन्सेरेट आगे लिखता है अग्रभाग कि सेना जिसमें कुतुबदीकोनूस के पुत्र नोरानमेनुस के नेतृत्व था पर काबुल के समीप मिर्जा हकिम कि सेना ने आक्रमण कर दिया । इस समय नोरानमेनुस ने मानसिंह से सहायता के लिये प्रार्थना कि ।।
इस संघर्ष में मिर्जा की सेना को बुरी तराह पराजित होना पङा ।।
जब अकबर ने वापस हिन्दुस्तान लौटने का निश्चय किया तो उतर-पश्चिमी भू भाग के प्रशासन के लिये उसने समुचित प्रबंध किये । सिन्ध प्रान्त का संरक्षण कुँवर मानसिंह को सौंपा गया, पंजाब का प्रशासन सैयदखान, भगवन्तदास और कुँवर मानसिंह की संयुक्त देखरेख में रखा गया ।
यह व्यवस्था इसलिये की गयी कि अब भी पंजाब प्रान्त पर मिर्जा हकीम का खतरा मंडरा रहा था । जब मिर्जा गठबन्धन तोड़ दिया गया तब राजा भगवन्तदास को पंजाब का स्वतन्त्र गवर्नर बना दिया गया और सैयद खान को सम्बल भेज दिया गया, पर मानसिंह को सिन्ध क्षेत्र की सम्भाल पर रखा गया । 1582 के अन्त में यह व्यवस्था पूर्ण हुई जब अकबर पेट के दर्द से मुक्त हुआ ।।
कुँवर मानसिंह ने सफलतापूर्वक सिन्ध प्रान्त पर अपना प्रशासन स्थापित किया और मिर्जा मुहम्मद की गतिविधियों पर कङी नजर रखी । सन् 1585 में कुँवर से बदकशाँ का पूर्व शासक मिर्जा शाहरुख आकर मिला जो उसके लिए सम्मान का विषय था ।
इसी वर्ष अप्रैल 1585 कुँवर मानसिंह जो अटक में स्थित थे ने मिर्जा हकीम के गंभीर बीमार होने की खबर सुनी ।
मिर्जा हकीम कि मृत्यु 30 जुलाई 1585 को हो गई । अकबर ने मानसिंह को काबुल रवाना किया सेना सहीत ।।
डी. लैक्ट ने इस तथ्य की पुष्टि की है उसका कथन है "मु. हकीम जो काबुल का शासक था बिमार होकर मर गया । इस पर राजा मानसिंह जो जाति से राजपूत था और 5000 घुङसवारों का सेनापति था, को काबुल को एक प्रान्त बनाने हेतु भेजा गया । अकबर स्वयं पंजाब के लिये 22 अगस्त 1585 को रवाना हुआ । जब वह दिल्ली में था तो उसको यह समाचार मिला कि मानसिंह ने अपने कुछ सैनिक "नीलाम" के पार पेशावर भेजे हैं और शाहबेग जो मिर्जा का एक सरदार था, कुँवर के आगमन की बात सुनकर काबुल भाग गया है ।
इसी बीच जुलाई 1585 को मिर्जा की मौत के पश्चात मानसिंह को यह सूचना मिली कि वह शिघ्र काबुल जाए और इस विद्रोही प्रान्त को अपनी अधीनता में करें इसी समय जब पहली बार अटकसिन्ध नदी को पार करने का प्रश्न उठा तो सेना के साथ चलने वाले पुजारीयों ने सैनिकों में यह भ्रम पैदा कर दिया कि नदी के पार यवन प्रदेश हैं, जहाँ जाने से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा । इस पर कृष्ण भक्त मानसिंह स्वयं ने अपने सैनिकों से कहा था कि--
सभी भूमि गोपाल की, जामें अटक कहाँ ।
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ।।
इस प्रेरणा से सैनिक नदी पार करने को सहमत हो गये ।।
रणनीति के अनुसार कुँवर मानसिंह ने सिन्ध नदी पार की और वह पेशावर जा पहुँचे । उस क्षेत्र के अफगानों ने बिना किसी प्रतिरोध के अधिनता स्वीकार की । जब मानसिंह काबुल पहुँचे तो उन्होंने वहाँ बङी भ्रमपूर्ण स्थिति देखी । मिर्जा के पुत्र कैकुबाद और अफरासियाब बहुत छोटी अवस्था के थे, इसलिये देश का प्रशासन करने में सर्वथा असमर्थ थे । शहजादों की अल्पावस्था का लाभ लेकर काबुल के सरदारों ने प्रशासन पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था । मानसिंह के पहुँचने पर काबुल में शाँति का युग शुरु हुआ ।
इकबालनामा का कथन है कि बङी संख्या में काबुली लोग शाही सेनापति को देखने आये । राजा को ज्ञात हुआ कि उसके काबुल पहुंचने के पूर्व मिर्जा बख्तनिशा बेगम हकीम मिर्जा की विधवा तथा दो पुत्रों और फरदूनखान के साथ काबुल से जलालाबाद के लिये रवाना हो गयी थी । कुँवर मानसिंह शीघ्र जलालाबाद के लिये रवाना हुआ और एक स्थान पर पहुँच गया जिसका नाम बुतखाब या ताकखाक था ।
*जलालाबाद के अधिकारी ने कछवाहा सेना के आगे आत्म समर्पण कर दिया । काबुल कुँवर मानसिंह के कदमों पर पङा था । उन्होंने काबुलियों को धीरज दिया और उन्हें अपने संरक्षण का विश्वास दिलाया ।*
साभार पुस्तक- राजा मानसिंह आमेर
लेखक- राजीव नयन प्रसाद
अनुवाद- डा. रतनलाल मिश्र
कुँवर मानसिंह आमेर - काबुल अभियान (काबुल-जालालाबाद के अधिकारीयों का आत्म-समर्पण )
कुँवर जब काबुल से जलालाबाद पहुंचे तो कछवाहा सेना के आगे जालालाबाद के अधिकारी आत्म समर्पण कर देते है । काबुल मानसिंह के कदमों में पङा था । मानसिंह ने काबुलियों को धीरज दिया व अपने संरक्षण में लिया ।
काबुल में शाँति स्थापित करने के बाद मानसिंह अकबर से मिलने पंजाब पहुँचे । उन्होंने अपने बङे पुत्र जगतसिंह और ख्वाजा समसुद्दीन खां को काबुल में छोड़ा ताकि वे वहाँ का काम देखते रहें, और काबुलियों पर सतर्क होकर नजर रखें । यह दिसम्बर 1585 कि बात है सभी काबुल मुख्य सरदारों को उन्होंने अपने आधीन कर लिया था ।
सभी को मानसिंह ने अधिनता स्वीकारने के बाद अकबर से सलाह के बाद नई जागीरे व इनाम दिये व उचित स्थान दिया । काबुल के अमीरों को भी अकबर की और से कई ईनाम मिले ।
जयपुर के पोथी खाने की वंशावली के अनुसार कुँवर को काबुल में अपनी योग्यताभरी सेवाओं के लिये विशेष सम्मान दिया गया ।
काबुल में मानसिंह के महिमामय कृत्यों से अकबर अत्यधिक प्रसन्न था । वह उनकी संगठन की क्षमता से बहुत प्रभावित था । निश्चय ही, ऐसे सुदुर देश में जो मुगल प्रभाव क्षेत्र से काफी दूर पङता था । विद्रोही अफगानों को नियंत्रण में लाना और अराजकता में शांति स्थापना करना एक अद्भुत कार्य था । कुँवर को उसकी योग्यता के अनुरूप पारितोषिक मिले । उन्हें काबुल का गवर्नर बनाया गया और सीमान्त प्रदेश के रोशनियो(धर्मान्ध आंतकवादि) को कुचलने और दण्डित करने के कार्य का भी अधिकार दिया गया ।
यह रोशनिया(धर्मान्ध आंतकवादि) भयंकर अफगानि थे जो बहुदा खैबर दर्रे पर और राजमार्ग पर लूटपाट किया करते थे और इस प्रकार इन्होंने यात्रियों की यात्रा असुरक्षित बना दी थी । मानसिंह को सौंपा गया यह काम बङा कठिन और जिम्मेवारी पूर्ण था, पर उन्होंने सौंपे गये कठिन कार्य को बखुबी अंजाम देकर अपने आपको सफल बनाया ।।
रोशनियों को दंडित करने का एक अवसर मानसिंह को शीघ्र अपने आप मिल गया । ये लोग खैबर दर्रे के पास और आसपास बङी अशांति उत्पन्न करते थे । मानसिंह को पता लगा कि मीर कुरैशी, जो तुरान के बादशाह अबदुल्लाह खान का राजदूत था, बादशाह से मिलने आ रहा था । इसलिए मानसिंह ने भाई माधोसिंह को
काफिले में शामिल होने के लिये भेजा ताकि वह सुरक्षित खैबर दर्रे से ले आये ।।
यह कार्य रोशनियों की लूटमार से असंभव हो गया था । माधोसिंह खैबर में घुसे और मीर कुरैशी के काफिले में शामिल हो गयेष। मानसिंह स्वयं अली मस्जिद के किले तक आये जो दर्रे के बिल्कुल नजदीक था वह सेना की छोटी टुकङी के साथ थे ।
रोशनियां जिन्हें तारीकी कहा जाता है ने छोटी सेना का फायदा उठाकर कुँवर मानसिंह पर हमला बोल दिया । एक अँधेरी रात में अली मस्जिद के किले को घेर लिया और उनमें से कई किले के शीर्ष भाग पर जा पहुँचे । मानसिंह ने छोटी सेना होते हुए भी इस आक्रमण को पीछे खदेड़ दिया और शत्रुओं को दुसरे स्थान पर पीछे जाने को विवश कर दिया । दुसरे दिन सुबह तक विद्रोही तारीकियों को बाहर निकाल दिया गया । उनमें से बहुत से मारे गये । बङी संख्या में उनको बन्दी बना लिया गया । इसका प्रतिफल यह हुआ कि तुरान राजदूत ने केवल खैबर दर्रा ही पार नहीं कर लिया अपितु सुरक्षित उसे सिन्ध के पार पहुंचा दिया ।।
साभार पुस्तक- राजा मानसिंह आमेर
लेखक - राजीव नयन प्रसाद
अनुवाद- डा रतनलाल मिश्र
कुँवर मानसिंह आमेर - काबुल अभियान तारिकियो, युसुफजाइयों, गौरी, महमुद, अफरीदी व अफगान कबिलों से संघर्ष ।
शहजादे मुराद और राजा टोडरमल को युसुफजाइयों ( अफगान कबीला ) का दमन करने के लिये भेजा गया । इन्होंने मलन्दराय दर्रे ( पेशावर और स्वात के मध्य स्थित ) पर राजा बिरबल को मार डाला था । यह घटना फरवरी 1586 में घटित हुई थी । राजा टोडरमल ने इस विचार को पसंद नही किया कि मुराद जैसा एक जवान शहजादा भयंकर युसुफजाई कबीले से लङे । इसलिए उन्होंने शहजादा मुराद कि जगह दुसरा योग्य व्यक्ति भेजने को कहा ।
अकबर ने टोडरमल के प्रस्ताव को मानते हुवे कुँवर मानसिंह को युसुफजाई कबिले के दमन के लिये भेजा । उस समय कुँवर जमरुद ( खैबर दर्रे के प्रवेश के पास ) थे और सारा ध्यान तारीकियों को दंडित करने में लगाया हुआ था । लेकिन अब वह अगले उद्देश्य को सफल बनाने के लिये रवाना हो गये । राजा टोडरमल से विचार विमर्श करने के बाद अपना शिविर सिन्धु नदी के तट पर स्थापित किया । उन्होंने एक किले का निर्माण करवाया जो बुन्नर दर्रे और ओहिन्द के बीच में था । इसके निर्माण के पिछे दो उद्देश्य थे एक, यह युसुफजाइयों के आक्रमण के समय सुरक्षा प्रदान करे और दुसरा, युसुफजाइयों पर आक्रमण करने के लिये एक आधार का काम करें । राजा टोडरमल कुँवर कि नितियों से पुरी तराह संतुष्ट थे और वह लौटकर फतेहपुर आ गये व इस अभियान पर कुँवर मानसिंह अकेले रहे ।
कुँवर के युसुफजाइयों को दण्डित करने के लिये रवाना होने के साथ ही काबुल गवर्नर का पद रिक्त हो गया था । यह सुरक्षित नहीं था कि इस पद को ज्यादा देर तक खाली रखा जाए क्योंकि काबुल में अफगानों के नये विद्रोह का खतरा बराबर बना हुआ था । इसलिए पंजाब के गवर्नर भगवन्तदास काबुल गवर्नर बने ।।
लेकिन मानसिंह के बाद काबुल का गवर्नर पद कोई और ठिक से नही संभाल पाये । और मानसिंह पुनः काबुल के गवर्नर बने ।।
सितम्बर 1586 में कुँवर मानसिंह कि तबियत बिगङ गई शत्रुओं को मानसिंह को परेशान करने का मौका मिल गया । महमूद और गौरी कबीलों ने अफगानों के साथ मिलकर मानसिंह के काफिले पर हमले किये ।
13 दिसम्बर 1586 को मानसिंह 3,000 घुङसवारों के साथ पेशबलक से चले और तिरह के निकट घाटी चाहर चोब जल्दी सुबह पहुँचे । 15 दिसम्बर को एक सेना मानसिंह के सेनापति के नेतृत्व में अफरीदियों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर देती है और बहुत सा लूट का माल एकत्र किया ।
यहाँ मानसिंह और उनके अधीनस्थ अधिकारीयों के भावी कार्य प्रणाली के संबंध में एक विवाद उठ खङा हुआ । कुछ लोगों का विचार था कि हमें लौट चलना चाहिए और लूट का माल सुरक्षित स्थान पर जमा कर देना चाहिए । इसके बाद आगे बढना चाहिए । कुँवर ने इस सुझाव को खारिज कर दिया और वह निरन्तर आगे बढते रहे ।
कुँवर मानसिंह जब गोरी कबीले के घरों के पास से गुजरे तो गोरी कबिले ने समर्पण कर अपने आपको बचाया । पर इसी बीच पीछे की शाही सेना जो तख्तबेग के अधीन थी, पर युसुफजाइयों के नेता जलाल ने आक्रमण कर दिया । भंयकर लङाई शुरु हो गयी । कुँवर मानसिंह ने जो अग्रभाग में थे, कुमुक भेज दी । अफगान लोग पराजित हुए और तितर-बितर हो गये ।
कुँवर ने अपने बङे बेटे जगतसिंह को पिछली सेना के साथ छोड़ दिया और अली मस्जिद किले की और रवाना हुवे । मानसिंह के इससे आगे बढ़ने के कार्य में अफगानी कबिलों के समूहों के आक्रमण से बाधा में पङी । जयपुर स्टेट आर्काइव्ज की वंशावली का कथन है कि मानसिंह का विरोध करने वाले अफगानी लोगों कि संख्या 3 लाख थी । मानसिंह कि सेना एक घाटी में विवश होकर रुकी हुई थी और अफगान लोग उन पर तिरों और पत्थरों की वर्षा कर रहे थे । मानसिंह कि हालत खतरनाक हो गयी क्योंकि लङने के लिये खुला स्थान नही था न आश्रय लेने को कोई स्थान जहाँ से वह शत्रु के तिरो व पत्थरों से बचाव कर सके । इतना होते हुए भी कुँवर ने शत्रुओं से उत्साह-पूर्वक लङाई जारी रखि । समय समय पर आश्चर्यजनक लङाईयाँ होती रही । खुले स्थान पर पहुँचने पर सेना को शस्त्रों कि शक्ति दिखाने का मौका मिला । अफगान लोग कुँवर की सेना से अधिक देर तक नहीं लङ सके और तंग घाटियों से होते हुए भाग निकले ।
मानसिंह अभी शत्रुओं के कष्ट से पुरी तराह मुक्त नही हुवे। निजामुद्दीन हमें बतलाता है कि तारीकी और अफगान रात दिन बङे बङे समूहों में आते और लङाई करते रहते । इसी समय मानसिंह के भाई माधोसिंह जो ओहिन्द के थाने पर इस्माइलकुलीखान के साथ थे, एक सुसज्जित सेना के साथ मानसिंह को कुमुक पहुँचाने आये । इसके पश्चात् अफगान लोग भाग गये । उनके प्रायः दो हजार लोग मारे गये ।।
साभार पुस्तक- राजा मानसिंह आमेर
लेखक - राजीव नयन प्रसाद
अनुवाद- डा रतनलाल मिश्र
Friday 4 November 2016
कुँवर मानसिंह का काबुल से स्थानान्तरण का कारण
मार्च 1587 में कुँवर मानसिंह को काबुल से वापस बुला लिया गया । बदायुनी एवं निजामुद्दीन मानसिंह को वापस बुलाने के तथ्य का उल्लेख करते है पर उसका कोई कारण नही बताते, अबुल फज्ल अवश्य इसका कारण बताता है उसका कथन है "जैसा कि प्रतीत हुआ कि राजपूत सैनिक उस देश की प्रजा के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करते हैं और मानसिंह पीङितों की पुकार नहीं सुनता है और इस ठण्डे मुल्क को वह पसंद नही करता है ।
अबुल फज्ल लिखता है कि राजा मानसिंह को काबुल से हटाने का कारण राजपूतों ने काबुल के मुस्लिम समुदाय के साथ दुर्व्यवहार किया और राजा मानसिंह ने पिङितों कि गुहार अनसुनी कर दी ।
अतः कारण स्पष्ट है कि राजा मानसिंह आमेर के काबुल अभियान व विजय से मुस्लिम सेनापति व आम मुस्लिम खुश नही थे ओर उन्होंने दबाव बनाया कि राजा मानसिंह आमेर इस्लामीकरण में सबसे बङी बाधा है उन्हें काबुल से हटाया जाये ।
अफगान लोगों के मन में हिन्दुस्तानी राजपूतों के प्रति एक ओर विरोध की भावना रही हैं । अभिमानी अफगान लोगों को काबुल में राजपूतों की उपस्थिति अपमानजनक प्रतीत होती थी और वे राजपूतों की अधीनता में क्रोध से उबाल खा रहे थे । कछवाहा राजपूत उनके सरदारों एवं सामान्यजनों की आँखों में काँटो की तरह चुभ रहे थे ।
साभार पुस्तक- राजा मानसिंह आमेर
लेखक - राजीव नयन प्रसाद
Monday 31 October 2016
अनुठी परम्परा
अनुठे पारम्परिक रिवाज का निर्वाह होता है डढे़ल में ।।
वर्तमान में सामूहिक परिवार विघटन व आधुनिक चकाचौंध के बिच जहाँ एक एक पारम्परिक परम्पराएँ, रिती रिवाज का हास हो रहा है वहाँ आज भी दिपावली व होली पर सामूहिक राम राम करने कि परम्परा हमारे गांव डढे़ल में जीवांत अवस्था में है ।
ढोल के साथ राम राम करने का रिवाज एक मात्र राजपूत जाति में ही है और यह परम्परा रियासत काल में प्रत्येक गाँव में थी, लेकिन नये दौर में विघटन के साथ यह परम्पराएँ एक एक करके खत्म हो गयी लेकिन हमारे गाँव में यह परम्परा आज भी है ।।
ढोल व नंगारे का राजपूत रिवाजों में मुख्य किरदार रहता है अन्य किसी समाज में यह रिवाज नही है और राजपूत ढोल व नंगारे को अपने स्वाभिमान का प्रतीक भी मानते है कालान्तर में ढोल और नंगारे के लिये युद्ध भी हुए है ।।
दिपावली व होली पर सुबह सर्वप्रथम गाँव के गढ में सुबह ढोल बजने पर सभी राजपूत वहाँ उपस्थित होते है और बङो से आशीर्वाद लेते है और वर्तमान में समाज कि क्या दिशा होनी चाहिए इस पर चर्चा होती है । इसके बाद ठाकुर जी के मंदिर में सभी साथ जाकर धौक लगाते है व अन्य मंदिरों में दर्शन करने के बाद सामूहिक राम राम पुरे गाँव में किये जाते है ।।
संगठन हमारी प्राचीन परम्परा :- भगवान बुद्ध ने क्षत्रियों से आह्वान किया था कि अपनी विरोधी शक्तियों को परास्त करने के लिये संगठन आवश्यक है और साल में कम से कम एक बार सबको एक जगह एकत्रित होना चाहिए ।
राजपूत संत व महात्माओं का मानना है कि वर्तमान में विध्यमान दुष्ट शक्तियों का कोई अकेला आदमी या परिवार सामना कर सके यह संभव नही इसलिए संगठन में रहकर दुष्ट शक्तियों से लङा जा सकता है उन्हें परास्त किया जा सकता है ।।
हमारी इस परम्पराएँ में आज के दिन तीन से चार पिढियाँ एक साथ होती है व बङो को देखकर आने वाली पिढी अनुशासित होती है ।।
Wednesday 26 October 2016
"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब
जब राजा मानसिंह आमेर आगरा से आमेर आ गये तो आने के बाद सर्व प्रथम सलिम समर्थक व मानसिंह विरोधीयों का दमन किया । जहाँगीर अपने समर्थकों के दमन से दुःखी व क्रुद्ध हुआ व उसने रोहतासगढ़ की जो जागीर अकबर ने मानसिंह को दी थी छीन ली व वहाँ के हथियार भी जब्त कर लिए । उसे यह भी भय हुआ कि मानसिंह अपने समर्थकों से कहीं बंगाल में बगावत नहीं करवा दे, इसलिए उसने सभी मानसिंह समर्थकों को बंगाल से वापस बुला लिया व मानसिंह को आदेश दिया कि वह दक्षिण ...कि तरफ जायें व परवेज व खानेखानम के नेतृत्व में भेजी गई सेना का सहयोग करे ।
जहाँगीर मानसिंह से कितनी शत्रुता रखता था इस बात का अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है कि मानसिंह कि मृत्यु के बाद भी उसने मानसिंह के बङे पुत्र जगतसिंह के पुत्र महासिंह को गद्दी पर नहीं बैठने दिया व मानसिंह के दुसरे पुत्र भावसिंह को आमेर का राजा घोषित कर दिया । खुद के उतराधिकार के अवसर पर जहाँगीर व उसके समर्थक वंश परम्परा के नियमों का बार बार हवाला दे रहे थे लेकिन मानसिंह के उतराधिकार के विषय में उन्होंने स्वयं राजपूतों के वंश परम्परा के नियमों को तोङकर जगतसिंह के पुत्र महासिंह को राज्य देने की बजाय मानसिंह के छोटे पुत्र भावसिंह को गद्दी पर बैठा दिया ।
जब कछवाहों में विरोध के स्वर उठने लगे तो बादशाह ने महासिंह को दक्षिण में ही सूबेदारी देकर पाँच हजार का मनसब दिया । इससे असन्तुष्ट कछवाहे इसलिए संतुष्ट हो गए कि भावसिंह के कोई सन्तान नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप भावसिंह कि मृत्यु के बाद महासिंह के पुत्र जयसिंह ( मिर्जा राजा ) आमेर के शासक बने ।।
उपर्युक्त तथ्य यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि जहाँगीर मानसिंह के विरोधियों के चंगुल में बुरी तराह फंसा हुआ था और यह कारण भी था कि मानसिंह ने मुस्लिम परम्परागत इस्लामीकरण को उनके काल में पनपने नही दिया इसलिए मुस्लिम सरदार व जहाँगीर मानसिंह विरोधी थे ।
यथार्थ में मानसिंह आमेर ने जहाँगीर के शत्रुतापूर्ण व्यवहार को भी केवल इसलिए बर्दाश्त किया कि मुगलों से संबंध विच्छेद करने परिणामस्वरूप पठान मुगल गठजोङ से सनातन धर्म को आघात पहुँचने कि पुरी संभावना थी ।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017 ।
रविवार, 1 बजे से ।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर ।
निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।
"राजा मानसिंह आमेर"
"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब
पिछली पोस्ट में हमने आपको बताया कि सनातन धर्म रक्षार्थ राजा मानसिंह आमेर अकबर के साथ बने रहे क्योंकि क्षीण हो चुकी राजपूत शक्ति को पुन: मजबूत करना था और इसके साथ भारत का इस्लामीकरण ना हो इसके लिये यह आवश्यक था कि पठान व मुगल कभी एक ना हो सके और इस कार्य में मानसिंह आमेर सफल रहे ।।
अकबर भी यह जानता था कि बिना मानसिंह आमेर व राजपूत शक्ति के उसका राज्य सुरक्षित नही है अत: दोनों पक्ष अपनी अपनी मजबूरी के कारण एक दुसरे के साथ थे ।
मानसिंह के बढ़ चूके प्रभाव से मुस्लिम सेनापति व सभी सल्लतनतों के सरदार मानसिंह को इस्लाम का दुश्मन मान चुके थे क्योंकि भारत में जो इस्लामीकरण कि बाढ आनी थी वह राजा मानसिंह के कारण रुक गयी ।
मानसिंह आमेर के सनातन धर्म रक्षक व इस्लामीकरण में बाधक होने के कारण ही सलीम व मानसिंह आमेर में निरन्तर दुरी बनी यह एक सत्य बात है पिछली पोस्ट में हमने इस पर विस्तार से बताया अब उससे आगे ।।
विद्वान लेखक ने जहाँगीरनामा की सत्यता को अस्वीकार करते हुए भी, उसी के तथ्यों को अधिक महत्व दिया है । दूसरी तरफ पिथलपोता की ख्यात को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जबकि इस ख्यात को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जबकि इस ख्यात का लेखक भी रामदास कछवाहा का दरबारी लेखक था । यधपि इस बात का कोई लिखित प्रमाण नही है कि रामदास कछवाहा, रायसल दरबारी व माधवसिंह को अकबर ने अपने जीवन काल में ही सलीम के पक्ष में कर दिया था, किन्तु परिस्थितियों इस बात की साक्षि देती है की ये तीनों व्यक्ति जो हमेशा मानसिंह का कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देते रहे, यकायक उसके विरूद्ध नही हो सकते थे ।
मानसिंह की आगरा व आमेर से लम्बी अनुपस्थिति ने अकबर व मानसिंह के विरोधियों को उन तीनों को अपने पक्ष में अथवा सलीम के पक्ष में करने का अवसर प्रदान किया ।।
मुस्लिम इतिहासकारो द्वारा यह लिखा गया है कि रायसल दरबारी ने मुगल सल्तनत के प्रति वफादारी के कारण सलीम का साथ दिया, किन्तु वफादारी दो विरोधी पक्षों के बिच कभी भी संभव नही है । रायसल दरबारी शेखावत थे, जिनके आदि पुरुष शेखा ने आमेर के राजा चन्द्रसेन के साथ यह सन्धि की थी की शेखावत हमेशा आमेर के राजाओं के साथ रहेंगे व आमेर राजा हर मुसीबत में शेखावतो का साथ देंगे । इस सन्धि का किसी भी पक्ष ने बिना उलंघन किए, एक-दूसरे का सहयोग कर बड़े से बड़ा त्याग किया था ।
आमेर के राजा साथ हुई इस सन्धि को तोड़ना क्या गलत नही था ? दूसरी तरफ माधवसिंह मानसिंह के सगे भाई थे जिसने अपने जीवन में मानसिंह के साथ खतरनाक युद्धों में भाग लेकर अपने जीवन को अनेक बार खतरे में डाला था । यह सम्भव नही है कि मानसिंह का ऐसा कोई हितैषि भाई बिना किसी षड्यंत्र का शिकार हुए मानसिंह का विरोध करता । इसी प्रकार रामदास कछवाहा भी इस हैसियत का व्यक्ति नही था जो अकेले मानसिंह कि खिलाफत का विचार भी करते । यथार्त इन तीनो को पहले ही बादशाह अकबर ने कोई प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया होगा ।।
सलीम के बादशाह बन जाने के बाद उसने यह सिद्ध कर दिया कि मानसिंह को प्राप्त सूचनाएं व उसके विचार पूरी तरह सही थे । जहाँगीर ने शासन प्राप्त करते ही मानसिंह के मनसब सात हजार से घटा कर पॉँच हजार का किया व उन्हें आगरा व बंगाल से दुर रखने के लिए, तुरन्त दक्षिण जाने का आदेश दिया, किन्तु मानसिंह अपनी नाराजगी दर्ज करवाने के लिए कटिबद्ध थे । अतः उन्होंने दक्षिण जाने की जगह आमेर जाने कि बात रखी जिसे न चाहते हुए भी, वह देने को मजबूर हूआ । मानसिंह ने इन तीन वर्षों का उपयोग, आमेर को सुदृढ़ करने मे किया ।।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017 ।
रविवार, 1 बजे से ।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर
निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।
Monday 24 October 2016
अकबर व मानसिंह के साथ रहने की मजबूरी
"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब
पुस्तक के अध्याय सात के अंतिम भाग में लेखक ने मानसिंह के लिए लिखा है की इस समय इनकी भूमिका एक षड्यन्त्रकारी की हो गयी थी । मानसिंह के लिए यह टिप्पणी पूरी तरह अनुचित है, क्योकि वास्तविकता यह है की मानसिंह उस समय उसके विरोधी मुगल षड्यन्त्रकारियों के षड्यन्त्र में पूरी तरह फंस चुके थे । इतिहासकारों की यह धारणा पूरी तराह भ्रामक है की मानसिंह अकबर के प्रति पूर्ण वफादार थे व अकबर मानसिंह पर पूरा विश्वास करता था ।
वास्तविकता यह है की अकबर व मानसिंह दोनों अपनी अपनी मजबूरियों के कारण एक दूसरे के साथ रहने व एक दूसरे के प्रति पूर्ण विश्वास प्रकट करने के लिए बाध्य थे । अकबर यह ठीक प्रकार जानता था की बिना राजपूतों व मानसिंह जैसे सुयोग्य सेनापति के सहयोग के वह पठानों का दमन व अपने शासन को सुरक्षित करने में समर्थ नही था । दूसरी तरफ मानसिंह भी इस बात को ठीक प्रकार से जानते थे की अगर पठान व मुगल परिस्तिथियो के दबाव में एक हो जाते है तो सम्पूर्ण राजपूत शक्ति एकजुट होकर भी उनको परास्त करने में समर्थ नही थी । ऐसी स्थिति में उनको मिलने देने का परिणाम होता सम्पूर्ण भारत का इस्लामीकरण । विभिन्न अवसरों पर खट्टे-मीठे घूंट पीकर भी मानसिंह अकबर व जहांगीर के साथ बने रहे ।।
मानसिंह अपने विरोधी मुग़ल दरबारियो व सेनापतियों की गतिविधियों के प्रति पूर्ण सजग था । मुगल दरबार की गतिविधियों की सूचना उन्हें मिलती रहे, इसके लिये उन्होंने पूरी व्यवस्था की थी । प्रतिदिन आगरा से मुगल दरबार में हुई गतिविधियों की सुचना आमेर भेजी जाती थी । यहां का अधिकारी इनमे से जो भी महत्वपूर्ण सुचना होती उसे तुरन्त अपने राजा के पास, चाहे वह कहीं भी हो, भेजता था । यह व्यवस्था मुगल शासन के अन्त तक लगातार चलती रही ।
लेखक ने राजा मानसिंह के अजमेर जाने का कारण विश्राम, अच्छी जलवायु का होना व शहजादा सलीम की अकबर के प्रति नाराजगी को दूर करना लिखा है । जबकि वास्तविकता यह थी की मानसिंह इस बात की थाह लेना चाहते थे की उनके प्रति सलीम के मन में किस हद तक नफरत भर दी गई है । जब उन्होंने देखा की उसके ह्रदय में सिमा से अधिक नफरत है, तो उन्होंने सलीम को अपने साथ ले जाने का प्रयतन किया ताकि उसे षड्यन्त्रकारियों से दूर रखा जा सके, जिसमे एक बार उन्हें सफलता मिलती दिखाई दी, किन्तु बाद में सलीम ने अलाहाबाद से आगे जाने से इंकार कर दिया ।
यहां पर यह बात द्रष्टव्य है की मुगल दरबार के प्रमुख दरबारियो में से केवल दो ही लोग मानसिंह के हितचिंतक थे, पहला बीरबल, जिसकी मृत्यु उस समय हो चुकी थी, जब मानसिंह बिहार के गवर्नर थे, दुसरा अबुल फज्ल, जिसकी कुछ ही समय पूर्व सलीम ने हत्या करवा दी थी । इस हत्या के बाद एक तरफ अकबर के दरबार में कोई भी प्रमुख व्यक्ति मानसिंह का हितचिंतक नही रह गया था, दूसरी तरफ, अबुल फ़ज़्ल की हत्या के बाद मानसिंह सलीम पर किसी भी प्रकार का विश्वास करने की स्थिति में नही थे । इस तरह वह अपने विरोधी षड्यन्त्रकारियों के चंगुल में फंस चुके थे ।।
उपरोक्त परिस्थितियों में मानसिंह के मन में सलीम व मुगल शासन के प्रति उत्पत्र हुई कटुता को अकबर ठीक प्रकार से समझता था । इसलिए मानसिंह को शांत करने के उद्देश्य से ही उसने अपने जीवन के अंतिम काल में मानसिंह को सप्तहजारी मनसबदार बनाकर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने की चेष्टा की थी । अकबर व सलिम के बिच ने कोई शत्रुता थी और न कोई न कोई दुरी । सलीम अपनी नाराजगी प्रकट कर मानसिंह के प्रभाव को अकबर द्वारा ही सिमित करवाना चाहता था । क्योकि मानसिंह के विरोधियो ने सलीम को यह पूरी तराह समझा दिया था की मानसिंह उसके लिए सबसे बड़ा खतरा है ।
यद्यपि लेखक ने कर्नल टाड के उस लेख पर में सन्देह व्यक्त किया है जिसमें उसने बूंदी के इतिहास के आधार पर यह लिखा है कि -- "अकबर ने मिठाई में जहर मिलाकर मानसिंह को देने का प्रयास किया था, किन्तु गलती से उस जहरीली मिठाई को अकबर स्वयं खा गया, परिणामस्वरूप वह रुग्ण होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ ।" आमेर और जयपुर के हर व्यक्ति के मुँह पर टाड की लिखी यह कथा आज भी प्रचलित है जिसे अस्वीकार करना कठिन है । कारण भी स्पष्ट है की अकबर भी यह ठीक प्रकार से समझ गया था की अब मानसिंह व सलीम के बीच जो दूरियाँ कायम हो गई हैं, उनको मिटाना असम्भव है ।
अतः उसने मानसिंह को ही रास्ते में से ऐसे तरीके से हटाने का प्रयास किया, जिससे उसके सामन्तों व अन्य राजपूत राजाओ में असन्तोष व्याप्त नही हो, किन्तु वह अपनी योजना में इसलिए असफल हुआ कि स्वयं की ही गलती से जिस मिठाई से वह मानसिंह के प्राण लेना चाहता था, उस मिठाई को स्वयं खाकर रुग्ण होकर मर गया
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017 ।
रविवार, 1 बजे से ।।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर ।
निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।
Sunday 23 October 2016
आमेर और बहरामखाँ
विद्वान लेखक ने अकबर व भारमल की मित्रता में जो चकतायी खान की भूमिका का वर्णन किया है वह यथार्थ है किन्तु सम्भवतया पुस्तक 'कूर्मविलास' जो उस समय अप्रकाशित थी, लेखक को देखने को नहीं मिली, जिसमें उल्लेख हैं कि शेरशाह ने जिस युद्ध में हुमायूँ को परास्त किया था उसमें भारमल शेरशाह की तरफ से लङ रहे थे । युद्ध में हुमायूँ को परास्त होकर भागना पङा था, व उसके सेनापति बहरामखाँ को बन्दी बना लिया गया था ।
'कूर्म विलास' में यह उल्लेख है कि मुगल सेनापति शरीफुद्दिन से दुःखी होकर भारमल ने अपने भाई गोपालजी को बहरामखाँ के पास भेजा था । इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है उस समय चकतायी खान से भी बहरामखाँ अधिक प्रभावशाली था, अतः भारमल के साथ अकबर का समझौता कराने में न केवल चकतायी खाँ की, बल्कि बहरामखाँ की भी अहम् भूमिका थी । बहरामखाँ उस समय एक प्रकार से मुगल साम्राज्य का सर्वेसर्वा था, इसलिए तुरन्त, भारमल के साथ मुगल शासन के संबंध सुदृढ़ हो गये ।।
Friday 21 October 2016
राजा मानसिंह आमेर - भूमिका- देवीसिंह महार साहब
"राजा मानसिंह आमेर" पुस्तक के विद्वान लेखक राजीव प्रसाद जो कि बिहार के निवासी हैं, ने राजा मानसिंह आमेर पर शोध कार्य कर, इतिहास में उपेक्षित एक महान व्यक्तित्व के तथ्यात्मक इतिहास को प्रकाश में लाने का कार्य किया है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है । दूर प्रदेश के निवासी होने, स्थानीय लोगों का पूर्ण सहयोग नहीं मिलने व ढूँढाङी भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण जो तथ्य उनकी जानकारी में नहीं आये अथवा जो गलत तथ्य उनके सामने प्रस्तुत हो गये हैं, उनके संबंध में जानकारी देने के उद्देश्य से मैंने यह भूमिका लिखने का निश्चय किया है ।
कोई भी व्यक्ति अथवा समाज काल व परिस्थिति निरपेक्ष नहीं हो सकता है, इसलिए चाहे इतिहास व्यक्ति का हो अथवा समाज या देश का उस पर उस काल की परिस्थितियों का न केवल प्रभाव होता है, अपितु जो व्यक्ति अथवा समाज काल व परिस्थितियों की उपेक्षा करके चलते है, ऐसा नही कि वह केवल सफलता ही प्राप्त नहीं कर सके, अपितु विनाश को भी प्राप्त होता है । आज के इतिहासकार उपर्युक्त तथ्यों पर प्रकाश डालें बिना ही इतिहास लेखन का कार्य कर रहे हैं, जिससे इतिहास के पात्रों के साथ न्याय नहीं हो पाता है ।
सिकन्दर ने इस देश पर ईसा पूर्व 326 में अथार्त 2342 वर्ष पूर्व आक्रमण किया था, उसके बाद सिन्ध पर लगातार आक्रमण होते रहे । महमूद गजनी ने ईस्वी 1001 व मुहम्मद गौरी ने ई. 1175 में भारत पर पहला आक्रमण किया । उसके बाद लगातार पठानों व बाद में मुगलों ने इस देश पर आक्रमण किये । इन आक्रमणों का उद्देश्य न तो लूटपाट था और न ही केवल शासन स्थापित करना, अपितु इनका उद्देश्य था- सम्पूर्ण देश का इस्लामीकरण । पिछले कुछ 100 वर्षों में ही ईरान, ईराक व अफगानिस्तान के विशाल भूभाग की जनता का धर्म परिवर्तन कर इनको इस्लाम में दीक्षित करने के बाद उनका मुख्य उद्देश्य भारत का इस्लामीकरण था ।
लगातार 2000 से अधिक वर्षों तक विदेशियों के आक्रमण का सामना करने व उसके कारण भारी जन-धन की हानि उठाने के कारण राजपूत-शक्ति क्षीण व क्षत्-विक्षत् हो गयी थी । मुसलमानों ने विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर आधुनिक हथियारों बन्दूकों, तोपों आदि का आविष्कार कर लिया था, जबकि हमारे देश के शिक्षा के ठेकेदार इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाये थे, परिणामस्वरूप मुसलमानों के विरुद्ध होने वाले युद्धों में राजपूतों को भारी हानि उठानी पङती थी । बाबर व शेरशाह सूर के काल तक परिस्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि लोग धन व राज्य के प्रलोभन में बङी संख्या में इस्लाम को अपनाने लगे थे ।
इक्के - दुक्के आक्रमणों को छोड़कर 2000 बर्षों में भारत पर सैकड़ों आक्रमण काबुल व कन्धार के रास्ते से हुए, लेकिन इस देश के किसी शासक ने खैबर व बोलन के दर्रों को बन्द करने की बुद्धिमता प्रदर्शित नहीं की । काबुल क्षेत्र में पाँच बङे मुसलमान राज्य थे, जहाँ पर हथियार बनाने के कारखाने स्थापित थे । इन राज्यों के शासक भारत पर आक्रमण करने वालों को मुफ्त में हथियार व गोला बारुद देते थे, व वापस लौटने वालों से बदले में लुट का आधा माल लेते थे । इस प्रकार धन के लोभ में बङी संख्या में हजारों मुसलमान इस देश पर आक्रमण करते थे, जिनमें से कुछ लोग ही वापस लौटते शेष धर्म परिवर्तन व राज्य के लोभ में यहीं रुककर पहले आए मुसलमानों के साथ मिल जाते, जिससे धर्म परिवर्तन का कार्य तेजी से बढ़ने लगा था व लाखों हिन्दुओं ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया था ।
इस खतरे को राणा सांगा जैसे बुद्धिमान शासक ने समझा था व बाबर से सन्धि भी की थी लेकिन साँगा उस सन्धि को निभा नहीं पाये, परिणामस्वरूप अन्ततोगत्वा बाबर से उनका युद्ध हुआ जिसमें पराजित होना पङा । किन्तु इसके बाद आमेर में लगातार तीन पिढी़ तक नीतिज्ञ, शूरवीर व बलवान शासक हुए, जिन्होंने मुगलों से सन्धि कर, न केवल बिखरी हुई दुर्बल व नष्ट प्रायः राजपूत शक्ति को एकत्रित कर उसमें आत्मविश्वास जगाया अपितु बाहर से आने वाली मुस्लिम आक्रमण शक्ति का रास्ता हमेशा के लिए रोक दिया । अपने राज्यों में आधुनिक शस्त्रों के निर्माण की व्यवस्था की व कुछ ही समय में मुगलों के बराबर शक्ति बन गये । इसके अलावा मुगलों को पठानों से लङाकर पठान शक्ति को तोङना व भारत के इस्लामीकरण की योजना को नेस्तानाबूद कर देना उनकी प्रमुख उपलब्धि थी ।।
आमेर के राजा भारमल ने अकबर से सन्धि की । उनके पुत्र भगवन्तदास ने इस सन्धि को ने केवल दृढ़ किया बल्कि उन्हीं के शासक काल में उन्होंने बादशाह अकबर को पठानों को मुगलों का नम्बर एक का शत्रु बताते हुए काबुल विजय की योजना बनवाई जिससे न केवल पठान शक्ति दुर्बल हुई बल्कि मुसलमानों की भारत के इस्लामीकरण की योजना भी दफन हो गई । तब मुसलमान ही मुसलमान से अपने राज्य को सुस्थिर करने के लिए लङ रहा था व इस लङाई का लाभ उठाकर राजपूत अपनी शक्ति को बढा़ते जा रहे है थे । अकबर के शासनकाल में मानसिंह इतने शक्तिशाली हो गये थे कि अकबर के मुसलमान सेनापति उसे भविष्य के लिए खतरा समझने लगे थे । इसी का परिणाम था कि अकबर के जीवनकाल में ही अकबर को अपने समस्त मुस्लिम सेनापतियों का विरोध इसलिए सहना पङा कि वह मानसिंह को अत्यधिक महत्व देता था । अकबर को अपने जीवनकाल में ही सलीम (जहाँगीर) का विरोध इसलिए सहना पङा कि वह मुस्लिम सेनापतियों के प्रभाव में था, जिन्होंने उसको यह समझा दिया था कि मानसिंह तेरे लिये सबसे बङा खतरा है ।
भगवन्तदास ने जिस बुद्धिमता से अकबर को काबुल विजय के लिए सहमत किया था उसकी क्रियान्विति कुँवर मानसिंह के शौर्य, युद्धकौशल व नीतिज्ञता से ही संभव हुई थी । मानसिंह ने ही काबुल विजय कर उन पाँच राज्यों के शस्त्र निर्माण करने वाले कारखानों को नष्ट किया था व वहाँ के शस्त्र निर्माण करने वाले कारीगरों को बन्दी बनाकर आमेर ले आये थे । जहाँ आज जयगढ़ का किला है, वहाँ पर शस्त्र निर्माण के एक कारखाने की स्थापना की गई थी । उन्हीं कारीगरों के वंशजों द्वारा निर्मित पहियों पर रखी संसार की सबसे बङी तोप आज भी जयगढ़ के किले में पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है । काबुल विजय के बाद कश्मीर से लेकर उङीसा व बंगाल तक पठानों का दमन, हिन्दू तीर्थों व मन्दिरों का उद्घार व उपर्युक्त क्षेत्र में नये राजपूत राज्यों की स्थापना ; मानसिंह के ऐसे कार्य थे, जिसके कारण उन्हें अपने काल में धर्म रक्षक कहें गये । लेकिन जैसा की इस पुस्तक के लेखक ने लिखा है बाद के इतिहासकारों ने उनका चरित्र-हनन करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी ।
क्रमशः ।।
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी, रविवार 2017 ।
राजपूत सभा भवन जयपुर ।।
#राजा_मानसिंह_आमेर
रिंया ठाकुर शेरसिंह :-
जोधपुर दरबार रामसिंह के रक्षक थे 1857 के क्रांतिवीर रियां के ठाकुर सरदार शेरसिंह सिंहोत । मराठो को हराया तो जयपुर पर भी की थी चढ़ाई, स्टेट में मिला रियां ठिकाने को चीफ जज का मान !!
रियां ठाकुरो की याद में हर वर्ष भादवा सूदी नवमी से ग्यारश तक भरता है तीन दिवसीय मेला मेले में उमड़ रही है भारी भीड़, ठाकुरो की आदमकद मूर्तियों की होती है सुबह शाम पूजा अर्चना ।
ऐतिहासिक हलचल रियां बड़ी-
रियां बड़ी में हर वर्ष की भाँती इस वर्ष भी भादवा सूदी नवमी से इग्यारश तक लगाने वाला तीन दिवसीय मेला शनिवार से शुरू हो गया है। ये मेला रियां के ठाकुर शेरसिंह और उनके वंशजो की याद में मनाया जाता है। यहां मालियो की हथाई के सामने स्थित ठाकुर साहब के थड़े में ठाकुर शेर सिंह व उनके वंशजो का भव्य मंदिर बना हुआ है। जहां इनकी आदमकद मुर्तिया स्थापित है जिनकी सुबह शाम पूजा अर्चना की जाती है।
रियां इतिहास के झरोखे से-
पूर्व के काल में वर्तमान में बसे रियां बड़ी कस्बे में स्थित पहाड़ी के पीछे रियां गाँव था, इस जगह को प्राचीन रियां के नाम से जाना जाता है, रियां का यह ठिकाना सर्वप्रथम राव मालदेव के सेवक वरसिंह जोधावत के पुत्र तेजसी को मिला और उनका निधन विक्रम संवत 1575 में हुआ। तत्पश्चात राव मालदेव ने ये ठिकाना तेजसी के पुत्र सहसा को दिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत १५९५ में राव बीरमदेव ने अजमेर से आकर रियां पर आक्रमण किया जिसमे सहसा मारा गया। बाद में यह ठिकाना राव जयमल्ल के वंशज गोपालदास को २० गाँवों व ३५००० रेख सहित पट्टे में मिला।
इसके बाद क्रमश: उनके वंशज प्रतापसिंह, अचलसिंह व कुशलसिंह सरदारसिंह के पट्टे में रियां का ठिकाना रहा। ठाकुर शेरसिंह का रहा जोधपुर उमरावो में वर्चस्व दरबार भी मानते थे लोहा । ठाकुर सरदारसिंह के बाद ये ठिकाना उनके पुत्र शेरसिंह को मिला। वर्तमान में बसे रियां कस्बे को ठाकुर शेर सिंह सरदार सिंहोत मेड़तिया ने ही बसाया था इसलिए आज भी इसे शेरसिंह जी की रियां के नाम से भी जाना जाता है।
जोधपुर शोध संस्थान से मिले ऐतिहासिक तथ्यों के आधार से इस काल में इनका वर्चस्व मारवाड़ के सभी उमरावो पर भारी था। उस समय के जोधपुर दरबार रामसिंह का ठाकुर शेर सिंह सरदार सिंहोत मेड़तिया के सहयोग के बिना जोधपुर दरबार बन पाना संभव ही नहीं था। क्योंकि रामसिंह के भाई बख्तसिंह जोकि नागौर के राजाधिराज थे वो रामसिंह को हटाकर खुद जोधपुर दरबार बनना चाहते थे। जिसके लिए उन्होंने कई बार जोधपुर पर आक्रमण करने के प्रयास किये पर हर बार उन्हें मेड़ता में वर्तमान में सोगावास और मालकोट के समीप रियां ठाकुर शेरसिंह सरदार सिंहोत मेड़तिया रोक लेते थे।
ठाकुर शेरसिंह की मेड़ता में मराठो से लड़ाई और जीत-
विक्रम संवत १७९२ में सवाई जयसिंह के उकसाने पर मराठो ने मारवाड़ पर आक्रमण किया तब राणोजी सिंधिया व राव मल्हार होलकर ने मेड़ता के मालकोट दुर्ग पर धावा बोला। पर यहां शेरसिंह मेड़तिया के नेतृत्त्व में सभी छोटे बड़े ठिकानों ने मिलकर मराठो का डटकर सामना किया और उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया।
ठाकुर शेरसिंह की जयपुर पर चढ़ाई-
ऐतिहासिक प्रमाणों अनुसार जयपुर दरबार के लिए ईश्वरसिंह व उनके भाई माधोसिंह के बीच लड़ाई होने लग गयी और ईश्वरसिंह ने बाहरी मदद से जयपुर पर आक्रमण कर दिया। तब जोधपुर दरबार की आज्ञा अनुसार तकरीबन २००० सैनिको को साथ लेकर ठाकुर शेरसिंह ने ईश्वरसिंह पर आक्रमण कर दिया। ये लड़ाई बगरू में लड़ी गयी। जिसमे ईश्वरसिंह परास्त हुआ और उसे संधि कर जयपुर दरबार में से कुछ परगने लेकर ही संतोष करना पड़ा।
विजिया नोकर को लेने दरबार का रियां ठिकाने में आना-
रियां ठाकुर शेरसिंह के साथ एक विजिया नाम का नोकर जोधपुर दरबार रामसिंह के पास आया जाया करता था और वो नोकर दरबार रामसिंह को पसंद था तो उन्होंने शेरसिंह से उस नोकर को मांग लिया। जिस पर शेरसिंह नाराज होकर रियां आ गए और कहा की महाराज ने आज नोकर माँगा है कल को और कुछ मांग लेंगे इसलिए में जोधपुर नहीं जाऊंगा। इसी दौरान जोधपुर दरबार रामसिंह नागौर पर आक्रमण करने खेडूली पहुंचे पर अपनी स्थिति कमजोर देख उन्हें शेरसिंह की याद आयी और देवीसिंह दोलतसिंहोत को रियां उन्हें बुलाने भेजा। जिस पर शेरसिंह ने कहा की महाराजा की रक्षा के लिए में धर्म और वचनबद्ध हूँ पर उन्हें मेरे लिए रियां आना पडेगा। इस पर उस समय जोधपुर दरबार रामसिंह 140 ऊंट सवारो के साथ रियां ठिकाने में पहुंचे जो उस समय एक बहुत बड़ी घटना थी। इसके बाद वो युद्ध के लिए रवाना हुए।
दो वीर योद्धाओ ने पाई एक साथ वीरगति-
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार आउवा के ठाकुर कुशालसिंह व रियां ठाकुर शेरसिंह दोनों ने मिलकर एक साथ 1857 की क्रान्ति में भी भाग लिया था। और अंग्रेजो का डटकर सामना किया था। जोधपुर दरबार रामसिंह व नागौर के राजा बख्तसिंह के बीच कई लड़ाईया लड़ी गयी। जिनमे से एक लड़ाई के दौरान रामसिंह की तरफ से रियां ठाकुर शेरसिंह मेड़तिया व बख्तसिंह की तरफ से आउवा ठाकुर कुशलसिंह के बीच दोनों के ना चाहते हुए भी स्वामिभक्ति व वचनबद्धता के चलते विक्रम संवत 1807 व 26 नवम्बर 1863 में मेड़ता में भीषण युद्ध हुआ। जिसमे ये दोनों मारवाड़ के वीर व कुशल योद्धाओ ने एक दूसरे को मार वीरगति पायी। (ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार ये दोनों रिश्ते में भाई भाई भी थे) ।
ठाकुर शेरसिंह के निधन के बाद उनके भाई सूरजमल व सूरजमल के पुत्र जवानसिंह, बख्तावरसिंह, बीदड़सिंह, शिवनाथ सिंह, देवीसिंह, गंभीरसिंह ने इस ठिकाने पर राज किया वर्तमान में कस्बे की पहाड़ी पर स्थित बिड़दा माता का मंदिर भी ठाकुर बीदड़सिंह ने ही बनवाया था।
ठाकुर विजयसिंह ने भी बढ़ाया रियां का मान स्टेट में चीफ जज का पद सम्भाला-
ठाकुर देवीसिंह के बाद इस ठिकाने को प्रसिद्धि मिली ठाकुर विजयसिंह के काल में, ये अत्यंत पढ़े लिखे होने व बेहद समझदार होने के चलते जोधपुर दरबार के खासमखास रहे। एक बार फ्रांस में जोधपुर दरबार के संकटकाल में ठाकुर विजयसिंह बहुत काम आये। जिसके चलते उन्हें राय बहादुर की उपाधि दी गयी। कुछ ही समय बाद उन्हें स्टेट में सहकारी जज व बाद में चीफ जज की नियुक्ति भी मिली। जो वो जीवन पर्यन्त तक रहे। इनके बाद गणपतसिंह ठाकुर बने जिनके प्रयासों से ही रियां बड़ी पंचायत समिति बनी और ठाकुर गणपतसिंह प्रथम प्रधान बने इनके बाद वर्तमान ठाकुर जगजीतसिंह को ये ठिकाना मिला उन्हें ग्रामीणों ने एक बार निर्विरोध ग्राम का सरपंच भी बनाया।
लेख - नागौर इतिहास द्वारा
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# रामचन्द्र सिंह रैकवार #
मार्गदर्शक महाराजा सर प्रताप
राजपूत समाज में समकालीन परिस्थितियों को देखकर भविष्य कि पहचान अगर किसी ने वक्त रहते हुवे कि और समाज को शिक्षा के क्षेत्र में पिछङने से बचाने का श्रेय जाता है तो वह जोधपुर रियासत के प्रधानमंत्री सर प्रताप को जाता है ।।
अंग्रेजों के जाने के बाद जो कांग्रेस वामपंथीयो कि सोच थी कि इस कौम को हमारे यहाँ आकर घुटने टेकने होंगे साकार नही हो पाये क्योंकि कांग्रेस व वामपंथी यह सोच पाते उससे पहले ही शिक्षा का बीज हमारे समाज में महानायक बो चुके थे ।।
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पुरुषार्थी कौम को शिक्षा के मार्ग पर सबसे पहले धकेलने का कार्य इन्हीं महामानव ने किया ।।
जोधपुर-मारवाड़ के महान योद्धा-महानायक महाराजा सर प्रताप सिंह जी की 171वीं जयंती पर हार्दिक शुभकामनाएँ।
महानायक को कोटि कोटि नमन ।।
मारवाड़ के आम राजपूत को शिक्षा के जगत में महाराजा सर प्रताप सिंह जी के प्रयासो से ही सहयोग मिला ।।।
Wednesday 19 October 2016
सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर और गुजरात
4 जुलाई 1572 को राजा मानसिंह आमेर गुजरात कि तराफ बढे । उन्होंने अपने साथ चुनिन्दा फौज ली । गुजरात के रास्ते में जब सेना डीसा नामक नगर में पहुँची जो आबूरोड से थोड़ा दक्षिण में था, मानसिंह जी को यह ज्ञात हुआ कि शेरखां फौलादी के पुत्र, जिसका अहमदाबाद पर अधिकार था, इडर कि तरफ जा रहा था जो खेड ब्रह्मा ( दक्षिण पश्चिम में बीजापुर के पास ) से केवल दस मिल दूर था । इनके साथ इनका हरम और सेना भी थी ।
अकबर ने कुँवर मानसिंह को सजी-सजायी हुई से...ना देकर उनका पीछा करने के लिये भेजा । मानसिंह ने पुरे जोश के साथ उनका पीछा किया पर वे अपने साजोसामान को छोड़कर भाग गये । कुँवर मानसिंह लौटकर अपने शिविर में चले आये । जो गुजरात की प्राचीन राजधानी रही थी । 20 नवम्बर 1572 को अहमदाबाद को जीतकर वहाँ ठहरे थे । अहमदाबाद जीत से वह संतुष्ट नही हुवै । सुरत के बन्दरगाह पर कब्जा करने कि मंशा थी जहाँ विद्रोही अफगान सरदार आश्रय किये हुवे थे । जब सेनाएं अलग अलग दिशा में थी अकबर के दस्ते में 200 से ज्यादा सैनिक नही थे ।
सामने इब्राहिम हुसैन मिर्जा नदी के उस पार बङी सेना लेकर खङा था जब सिपाहियों ने यह सुना तो अकबर सेना का साहस ङगमङ करने लगा । महीदी नदी को पार करते समय कुँवर मानसिंह आमेर सेना के अग्र भाग में रहे जबकि अकबर डरा हुआ था कि उसके पास बेहद छोटी सी टुकङी है । महीदी नदी के तट प्रदेश में ही किला था दरवाजा नदी कि और था । जब इब्राहिम हुसैन मिर्जा को मालुम हुआ कि कुँवर मानसिंह कि सेना आगे है तो वह सरनाल से बाहर चला गया ।
कुँवर मानसिंह व राजा भगवन्तदास ने उसका पिछा किया एक ऐसी जगह दोनों सेनाओं का आमना सामना हुआ जहाँ रास्ता बङा तंग था दोनों तरफ झाड़ियां थी । तीन घुङसवार जहाँ मुश्किल से खङे हो सकते हो ।
मिर्जा के घुङसवारों ने हमला किया भगवन्तदास पर हमला किया जिसका उन्होंने बहुत अच्छा जवाब दिया ।
अंत में घुङसवारों को भागने पर विवश होना पङा । सेना पर बाण वर्षों हुई तो कुँवर मानसिंह ने अपना घोड़ा शत्रु दल के बिच कुदा दिया व झाड़ियों के बिच जाकर बङी विरता से उनकों खत्म किया । उमरा-ए-हनूद ने मानसिंह कि विरता कि प्रसंशा कि है ।
23 दिसम्बर 1572, को सरनाल की लङाई समाप्त हो गयी । इब्राहीम हुसैन मिर्जा युद्ध क्षेत्र से भाग गया था ।
इस युद्ध में विरता के लिये आमेर को सरनाल युद्ध के हरावल में रहने कि याद में ध्वज व नगारा विजय प्रतीक रुप में मिला ।।
Tuesday 18 October 2016
सम्राट मिहिरभोज जयंती कन्नौज 2016
आज 18 अक्टूबर को कन्नौज (उ.प्र.)में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा कन्नौज के तत्वावधान में क्षत्रिय समाज ने अपने पूर्वज क्षत्रिय शिरोमणि महान चक्रवर्ती सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार की जयंती के अवसर पर रैली निकालकर सर्वसमाज को उनके शौर्य की गाथा बताई गई।
कार्यक्रम में मिहिरभोज जी के इतिहास पर भी चर्चा हुई। इनके इतिहास की जानकारी देते हुए बताया गया की ये कन्नौज मे 836 से 885 ईस्वी तक शासन किया था ये परिहार क्षत्रिय वंश के महान सम्राट थे। इन्होने 9 वीं शताब्दी में हो रहे अरब आक्रमणों को विफल किया एवं 40 युद्ध कर सनातन धर्म की रक्षा की एवं राजपूत समुदाय का नाम उंचा किया।
इनका ऐसा खौफ था की अरब के प्रसिद्ध इतिहासकार सुलेमान ने अपने ग्रंथ सिलसिला-उत- तावरीख पर मिहिरभोज के पराक्रम के बारे मे लिखा है की भारत में मिहिरभोज से बडा इस्लाम का शत्रु कोई नही है।
इस जयंती पर और भी अहम मुद्दों पर भी चर्चा हुई एवं आगामी जयंती को ज्यादा से ज्यादा भव्य बनाने के लिए सबकी सहमति हुई ।
इस कार्यक्रम को सफल बनाने में मुख्य रुप से युवाओं का भी बडा योगदान रहा जिसमे दीपक सिंह परिहार, मनोज सिंह परिहार सुमित सिंह चौहान, लवकेश सिंह परिहार, अर्जुन सिंह राठौर, कमल सिंह परिहार, राघवेंद्र सिंह राठौर, सुलभ सिंह परिहार, नितेश सिंह तोमर, अजय सिंह परिहार, राकेश सिंह चौहान, मनीष सिंह परिहार, रणविजय सिंह परिहार , विनय सिंह, सुरेंद्र सिंह परमार, सुधीर सिंह कलहंस, शंकर सिंह परिहार, नवीन सिंह परिहार, आदित्य सिंह राघव, अभिजीत सिंह परिहार आदि सैकडो युवाओं के साथ हजारो संख्या में लोगों ने इस रैली को ऐतिहासिक रुप दिया।