Saturday 11 August 2018

महाराजा मानसिंह आमेर

महाराजा मानसिंह आमेर:-




धर्म रक्षक राजा मानसिंह- आमेर ने अपने जीवन में काबुल से लेकर आसाम, बिहार, बंगाल व उडीसा तक 77 बड़े युद्ध लड़े व सभी में विजय प्राप्त की। मानसिंह जी न केवल कुशल सेनानायक ही थे बल्कि उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने अपने बुद्धिबल से वो विलक्षण व प्रभावशाली कार्य किये, जो वर्तमान व भविष्य की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुये। वे अपने जीवन में सदैव धर्म सापेक्ष रहे और अपने कुल के सिद्धांतवादी उद्घोष “यतो धर्मोस्ततो जयः’ के अनुरूप ही अपनी सामाजिक व राजनैतिक स्थिति का वर्चस्व कायम रहा। समकालीन ही नहीं उसके पश्चात् के कवियों ने भी उनके क्रियाकलापों को श्रेष्ठतम बताया है।

धार्मिक स्थलों का निर्माण व जीर्णोद्धार - राजा मानसिंह ने उड़ीसा के गर्वनर रहते हुये भगवान जगन्नाथ के पुरीमठ को मुसलमानों से मुक्त कराकर उसका जीर्णोद्धार कराया व खुर्दा के राजा को मंदिर का अधीक्षक बनाकर पुन: प्राण प्रतिष्ठा व मंदिर का शुद्धिकरण करवाया। वृंदावन में गोविन्द देव (कृष्ण) मंदिर बनवाया जिसे कालान्तर में औरंगजेब के शासनकाल में उन्हीं के वंशज राजा ने मूल विग्रह को जयपुर में पुर्नस्थापित करवाया। राजा मानसिंह ने ही काशी बनारस में गंगा नदी पर भव्य दशाश्वमेघ घाट का निर्माण करवाया। घाट के पास ही एक मंदिर बनवाया जिसे मान मंदिर कहते हैं।

बिहार के गर्वनर रहते हुये मानसिंह ने मानभूम (वर्तमान में बंगाल) में पारा गाँव के पास दो मंदिरों का निर्माण करवाया। तेलकूपी नामक गांव में भी मानसिंह द्वारा मंदिर निर्माण किया गया यह भी मानभूम क्षेत्र में है। बिहार के संथाल परगने के पास अम्बर नाम का परगना है। साक्षियों के अनुसार यह क्षेत्र मानसिंह ने ब्राह्मणों को जागीर में दिया था। बिहार राज्य के पटना जिले में बैकुण्ठपुर ग्राम की नींव राजा मानसिंह द्वारा रखी गई थी वहाँ मंदिर बनाया गया। मंदिर के मुख्य पुजारी के पास फरमान है और ये फरमान भूमिदान से संबंधित है। यहाँ पर राजा मानसिंह की माता की मृत्यु हुई थी। इस मंदिर का निर्माण 1600 ई. में करवाया गया था।

बिहार के गया क्षेत्र में एक कस्बे की नींव रखी जिसका नाम मानपुर था जो गया शहर में फाल्गुन नदी के किनारे पर स्थित है। स्थानीय मान्यता है कि स्थानीय मुसलमानों को करारी शिकस्त दी थी। मुस्लिम सरदारों पर विजय के उपलक्ष में यह कस्बा बसाया गया। यहाँ पर भी एक मंदिर बनवाया गया था। शाही सेनापति के रूप में मानसिंहजी जहाँ कहाँ भी नियुक्त हुये वहाँ की जनता में अपनी धर्म सापेक्षता की छाप छोड़ी। ऐसे मानसिंह के प्रति काव्य प्रणेता कविगणों का झुकाव होना स्वाभाविक ही है। उन्होंने अनेक कवियों को यथा योग्य सम्मान व पुरष्कृत किया। इसी कारण उन्हें कीर्ति पुरूप भी कहा जाता है। उनके दान की सर्वत्र प्रशंसा थी। उनकी दानवीरता के विषय में कवि हरनाथ का यह दोहा प्रसिद्ध है :-

बलि बोई कीरत-लता, कर्ण किए द्वेय पात।।
सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्मलात्।।

अर्थ :- दानवीर बहलोचन सुत बलि राजा ने कीर्ति की बेल को बोया। महाभारत के अनुपम योद्धा सूर्य पुत्र कर्ण ने उसे सींचकर उसमें दो पत्तों की वृद्धि की। वह कीर्ति लता इस काल में कुमलाने लगी तो राजा मानसिंह ने उसमें द्रव्य जल देकर सूखने से बचाया।

महाराजाधिराज बीसलदेव चौहान 'उतरदेश रक्षक' अजमेर, सपादलक्ष सांभर का स्वर्णयुग (1153 - 1163 ई.)

महाराजाधिराज बीसलदेव चौहान 'उतरदेश रक्षक' अजमेर, सपादलक्ष सांभर का स्वर्णयुग (1153 - 1163 ई.)



अजमेर के महाराजा अणोंराज के वीर पुत्र बीसलदेव ने देश की रक्षा के पराक्रम में बहुत सफलता प्राप्त की थी । गजनी के सुल्तान खुसरो शाह मलिक ने एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण कर दिया था और वह खेतड़ी के पास विवेरा गांव तक आ पहुंचा था । विवेरा (बम्बेरा) खेतड़ी के पास का तीर्थ स्थान था जहां ब्राह्मण रहते थे । खुसरो की सेना ने तीर्थ स्थान पर आक्रमण करके पास के नगर बाघोट पर विजय प्राप्त कर ली । बीसलदेव को उसके मुख्यमंत्री श्रीधर ने सलाह दी कि वह धन देकर समझौता कर ले परन्तु उस वीर ने युद्ध करके आक्रमणकारी को खदेड़ दिया । इस युद्ध में गोगा तोमर और बाघ तोमर भाईयों ने अपूर्व वीरता दिखा कर अपना बलिदान दिया था । इस युद्ध में विजय प्राप्त करने पर बीसलदेव ने उत्तर देश के रक्षक की उपाधि धारण की ।

1163 ई. के दिल्ली शिवालिक स्तम्भ (फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में) का शिलालेख बीसलदेव की प्रशंसा में लिखता है कि बीसलदेव ने बार-बार मल्लेछो (मलिन इच्छा) का विनाश करके विंध्याचल से हिमालय के बीच के देश को पुन: केवल नाम का ही नहीं वरन् सच में आर्यावृत बना दिया है । बीसलदेव अपनी भावी संतानों को कहते है कि उद्योग मत छोड़ना और शेष प्रदेशों को तुम आर्यावृत बनाना ।’ यह शिलालेख अशोक स्तम्भ पर अम्बाला के पहाड़ों की तराई में गांव साधौरा में था । सोमदेव रचित नाटक ललित विग्रहराज में बीसलदेव कहते हैं कि मुझे जीने की परवाह नहीं, मैं ब्राह्मणों, मन्दिरों की, गजनी के अमीरों से रक्षा करके रहूंगा । बीसलदेव कवियों के आश्रयदाता था इसलिए उन्हें कविबोधक की उपाधि दी गई । वे कवि सोमदेव के सरंक्षक थे ।

बीसलदेव ने सैकड़ों गढ़ और मन्दिर बनवाए तथा अजमेर में संस्कृत कंठाभरण विद्यालय बनवाया जिसे मुसलमान आक्रमणकारियों ने बाद में तोड़ कर अढ़ाई दिन का झौंपड़ा बना दिया । अंग्रेज पुरातत्वविद्कन्हिगम ने इस विद्यालय की सुन्दरता को विश्व में बेजोड़ बताया है । बीसलदेव ने अजमेर में जैन विहार बनवाया और पवित्र तिथियों पर पशु हत्या पर रोक लगाई ।इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा के Rajasthan Throught the Ages-I के अनुसार बीसलदेव का राज्यकाल सपादलक्ष क्षेत्र का स्वर्ण युग कहलाने योग्य है । यह युग उन सभी उपलब्धियों से भरा था जिससे एक देश को महान कहा जा सकता है । प्रबंधकोष भी बीसलदेव को तुर्क विजयी कहता है।

आंचल और आग - प्रसिद्ध उद्योगपति श्री जी.डी. बिड़ला के ज्येष्ठ पुत्र श्री लक्ष्मीनाथ बिड़ला ने बीसलदेव चौहान पर यह उपन्यास लिखा है, जिसमें वे लिखते हैं कि 'इस उपन्यास का नायक बीसलदेव स्वतन्त्रता के अमर पुजारियों की श्रेणी में आता है और उसका स्थान इस कोटि के महापुरुषों में काफी ऊंचा है ।' Early Chauhan Dyasties- Dashrath Sharma (1150-1164),

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 74) इतिहास दर्पण 2005

जब सत्य की खोज करने वालों का अभाव हो जाता है

जब सत्य की खोज करने वालों का अभाव हो जाता है :-



जब सत्य की खोज करने वालों का अभाव हो जाता है, तब प्रदूषित बुद्धि वाले विद्वान, पूर्व पुरुषों द्वारा प्रकट किए हुए ज्ञान में अपनी बुद्धि से प्रदूषण का मिश्रण कर शास्त्रों का निर्माण करते हैं । शासक वर्ग भी प्रदूषित बुद्धि व आचरण वाले लोगों पर नियंत्रण करने के नाम पर नियम व कानूनों का निर्माण करने में संलग्न हो जाते हैं । इस प्रदूषण की होङ में नित नये शास्त्रों व उनकी व्याख्याओं के युग का आरंभ होता है । प्रदूषित शास्त्रों का अनुसरण करने से श्रेष्ठ मानव की जगह आसुरी शक्तियों का उदय होने लगता है ।

इस काल में जो व्यक्ति आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करता है, उसे लोग ईश्वर तुल्य मानकर, उसकी पूजा करने लगते हैं । ये श्रेष्ठ लोग आसुरी शक्तियों के विनाश की लोगों को प्रेरणा देने के लिए ज्ञान का आश्रय लेने के स्थान पर, अपने उज्ज्वल चरित्र से लोगों को प्रभावित कर उन्हें सत्य पथ का पथिक बनाना चाहते हैं । ऐसे युग को ही "त्रेतायुग" कहा जाता है, जहाँ ज्ञान के अभाव में पौरुष के प्रदर्शन को ही सर्वश्रेष्ठ कृत्य समझा जाता है । -

अबोध बोध - देवीसिंह महार साहब

राजा चन्द्रसेन डोर

राजा चन्द्रसेन डोर -



कुतुबुद्दीन का मेरठ और बरन बुलन्दशहर पर आक्रमण (1192 ई.) -
गजनी के सुल्तान मोहम्मद गौरी का प्रतिनिधि भारत में कुतुबुद्दीन एबक था । उसने इस क्षेत्र के डोर राजपूतों को हराने के लिए उसके राजा चन्द्रसेन पर हमला किया । हसन निजामी के अनुसार मेरठ में उस समय बहुत ऊंचा और सुदृढ़ किला था जो भारत भर में प्रसिद्ध था ।

मुसलमानों ने दुर्ग घेरा पर उनको सफलता की आशा नहीं थी इसलिए कुतुबुद्दीन ने दुर्ग रक्षक अजयपल और हीरा ब्राह्मण को अपनी ओर मिला लिया और उन्होंने चुपके से मुस्लिम सेना को प्रवेश दे दिया।

अचानक हुए इस धावे से राजपूत संभल नहीं सके परन्तु राजा चन्द्रसेन ने बहादुरी से युद्ध किया और उसने मुसलमानों के प्रसिद्ध सेनापति ख्वाजा लाल अली को मार डाला । अली की कब्र आज भी काली नदी के पार मौजूद है । ऐबक ने सारे मंदिर तोड़ मस्जिदें बनवाई ।

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 120)

Friday 6 July 2018

राजा जयचन्द्र गाहड़वाल कन्नौज

राजा जयचन्द्र गाहड़वाल कन्नौज



आगरा के निकट चन्दवार का युद्ध (1194 ई.) अब सुल्तान मोहम्मद गौरी गजनी से भारत आया और वह कन्नौज और बनारस के राजा जयचन्द्र गाहड़वाल से लड़ने आगे बढ़ा । उसके पास 50 हजार की सेना थी । दोनों पक्ष की सेनाएं फिरोजाबाद से तीन मील दूर यमुना तट पर चन्दवार नामक गांव में आमने-सामने हुई। घोर युद्ध शुरू हुआ जिसमें मुसलमानों का नेतृत्व कुतुबुद्दीन एबक और हुसैन ने किया ।

भारत का नेतृत्व स्वयं राजा जयचन्द ने हाथी पर सवार होकर किया । युद्ध के दौरान जयचन्द को एक घातक तीर आ लगा और वह हाथी से नीचे गिर गया । यह देख भारतीय घबरा गए और वे अस्त-व्यस्त हो गए और इस प्रकार मुसलमान जीत गये। हसन निजामी ने लिखा है कि स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बना कर पुरुषों को मार डाला गया। उसे लूट का बहुत माल व 300 हाथी प्राप्त हुए ।

मुसलमानी सेना ने आगे बढ़ कर बनारस और असनी दुर्ग को जीत कर लूटा और बनारस के एक हजार मंदिर तोड़े । परन्तु ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कनौज पर जयचन्द्र के पुत्र हरिशचन्द्र का 1199 ई. तक राज्य था । इस क्षेत्र में हिन्दुओं ने मुस्लिम सभा के विरूद्ध रुक-रुक कर उनके विद्रोह किए इसलिये एबक ने फिर से बनारस पर 1 197 ई. में आक्रमण किया । फिर भी स्थाई शान्ति नहीं हो सकी जो एबक के बाद इल्तुतमश के समय तक भी ऐसा होता रहा ।

डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ में देश धर्म रक्षा युद्ध (1194 ई.) यहां का दुर्ग भी भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से था । कुतुबुद्दीन एकब ने उसका घेरा डाला और जो युद्ध हुआ उसमें बहुत से मुसलमान मारे गऐ जिनकी कब्रे आज भी बलाई किले में दिल्ली दरवाजे से भन्ज मुहल्ले तक बनी हुई है । इस युद्ध में मुसलमान सफल हुए और उन्होंने दुर्ग पर अधिकार कर लिया ।  जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनको छोड़ बाकी को मार डाला गया । यहां एबक को बहुत धन-माल और हजार घोड़े प्राप्त हुए ।

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 123,124)।

डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ़ में देश धर्म रक्षा युद्ध

डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ़ में देश धर्म रक्षा युद्ध



कोल अलीगढ़ का देश धर्म रक्षा युद्ध (1194 ई.) - डोर राजपूतों का कोल अलीगढ़ दुर्ग भी भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से था । देश भर में राजपूतो के त्याग, बलिदान, शौर्ये कि सुनने पढ़ने को मिलती है लेकिन हजारों धर्म युद्ध ऐसे भी है जिनकी चर्चा वामपंथी इतिहासकार नहीं करते, ना ही पाठ्यक्रम में इन युद्धों कि जानकारी है, आजाद भारत में लोकतांत्रिक सरकारे भी इस तरफ कभी ध्यान नहीं देती । इतिहासकार राजेंद्र सिंह राठौड़ बीदासर ने अपनी पुस्तक राजपूतों की गौरवगाथा में ऐसे सभी धर्म युद्धों और राजपूत काल में हुवे अरब आक्रमण और राजपूतों कि विजय और संघर्ष के बारे में लिखा है ।

जब कुतुबुद्दीन एबक ने 1994 ई. डोर राजपूतों के कोल अलीगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया पहले उसका घेरा डाला और जो युद्ध हुआ उसमें बहुत से मुसलमान मारे गए जिनकी कड़ें आज भी बलाई किले में दिल्ली दरवाजे से भन्ज मुहल्ले तक बनी हुई है। इस युद्ध में मुसलमान सफल हुए और उन्होने दुर्ग पर अधिकार कर लिया । जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनको छोड़ बाकी को मार डाला गया । यहां एबक को बहुत धन-माल और हजार घोड़े प्राप्त हुए। लेकिन राजपूतों का धर्म रक्षा के लिए संघर्ष अमर हो गया । (सल्तनत काल में हिन्दु प्रतिरोध-डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 123)

राजा सुलक्षण प्रतिहार, ग्वालियर

राजा सुलक्षण प्रतिहार, ग्वालियर (1196 ई.)




भारत पर अरब से 2500 साल तक लगातार मुस्लिम आक्रमण होते रहे और राजपुतो से मुस्लिम पीटते रहे, लेकिन राजपुतो कि शक्ति लगातार युद्धों के कारण क्षीण होती रही और दुसरा प्रमुख कारण राजपूतों के कमजोर होने का यह रहा कि मुस्लिम विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ गए और राजपूत पिछड़ गए । लगातार 17 युद्ध हारने के बाद सुल्तान मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज से जितने के बाद अलग अलग अधिकारी बनाता है,  सुल्तान मोहम्मद गौरी ने बयाना के अधिकारी बहाउद्दीन तुगरिल को ग्वालियर जीतने भेजा ।

बहाउद्दीन तुगरिल व राजपूतों कि बहुत बार झड़पे होती रही और  बहाउद्दीन तुगरिल कि सेना में निराशा छाने लगी क्योंकि लम्बे समय तक प्रयास होते रहे पर सफलता नहीं मिल रही थी । तब तुगरिल ने दुर्ग के पास गरगज लगवाए । एक वर्ष तक प्रतिहार राजपूत बहाउद्दीन तुगरिल कि सेना से लड़ते रहे पर अन्त में उन्होंने दुर्ग मुसलमानों को संधि के तेहत सौंप दिया और अपने लिए मौके का इन्तजार करने लगे । जैसे ही मुसलमान कमजोर हुए विग्रह प्रतिहार ने 1209 ई. में पुनः ग्वालियर जीत लिया । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय)

महाराजा भीमदेव सोलंकी द्वितीय की गुजराती सेना और अजमेर के मेर योद्वाओं द्वारा देश धर्म रक्षा 1196 ई.

महाराजा भीमदेव सोलंकी द्वितीय की गुजराती सेना और अजमेर के मेर योद्वाओं द्वारा देश धर्म रक्षा 1196 ई.




अजमेर के मेर यौद्धाओं ने लगातार विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लिया था । 1195 ई. में जब कुतुबुद्दीन अजमेर आया तो उसे हराने के लिये मेर वीरों ने योजना बना कर गुजरात के अन्हलवाड़ से सैनिक सहायता के लिये दूत भेजे। इस रहस्य की जानकारी कुतुबुद्दीन को हो गई तो उसने गुजरात की सेना आने से पहले ही मेरों पर आक्रमण कर दिया परन्तु कुतुबुद्दीन जीत नहीं सका, दिन भर युद्ध हुआ ।

अगले ही दिन गुजरात की सेना ने ऐसा भीषण आक्रमण किया कि कुतुबुद्दीन का सेनापति ही मारा गया और भारतीय वीरों ने तुर्को का अजमेर तक पीछा किया । कुतुबुद्दीन एक हमले में घायल हो गया । उसके छ: बड़े घाव लगे, वह बहुत घायल हो गया । उसको छकड़े में डाल कर ले जाया गया । बाद में वह अजमेर के दुर्ग में घिर गया और हिन्दू वीरों ने दुर्ग को घेर लिया। यह घेरा कई महीने तक चलता रहा और इस दौरान क्या हुआ यह मुसलमान इतिहासकारों ने नहीं लिखा - ताजुल मासीर । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ) ।

ताजुल मासीर में लिखा है कि इस विषम स्थिति में एक विश्वस्त संदेशवाहक को गजनी भेजा गया कि वह सुल्तान को काफिरों की सेना का हाल समझाये और उससे आदेश प्राप्त करे कि अब क्या कार्यवाही की जाये । तब एक शाही आदेश जारी हुआ । खुसरू पर सम्मान और कृपायें बरसायी गई और विद्रोहियों का दमन और उन्मूलन उसी की समझ पर छोड़ दिया गया । उसकी सहायतार्थ एक बड़ी सेना भेजी गई जिसके नायक जहां पहलवान असदुद्दीन, अर्सलानकलिज, नासिरूद्दीन, हुसैन, मुबैयिद्दीन बलख का पुत्र इज्जुद्दीन मुहम्मद जराह थे ।

यह सहायक सेना शरद ऋतु के आरम्भ में अजमेर पहुंची और हिन्दुओं को हरा कर इसी सेना ने फिर गुजरात पर आक्रमण करके उसे अधीन किया । अगले कई सौ वर्षों तक मेरों ने हिन्दुत्व की रक्षा की और अड़सी मेर ने 1310 ई. में जालौर में खिलजी मुसलमानों से लोहा लिया था । सुल्तान इल्तुतमिश को भी पुनः अजमेर जीतना पड़ा था ।

लोकतंत्र एक वास्तविकता - लेखक - देवीसिंह जी महार साहब

पुस्तक - जागरण की बेला - लेखक - देवीसिंह जी महार साहब

लोकतंत्र एक वास्तविकता 



आज लोकतंत्र हमारे देश के लिये ही नहीं, संसार के लिए एक वास्तविकता है । इस वास्तविकता को नकार कर परम्परा के नाम पर साम्राज्यवाद की कल्पनाओं में डूबे रहना अपने जीवन में विकृति को पैदा करने के समान है ।

जैसा कि पहले लिखा जा चुका है जब संसार पुण्यवान लोगों का अभाव हो जाता है, उस समय लोकतंत्र ही एकमात्र ऐसी व्यवस्था शेष रहती है जिसके अन्तर्गत येनकेन प्रकारेण समाजों व राष्ट्रों की व्यवस्था को सुचारू रखा जा सकता है । 

संसार में लोकतंत्र के विकास की ओर ध्यान देने पर जब हमारी दृष्टि मुस्लिम राष्ट्रों पर जाती है तो यह स्पष्ट रुप में दिखाई देने लगता है कि ये राष्ट्र लोकतंत्र को पचा नहीं पाये हैं । बार बार सैनिक शासन व सताओं में परिवर्तन मुस्लिम राष्ट्रों के लिए एक आम बात है ।



पिछले एक हजार वर्षों में मुसलमान एक नेता के नेतृत्व रहते आये हैं । जिसको हम सामन्तशाही या राजाशाही कहते आयें हैं, इसी परम्परा में मुस्लिम सभ्यता जन्मी, बङी हुई व फली फूली । इसलिए एक का अनुसरण करना, एक के विरुद्ध कही बात नहीं सुनना, एक कहे वही धर्म, इस परम्परा का मुस्लिम समाज अभ्यस्त हो चुका था ।

लोकतंत्र इस व्यवस्था का सीधा कुठाराघात करता है । जब लोगों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है तो लोग अच्छी ही बात की अभिव्यक्ति करें यह आवश्यक नहीं है । वे जैसी भी बात कहें, उसको सुनने व शान्ति के साथ सुनने की आदत लोकतंत्र में में होनी चाहिए ।
इस आदत का विकास मुस्लिम समाज नही कर पाया इसी के परिणामस्वरूप लोकतंत्र की आँधी इन राष्ट्रों को बार-बार झकझोरती है, इनकी व्यवस्थाओं को डांवाडोल करती है तथा अन्ततोगत्वा उनके राष्ट्रीय जीवन में अस्थिरता पैदा कर देती हैं ।

इसमें भी भयानक परिणाम उन्हें यह भोगना पङ रहा है कि अन्य लोकतांत्रिक देश उन्हें अपने से पृथक, विजातीय तत्व समझते है; जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अन्य राष्ट्रों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है । हमारे सामाज की स्थिति आज मुस्लिम राष्ट्रों जैसी है । हमने हमारे सामाजिक संगठित को लोकतांत्रिक स्वरूप दिया है ।



देश की राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए हमने लोकतांत्रिक तरिके से चलने वाले राजनीतिक दलों में भी प्रवेश किया है । लेकिन परम्परागत नेताओं की जय - जयकार करना, अपनी आलोचना को नहीं सहन कर पाना व विचार के आधार पर चलने वाली पद्धति में सक्षम बनने योग्य विचारों का विकास नहीं कर पाना हमारे पिछड़ेपन का एक बहुत बङा कारण हैं ।

राजा त्रैलोक्यवर्मन चन्देल - मुसलमानों को हरा कर कलिंजर दुर्ग पर पुनः अधिकार करने वाले राजा (1205-1241 ई.)

राजा त्रैलोक्यवर्मन चन्देल -
मुसलमानों को हरा कर कलिंजर दुर्ग पर पुनः अधिकार करने वाले राजा (1205-1241 ई.)




राजा त्रैलोक्यवर्मन चन्देल (1205-1241 ई.) - जब कुतुबुद्दीन एबक ने कालिंजर पर अभियान किया तब राजा परमर्दिदेव दुर्ग से निकल मैदान में युद्ध के लिए आये । लेकिन मैदान युद्ध के दौरान जब उन्हें नुकसान होने लगा तो वह वापिस दुर्ग में जाकर लड़ने लगे, परन्तु हार और विनाश निश्चित हो जाने पर राजा परमर्दिदेव ने संधी की बात चलाई । यह प्रक्रिया चल ही रही थी कि राजा परमर्दिदेव कि मृत्यु हो गई ।


राजा कि मृत्यु के बाद राजा परमर्दिदेव के मंत्री अनदेव ने संधी नहीं कि और युद्ध करना शुरू किया । उस समय अकाल के कारण पानी की कमी थी जिसे पहाड़ों के स्रोत से आपूर्ति होती थी। मुसलमानों ने इस पानी को रोक दिया । इस कारण चन्देलों ने दुर्ग को कुतुबुद्दीन को सौंप दिया । उसने वहां के सभी मंदिर तोड़े, खूब धन लूटा और कई हजार लोगों को गुलाम बना कर मुसलमान बना दिया ।


कुतुबुद्दीन एबक ने कालिंजर के बाद चन्देलों के प्रसिद्ध नगर महोबा को भी ले लिया, परन्तु कुतुबुद्दीन के चले जाने के दो वर्ष बाद राजा परमर्दिदेव चन्देल के पुत्र त्रैलोक्यवर्मन (1205-1241 ई.) ने झांसी के पास ककदवा गांव में मुसलमानों को हरा कर कलिंजर दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया । उसने इस युद्ध में काम आए बाउता सामन्त के पूर्वज के लिए दान दिया । त्रैलोक्यवर्मन का अंतिम शिलालेख 1241 ई. तक उसे स्वतन्त्र राजा प्रमाणित करता है । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 133)

बदायूँ के राष्ट्रकूट राठौड़ राजा लखनपाल

बदायूँ के राष्ट्रकूट राठौड़ राजा लखनपाल




बदायूँ के राष्ट्रकूट राठौड़ो के विद्रोह (1202 ई.) -
बदायुँ राजतंत्र में एक महत्वपूर्ण राज्य था, बदायुँ गंगा नदी के समीप बसा है, 11 वीं शती के प्राप्त अभिलेख के अनुसार इस नगर का नाम वोदामयुता भी था और बदायूँ पांचाल देश कि राजधानी था । बदायूँ की नींव राजा अजयपाल ने 1175 ई. में डाली थी, राष्ट्रकूट राठौड़ राजा लखनपाल को बदायुँ नगर को बसाने का श्रेय दिया जाता है। अरब आक्रमणकारियों में कुतुबुद्दीन बदायूँ आया उसने इल्तुतमिश को अधिकारी लगाया राजा लखनपाल ने नीलकंठ महादेव का प्रसिद्ध मंदिर भी बनवाया था जिसे इल्तुतमिश ने तुड़वा दिया। लेकिन बदायूं में राष्ट्रकूट राठौड़ों ने बार-बार मौके के अनुसार विद्रोह किए जिसे कुतुबुद्दीन ने दबाने कि भरपूर कोशिश कि और वहां इल्तुतमिश को अधिकारी लगाया ।

सारांश यह है कि 1178 ई. से 1202 ई. तक गजनी के गोर मुसलमानों ने अजमेर के चौहान, दिल्ली के तोमर, कन्नौज के गाहड़वाल, कालिन्जर के चन्देल, गुजरात, मालवा आदि को हरा कर बंगाल और आसाम को भी जीता था पर यह बहुत ही अल्पकालीन जीत रही । मुसलमानों की असली सत्ता केवल दिल्ली, आगरा, बदायूं और लाहौर तक सीमित रही। इसी को इतिहास में दिल्ली सल्तनत कहा गया । बाकी प्रदेशों पर राजपूत राजा पुनः स्वतन्त्र हो। गए थे । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ)

Thursday 7 June 2018

खोखर राजपूतों का विद्रोह -1206 ई.

सुल्तान मोहम्मद गौरी की हत्या 15 मार्च 1206 ई.- 




शाहबुद्दीन गौरी वह उसकी मृत्यु कि ईस्वी को लेकर चर्चा इसलिए है कि अफगानिस्तान में घुरि राजवंश के दो सगे भाईयो गयासुद्दीन गौरी और शाहबुद्दीन गौरी ने सन् 1173 से 1202 तक संयुक्त रूप से राज्य किया। बड़े भाई गयासुद्दीन की मृत्यु सन् 1202 में होने के बाद शाहबुद्दीन गौरी ने 1202-1206 तक अकेले शासन किया था।

1204 ई. में एक अफवाह फैल गई कि गजनी सुल्तान गौरी मर गया है । इस कारण मुल्तान में उसके एक अमीर ने विद्रोह कर दिया । इसका लाभ उठाते हुए खोखर राजपूतों ने भी विद्रोह किया जिसकी प्रचण्डता इतनी हुई कि मुल्तान के आधीन संगवान का सूबेदार वहाउद्दीन आगे बढ़ा जिसे खोखरों ने बुरी तरह हरा दिया । बहुत से मुसलमान मारे गए बाकी भाग गए । इस विजय को देख बहुत से खोखर राजपूत संगठित होने लगे ।

इस पर सुल्तान गौरी ने कुतुबुद्दीन को उनके विरूद्ध भेजा और स्वयं भी रवाना हुआ । सन् 1206 में पंजाब के झेलम के पास खोखर राजपूतो (राठौर राजपूतो की शाखा) ने शाहबुद्दीन गौरी की हत्या कर दी थी। यही शाहबुद्दीन गौरी तराईन के दोनों युद्धों में पृथ्वीराज चौहान की सेना से भिड़ा था। खोखर राजपूत (राठौर राजपूतो की शाखा) राजपूत अब पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में बड़ी संख्या में मिलते हैं और लगभग सभी मुसलमान हैं इनमे से कुछ जाटों में विवाह करके जाट भी बन गए हैं । 

मौहम्मद गौरी को खोखर जाटों ने मारा ऐसा जाटों द्वारा प्रचार किया जाता है जो पूर्णतया निराधार है ।

Wednesday 23 May 2018

कैं. गजराजसिंह चौहान

मेरी जीवन गाथा - ठा. ओंकारसिंह बाबरा -
कैं. गजराजसिंह चौहान :-

जयपुर में रहते हुए मेरी जान पहचान कई भले लोगों से हुई। उन्होंने कई प्रकरणों में मेरी सहायता की। मैंने भी बहुत से लोगों की सहायता की। उनकी सूची लम्बी है। मैं उनके नाम नहीं गिनाऊँगा क्योंकि मुझे भय है कि कहीं मैं आत्म-प्रशंसा की फिसलन पट्टी पर पैर न रख दें। जिन भले लोगों से मेरा परिचय हुआ उनमें एक थे कैं. गजराजसिंह चौहान। ये राज्य के शिक्षा विभाग के निदेशक थे। राजस्थान राज्य के निर्माण से पहले वे जयपुर राज्य की सेवा में थे। ये उत्तरप्रदेश के एटा जिले के रहने वाले थे, और जयपुर राज्य में पहले पहल नोबल्स स्कूल के मौतमीन के पद पर नियुक्त हुए थे। अपनी योग्यता से पदोन्नति करते हुए ये शिक्षा विभाग के उच्चतम पद पर पहुँचे। मेरे निवेदन पर इन्होंने कई लोगों को अपने विभाग में अध्यापकों के पद पर नियुक्तियाँ दी।

अब मुझे अपने भतीजे रणवीरसिंह (दिवंगत बड़े भाई खांगसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र) की नौकरी के लिये उनसे निवेदन करना था। मुझे संकोच हुआ कि कहीं बार-बार नौकरियों हेतु निवेदन करने से श्री गजराजसिंह नाराज न हो जाय, परन्तु यह मेरे परिवार का ही मामला था अत: मुझे उनसे निवेदन करना ही पड़ा। मैं जब उनसे मिला तो वे प्रसन्न मुद्रा में थे, क्योंकि उन्हें सरकार शिक्षा विषयक एक सम्मेलन में अमेरिका भेज रही थी, और वे वहीं जाने की तैयारी में लगे हुए थे। मैंने उनसे निवेदन किया कि रणवीरसिंह को न केवल नियुक्ति दी जाय अपितु उसे तिजारा के हाई स्कूल में पदस्थापित किया जाय। इसका कारण मैंने बताया कि रणवीरसिंह कहीं अन्य स्थान पर नियुक्त होगा तो उसका खाना कौन बनाएगा। यदि मेरे पास रहेगा तो उसे इस विषय में कोई कठिनाई नहीं होगी। श्री गजराजसिंहजी ने मेरी बात मानते हुए दूसरे ही दिन रणवीरसिंह की नियुक्ति के आदेश जारी कर दिये। मैंने हार्दिक आभार जताया।

रणवीरसिंह की नियुक्ति से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई, परन्तु तभी ऐसा समाचार प्राप्त हुआ जिससे मैं दुःखी हो गया। छोटे भाई नटवरसिंह ने मुझे बिना पूछे ही नमक विभाग के इस्पेक्टर पद से त्यागपत्र देकर पुन: शिक्षा विभाग में अध्यापक के पद पर नियुक्त ले ली। उससे पत्र द्वारा कारण पूछा गया तो उसने लिखा कि नमक विभाग के इंस्पेक्टर पद पर दौरे बहुत करने पड़ते हैं, जो उसके वश की बात नहीं है। यह कारण एक बहाना मात्र था। राज्य में नमक केवल तीन स्थानों पर बनता था- डीडवाना, फलौदी और पचपदरा। ये तीनों स्थान रेलमार्ग से जुड़े हुए थे और यात्रा में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं थी। नटवरसिंह बीएससी पास कर चुका था और अब एम.ए. और बी.एड. भी शिक्षा विभाग की नौकरी करते हुए ही पास करना चाहता था।

तिजारा का इतिहास - ठा. ओंकार सिंह बाबरा

मेरी जीवन कथा - ठा. ओंकार सिंह बाबरा

तिजारा का इतिहास :-


मैं दिनांक 14 मई, 1953 को तिजारा गया, मेरे मित्र श्री प्रहलादराय शर्मा, जिनका स्थानान्तरण भी श्रीगंगानगर हो गया था मेरे साथ तिजारा गये। दूसरे दिन ही वे लौट आये और तीन-चार दिन पश्चात् श्रीगंगानगर चले गये। तिजारा मेवात क्षेत्र का एक ऐतिहासिक कस्बा था जो दिल्ली के मुसलमान बादशाहों के राज्यकाल में कई शासकों के अधीन रहा। सम्राट अकबर के अभिभावक रहे बेहरामखाँ की बेगम मेवात की ही थी। उनके पुत्र अकबर के प्रसिद्ध दरबारी और हिन्दी के विख्यात कवि अब्दुल रहीम खानखाना थे। यह कस्बा कई युद्धों का साक्षी रहा था।

मुगलकाल के उत्तरार्ध में यह अलवर राज्य के संस्थापक माचेड़ी के राव प्रतापसिंह नेरूका को प्राप्त  हुआ।
इस विषय में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। माचेड़ी का राव प्रतापसिंह नरूका जयपुर राज्य का जागीरदार था। जयपुर दरबार में उनकी सीट (कुर्सी) महाराजा के सिंहासन के पास दाहिनी ओर थी। उसी कुर्सी पर चौमू के जागीरदार की सीट थी। दोनों बारी-बारी से उस कुर्सी पर बैठते थे। चौमू के जागीरदारों पर जयपुर के महाराजा माधोसिंह (प्रथम) की विशेष कृपा थी। एक बार चौमू के ठा. जोधसिंह ने राव प्रतापसिंह को कुर्सी से उठा दिया, इससे प्रतापसिंह नाराज होकर चले गये। उन्होंने मुगल बादशाह से मेलजोल बढ़ाया और कई संघर्षों के बाद दिल्ली के बादशाह की कृपा से अलवर राज्य की स्थापना की।

राव प्रतापसिंह की मृत्यु के पश्चात् अलवर राज्य के राजा बक्तावरसिंह (1790-1815) बने। महाराव बक्तावरसिंह के कोई औरस पुत्र नहीं था, उनकी एक पासवान मूसी रानी के एक पुत्र बलवन्तसिंह था। बलवन्तसिंह की मृत्यु के पश्चात् अलवर राज्य के सिंहासन हेतु उत्तराधिकारी के लिये विवाद उत्पन्न हो गया। एक पक्ष बक्तावरसिंह के अनौरस पुत्र बलवन्तसिंह को राज्य का शासक बनाना चाहता था, दूसरा पक्ष थाना ठिकाने के बनेसिंहजी, जो बक्तावरसिंहजी के सगे भतीजे थे, को सिंहासन पर बैठाना चाहता था। तत्कालीन अंग्रेज सरकार (ईस्ट इण्डिया कंपनी) ने जांच करने के बाद बनेसिंहजी को अलवर का महाराव घोषित किया और बलवन्तसिंह को तिजारा का राज्य दिया। रावराजा बलवन्तसिंहजी ने तिजारा पर शासन बड़ी सफलता से किया।

Sunday 13 May 2018

देश के विभाजन के समय राजस्थान आने वाले शरणार्थी रायसिख और गाँधी जी द्वारा पाकिस्तान गये मुसलमान व मेवों को पुनः पुनर्वासित करवाना।

मेरी जीवन कथा - ठा. ओंकार सिंह बाबरा - 

देश के विभाजन के समय राजस्थान आने वाले शरणार्थी रायसिख और गाँधी जी द्वारा पाकिस्तान गये मुसलमान व मेवों को पुनः पुनर्वासित करवाना।


देश के विभाजन के समय उत्तर भारत में बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, राजस्थान में सबसे अधिक दंगे अलवर और भरतपुर राज्यों में हुए। अलवर नगर में एक भी मुसलमान परिवार नहीं रहा, ग्रामीण क्षेत्र से भी अधिकांश मुसलमान और मेव या तो पाकिस्तान चले गये या दिल्ली के शरणार्थी कैम्पों में चले गये। तिजारा क्षेत्र के गाँवों में पंजाब से आये हुए शरणार्थियों को बसाया गया। अधिकांशत: वे शरणार्थी रायसिख थे, पंजाब में रायसिखों को आपराधिक जाति (क्रिमिनल ट्राइब) माना जाता था। इन लोगों ने तिजारा क्षेत्र में भी अपनी आपराधिक प्रवृत्ति जारी रखी। 

ये लोग पड़ोस के गाँवों से मवेशी चुरा लेते, चोरियाँ करते, नकबजनी करते और प्रतिरोध करने वालों का कत्ल तक कर देते, पुलिस इनसे तंग आ गई थी। इन लोगों के विरुद्ध गवाह भी गवाही देने से डरते थे अत: अपराधियों को दण्ड भी नहीं मिलता, इन लोगों के कारण कानून-व्यवस्था गड़बड़ाई हुई थी। इन लोगों को खेती के लिये जमीनें भी दी गयी थी, ये खेती भी करते और साथ में चोरियाँ भी करते, इनमें से अधिकांश अफीम और शराब की नशेबाजी से ग्रस्त थे।

राज्य सरकार ने इन लोगों को अन्य प्रान्तों में भेजने के लिये केन्द्र सरकार से पत्र-व्यवहार किया परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला, दिल्ली से प्रधानमंत्री पं. नेहरू के परिवार की श्रीमती रामेश्वरी नेहरू बार-बार अलवर जिले के शरणार्थियों की देखभाल के लिये दौरा करती और पुलिस की आलोचना करती कि शरणार्थियों के साथ अनावश्यक कठोरता की जा रही है। वास्तव में रामेश्वरी नेहरू ने गाँधीजी के आदेश से ही यह कार्य शुरू किया था। 

क्योंकि गाँधीजी ने पाकिस्तान गये हुए और कैम्पों में रह रहे मुसलमान और मेवों को पुनः अपने गाँव में पुनर्वासित करवाया था और उनकी देखरेख के लिये रामेश्वरी नेहरू को दायित्व सौंपा था। इस कारण राज्य सरकार रामेश्वरी नेहरू के हस्तक्षेप को बर्दाश्त करने हेतु बाध्य थी। उस क्षेत्र की अन्य जातियाँ अहीर, जाट और गूजर रायसिखों की चोरियों से बहुत त्रस्त थी।

एक राजपूत न्यायाधीश ने हत्या के ऐसे आरोपी को न्याय दिया जिसका कोई वकील भी नहीं था ।

मेरी जीवन कथा - ओंकार सिंह बाबरा -

एक राजपूत न्यायाधीश ने हत्या के ऐसे आरोपी को न्याय दिया जिसका कोई वकील भी नहीं था 





तिजारा में मेरे अधिकार-क्षेत्र में कोटकासिम का इलाका भी था। स्वतंत्रता से पहले कोटकासिम जयपुर राज्य की एक निजामत थी। जयपुर राज्य द्वारा सन् 1857 के सैनिक विद्रोह के समय ब्रिटिश सरकार को सहायता देने के एवज में ब्रिटिश सरकार ने जयपुर राज्य को यह क्षेत्र प्रदान किया था। उसी क्षेत्र में अब प्रसिद्ध उद्योग नगरी भिवाड़ी स्थित है। तिजारा की एक दो घटनाओं का जिक्र करना समीचीन होगा।

मेरे न्यायालय में हत्या का एक प्रकरण प्रस्तुत हुआ, पुलिस ने एक रायसिख लड़के को इस आरोप के साथ पेश किया कि उसने एक रात अपने पिता को सोते हुए कुल्हाड़ी से वार करके मार दिया। लड़का भोला सा दिख  रहा था और वह हाथ जोड़े खड़ा था, परन्तु बार-बार अपनी आँखों से आँसू पोछता था। लोक अभियोजक ने दलीलें पेश करते हुए कहा लड़का भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 का दोषी है और उसे मृत्युदण्ड की सजा दी जानी चाहिए और प्रकरण जिला सेशन जज की अदालत में जाना चाहिए। पुलिस की ओर से अगली पेशी पर गवाह पेश होने थे। लड़के का कोई वकील नहीं था और न कोई गवाह, लड़के को किशनगढबास जेल में भेज दिया गया। अगली पेशी से पहले ही मुझे किशनगढबास जेल के मासिक निरीक्षण हेतु जाना पड़ा, वहाँ जेल का निरीक्षण करने के पश्चात् जेलर से उसके कार्यालय में बैठकर बातचीत हुई, जेलर ने अपनी कई समस्याएँ बताई।

विभिन्न कैदियों के विषय में चर्चा करते हुए मैंने उस रायसिख लड़के के विषय में पूछा तो जेलर ने कहा कि लड़का निर्दोष है, वास्तविकता यह है कि उसके पिता ने दो शादियाँ की थी। लड़का पहली पत्नी से पैदा हुआ था, दूसरी पत्नी आयी, जिसका चाल चल ठीक नहीं था उसका एक अन्य प्रेमी उससे विवाह करना चाहता था। उसी ने लड़के के बाप को मारा था और लड़के की माँ ने आरोप लगा दिया कि लड़का खेत में ठीक प्रकार से काम नहीं करता था अत: उसका बाप बार-बार उसे डांटता और पीटता था, इससे नाराज होकर लड़के ने बाप की हत्या कर दी। पुलिस लड़के की नई माँ के बयानों के आधार पर कार्रवाई कर रही थी। लड़के की माँ का प्रेमी धनाढ्य था और उसने पुलिस को रिश्वत देकर लड़के को गिरफ्तार करवाया था।

इस रोमांचक सूचना के पश्चात् मैंने अगली पेशी पर पुलिस के गवाहों से कई प्रश्न पूछे। ऐसे प्रश्न जो लड़के का कोई वकील पूछ सकता था। इन प्रश्नों के उत्तर पुलिस के गवाह ठीक प्रकार से नहीं दे पाये। अन्त में मैंने निर्णय दिया कि लड़का निर्दोष है और पुलिस ने वास्तविक अपराधी को गिरफ्तार नहीं किया था अतः पुलिस का आचरण अत्यन्त संदेहास्पद है। | पुलिस ने सेशन कोर्ट में मेरे निर्णय के विरुद्ध अपील की परन्तु सेशन जज ने अपील खारिज कर दी और जिले के पुलिस अधीक्षक को आदेश दिया कि संबंधित पुलिस अधिकारियों के आचरण की जाँच करके उनके विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाय, बाद में जब मैं अलवर में अपना वेतन लेने गया तो सेशन जज श्री लेहरसिंह मेहता से मिला। वे मूलतः मेवाड़ के निवासी थे और अच्छे कानूनविद गिने जाते थे। उन्होंने रायसिख लड़के के प्रकरण के विषय में मेरी प्रशंसा की और कहा कि आप इसी प्रकार प्रकरणों की छानबीन करते हुए फैसले दिया करो। उनसे बातचीत करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

Wednesday 9 May 2018

प्रभावशाली व्यक्ति के विरुद्ध जब एक राजपूत न्यायधीश ने दिया फैसला तो हो गया स्थानांतरण

मेरी जीवन गाथा - ओंकार सिंह बाबरा -





मैं तिजारा से अपना स्थानान्तरण चाहता था, अतः जब भी जयपुर जाता तो इसके लिये प्रयास करता एक अनुभवी परिचित अधिकारी ने सुझाव दिया कि ‘या तो स्थानीय राजनेताओं को प्रसन्न करो या उसकी बाहें मरोड़ो तो अपने आप स्थानान्तरण हो जाएगा।’ मैं राजनेताओं को प्रसन्न नहीं करना चाहता था। वास्तव में मैं तो अधिकांश राजनेताओं के कार्यकलापों और आचरण से उनके प्रति अनादर का भाव रखता था। मेरे न्यायालय में एक ऐसा प्रकरण आया जिसमें राजनेताओं की भी रुचि थी। यह प्रकरण नीमराणा का था, नीमराणा स्वतंत्रता से पहले एक अर्द्धस्वतंत्र छोटी-सी रियासत थी। वहाँ के एक सेठ को कपड़ा, शक्कर और केरोसिन बेचने का लाइसेन्स मिला हुआ था। ये तीनों वस्तुएँ राशनकार्ड के आधार पर ही बेची जानी थी। सेठ बहुत समय तक कानून की अवहेलना करके अवैध कमाई करता रहा।

जनता में असंतोष की आवाज उठी तो अलवर की भ्रष्टाचार निरोधक पुलिस ने जाँच करने के बाद सेठ को गिरफ्तार किया। आरोपी ने अदालत से जमानत ले ली। उसका प्रकरण अलवर राज्य में चला और राजस्थान बनने के पश्चात् कई न्यायालयों में यह प्रकरण चलता रहा। जब भी कोई न्यायाधिकारी निष्पक्षभाव से सेठ के विरुद्ध रुख दिखाता तो सेठ न्यायाधीश पर पक्षपात का आरोप लगाकर उस न्यायालय से प्रकरण को स्थानान्तरित करवा लेता। अब यह प्रकरण मेरे न्यायालय में था। केस की फाइल बहुत बड़ी और पुरानी थी। फाइल के कई कागज फटने के कगार पर थे। सेठ को आशंका थी कि मैं उसके विरुद्ध निर्णय दूंगा, तो उसने राजनेताओं का सहारा लिया।

उस काल में राज्य मंत्रिमण्डल में अलवर क्षेत्र के एक मंत्री मास्टर भोलानाथ थे। मंत्री महोदय तिजारा के दौरे पर आये। मैं उनसे विश्राम गृह में मिलने गया तो उन्होंने क्षेत्र की कानून-व्यवस्था पर चर्चा की उनके पास ही नीमाराणा वाला सेठ बैठा था, उसका परिचय कराते हुए मंत्रीजी ने कहा कि ये अपने क्षेत्र के बड़े प्रभावशाली और सज्जन व्यक्ति हैं। बातचीत के पश्चात् मंत्रीजी सेठ और अन्य कार्यकर्ताओं के काफिले को लेकर नगर की ओर चले गये। बाद में मैंने सेठ के प्रकरण के विषय में निर्णय दिया जिसके अनुसार उस पर तीन लाख रुपये का जुर्माना और 6 महीने की सख्त कैद की सजा सुनाई। इस निर्णय के 15 दिन बाद ही मेरा स्थानान्तरण हो गया। परिचित अधिकारी द्वारा बताया गया नुस्खा काम कर गया। स्थानान्तरण से मुझे आश्चर्य हुआ, मुझे चिंता थी कि कहीं गलत स्थान पर स्थानान्तरण न हो जाय परन्तु यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरा स्थानान्तरण खेतड़ी के उपखण्ड अधिकारी (एस.डी.ओ.) पद पर हुआ।

महाराणा सज्जनसिंहजी का अनोखा कार्य - (ठा. ओंकार सिंह)

महाराणा सज्जनसिंहजी का अनोखा कार्य - (ठा. ओंकार सिंह)




उदयपुर (मेवाड़) के महाराणा सज्जनसिंह अनेक गुणों से विभूषित थे। उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों में एक था नवोदित पंथ आर्य समाज का समर्थन। उन्होंने आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द को अनुपम समर्थन दिया। महर्षि दयानन्द ने उनके आतिथ्य में रहते हुए उदयपुर में वेदों का भाष्य लिखा। महर्षि ने एक संस्था आर्य परोपकारिणी सभा स्थापित की जिसके संरक्षक महाराणा सज्जनसिंह बनाये गये। महाराणा साहब मेवाड़ राज्य की महान प्रतिष्ठा और परम्परा को अक्षुण्य बनाये रखना चाहते थे। इस बात की पुष्टि के लिये मैं विख्यात स्वतंत्रता सेनानी श्री केसरीसिंहजी बारहठ के लेख का उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह लेख अखिल भारतीय चारण सम्मेलन की त्रैमासिक पत्रिका ‘चारण' के विक्रम संवत 1996 (ई. सन् 1939) के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख से पता चलेगा कि कैसे महाराणा सज्जनसिंहजी ने एक राजपूत राज्य को मुसलमान राज्य होने से बचाया -

"मेवाड़ के महाराणाओं को छोड़कर राजस्थान के राजाओं में देशाभिमान, कुलाभिमान एवं धर्माभिमान की इतिश्री तो मुस्लिमशाही के आगमन के साथ ही हो चुकी थी। महाराणा वंश की वह वृत्ति भी मराठाशाही के समय से शिथिल हो चुकी। फिर भी हमने अपनी आयुष्य के प्रथम भाग में इन राजाओं में स्वाभिमान की जो शेष झलक देखी उसका भी आज कहीं पता नहीं। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंहजी, फतहसिंहजी, बूंदी के महाराव राजा रामसिंहजी, एक छोटी-सी रियासत बांसवाड़ा के महारावल लक्ष्मणसिंहजी आदि स्वाभिमानी नरपतियों की वह तेजस्विता आज भी हमारे स्मृतिपटल पर प्रकाश डाल रही है। उस झलक को हम तीन-चार तरह के उदाहरणों से स्पष्ट करेंगे जिससे पाठक तब और अब का मार्मिक स्वरूप सहज जान सके।

“संवत् 1940 में उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंहजी मेहमान होकर जोधपुर गये। वहाँ जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंहजी ने महाराणा से कहा कि- “मैं एक असह्य घटना से विचलित हो रहा हूँ और वह यह है कि मेरा ननिहाल और सुसराल नवानगर (जामनगर) में है वहाँ के वर्तमान नरेश जाम वीभाजी अपनी एक मुसलमानी खवास (पासवान, रखैली) के पेट से पैदा होने वाले लड़के (कालूभा) को गोद लेकर राजगद्दी का वारिस करार दे दिया है और गवर्मेन्ट ने भी स्वीकार कर लिया है। इससे हमारा उस राज्य से सदा के लिये संबंध नष्ट होने जा रहा है। मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता, आपकी मदद चाहता हूँ।

महाराणा सदा हिन्दू धर्म के रक्षक और राजपूत जाति के शिरोमणी रहे हैं। इस पर महाराणा सज्जनसिंहजी ने सहायता देना स्वीकार कर लिया। दोनों ने सलाह करके उज्रदारी के तौर पर दो तार और दो खरीते गवर्मेन्ट-हिन्द के नाम लिखे और महाराजा जसवन्तसिंहजी ने वे अपने मुसाहिब पंजाबी श्री हरदयालसिंह के साथ जोधपुर के तत्कालीन रेजिडेन्ट कर्नल बेली के पास भेजकर जबानी कहलाया कि जामनगर के जाम साहिब बीभाजी ने मुसलमानी के पेट से पैदा हुए लड़के को अपनी गद्दी का हकदार कायम करके गवर्मेन्ट से मंजूरी ले ली है। उसके उज्रात बाबत महाराणा साहिब उदयपुर और मैं दोनों ही तार व बाजाब्ता खरीते देते हैं वे सरकार अंग्रेजी में पहुँचा दें। पोलिटकल रेजिडेन्ट ने वे तार-खरीते उस समय के एजेन्ट टु दि गवर्नर जनरल राजपूताना कर्नल जाडफोर्ड के पास भेज दिये और सूचना दे दी कि दोनों ही ईस आप से अजमेर में मिलेंगे।

‘‘महाराणा सज्जनसिंहजी उदयपुर लौटते समय महाराजा जसवन्तसिंहजी के साथ अजमेर पहुँचे। वहाँ ए.जी.जी. कर्नल जाडफोर्ड दोनों रईसों से मिलने के लिये किशनगढ की कोठी पर आये। उस समय ए.जी.जी. ने कहा- 'कि आप दोनों रईसों ने जामनगर के मामले में तार व खरीते भेजे वे बेजा हैं, क्योंकि हर एक रईस को अपनी ही रियासत के मामलों में तहरीर देने व उद्धात पेश करने का इख्तियार है। कोई दूसरी रियासत के मामले में दखल नहीं दे सकता। इसके अलावा राजपूताने की रियासत का कोई मामला होता तो किसी खास सूरत में आपका कहना और मेरा सुनना कुछ ठीक भी समझा जाता।

मगर जामनगर काठियावाड़ में है इसलिये आपका उज़ करना बेजा है, आप अपने ख़रीते वापस ले लें जाम वीभा के शादी की हुई रानियों से कोई औलाद नहीं है, वह अपनी खानेअंदाज की हुई मुसलमान औरत के पेट से खास उसी के नुत्फे से पैदा हुए लड़के को अपना वलीअहद बनाना चाहता है तो उसे कैसे रोका जा सकता है। महाराणा साहिब की तो कोई रिश्तेदारी भी नहीं है।'' इस पर महाराजा जसवंतसिंहजी तो चुप हो गये परन्तु महाराणा सज्जनसिंहजी ने उत्तर दिया कि किसी समय समस्त भारतवर्ष पर हम राजपूत जाति बहुत कम हो गई। फिर मुसलमान बादशाहों की लड़ाइयों में लाखों राजपूत मारे गये इससे हमारे राज्य गिनती के रह गये जिसका हमें दुःख है।

अब इस अमन के जमाने में भी राजाओं की खानेअंदाज मुसलमान व अंग्रेज औरतों के पेट से पैदा होने वाले दोगले लड़के रस बना दिये जाएंगे तो ये रही-सही रियासतें भी मुसलमान व ईसाइयों की हो जाएंगी। इसको हम कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते। अपनी जाति की रक्षा करना हमारा फर्ज है। आप खुद अपनी कौम व मजहब की तरक्की के लिये कैसी-कैसी कोशिशें कर रहे हैं? पादरी लोगों की मिशन को दूर-दूर मुल्कों में, बल्कि हमारे रियासतों में भी भेजकर हर तरह की मदद देते हैं और उनके रहने व गिरजा वगैरह के लिये जमीन आदि देने के लिये हम लोगों पर दबाव डालते हैं।

आपको अपनी कौम का ख्याल है उसी तरह हमें भी अपनी कौम का ख्याल होना स्वाभाविक है। क्या हम मनुष्य नहीं हैं। जामनगर काठियावाड़ में होने से क्या हुआ? है तो राजपूतों का ही मालूम होता है जाम का दिमाग बिगड़ गया है, मगर हमारा तो ठिकाने है। हम इस तरह राजगद्दियों को भ्रष्ट नहीं होने देंगे। यह ठीक है कि आपका ताल्लुक काठियावाड़ से नहीं है। इसीलिये तो ये खरीते आपके नाम नहीं बल्कि वायसराय के नाम है। रही मेरी रिश्तेदारी की बात। रिश्तेदारी दो-तीन पीढ़ी तक ही चलती है, मगर मेरा संबंध उससे भी अधिक व्यापक और चिरस्थायी है। चाहे आप माने या न मानें परन्तु वास्तव में समस्त संसार उदयपुर के महाराणा को हिन्दू सूर्य कहता है और मैं भी अपनी उस जिम्मेदारी को मानता हूँ।

अतः जहाँ कहीं भी हिन्दू हो वहाँ तक मेरे अधिकार की सीमा है। यह मामला तो खास मेरी जाति के एक राजघराने का है और यही मेरे प्रबल प्रतिवाद का कारण है। हम अंग्रेज सरकार के भी दोस्त हैं इसलिये नहीं चाहते कि व्यर्थ में ऐसा बवण्डर उठे जो वायसराय को भी कठिनाई में डाल दे। इसलिये आप मेरे नाम से यह नेक सलाह वायसराय को भेज दें कि वे जाम विभा की मूर्खता पर स्वीकृति न दें।' महारणा के इस उत्तर पर ए.जी.जी. निरुत्तर हो गये और कहा कि ठीक है, मैं आपकी मंशा से वायसराय को परिचित कर दूंगा और खुद भी कोशिश करूंगा। उम्मीद है, गवर्मेन्ट जामनगर संबंधी फाइल आपके पास देखने के लिये भेज दे।”

थोड़े ही समय बाद वह फाइल पोलिटिकल डिपार्टमेन्ट ने उदयपुर भेज दी। परन्तु दुःख है, इसी असे में महाराणा का स्वर्गवास हो गया। फिर भी परिणाम यह हुआ कि वह कालूभा जामनगर का उत्तराधिकारी न रहा। कैसा स्वाभिमान भरा था महाराणा सज्जनसिंह का वह अनुपम व्यक्तित्व। कालान्तर में उसी जाम वीभाजी ने दूसरी बार उसी मूर्खता भरी सनक से अपनी किसी मुसलमानी पासवान के पेट के दूसरे लड़के जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उस समय किसी राजा ने यूं तक नहीं की। महाराजा जसवंतसिंहजी भी मन-मसोस कर रह गये, क्योंकि सज्जनसिंह की तेजस्विता का बल संसार से उठ चुका था। यह उदाहरण है हिन्दु सूर्य की आसमुद्रांचल भारत पर आत्मीयता का, कुलाभिमान का, स्वधर्माभिमान का और सर्वोपरि क्षात्रोचित स्वाभिमान का।

महाराणा सज्जनसिंहजी के महत्त्वपूर्ण और सफल प्रयास के पश्चात् जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंहजी के लघु भ्राता महाराज सर प्रतापसिंहजी ने जमानगर के भावी उत्तराधिकारी की सहायता की। ये उत्तराधिकारी थे श्री रणजीतसिंहजी सारोदार जागीर के जागीरदार थे और राजघराने से उनका सम्बन्ध निकटतम था। इन्हें बचपन में ही जाम साहब विभाजी ने शिक्षा ग्रहण करने हेतु दीर्घकाल के लिये इंग्लैण्ड भेज दिया था। वहाँ रहते हुए रणजीत सिंह जी ने सन् 1891 में क्रिकेट के खेल में नाम कमाना शुरू किया। क्रिकेट के अतिरिक्त वे जिमनास्टिक व टेनिस के खेल में भी रुचि लेते थे, परन्तु क्रिकेट के खेल में उनकी उपलब्धि अनुपम थी। इंग्लैण्ड में क्रिकेट का खेल अत्यन्त लोकप्रिय था और इस खेल की मैचें देखने के लिये ब्रिटेन का राजपरिवार भी उपस्थित होता था। इंग्लैण्ड के खिलाड़ी भारतवंशियों को अपने बराबर नहीं गिनते थे और उनकी उपेक्षा करते रहते थे। परन्तु रणजीतसिंहजी ने अपनी प्रतिभा से इस खेल में ऐसी धाक जमायी कि सारे विश्व में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। उनके कारण कैम्ब्रिजसायर काउन्टी क्रिकेट क्लब की प्रतिष्ठा भी बढ़ गयी।

रणजीतसिंहजी नवानगर (जामनगर राज्य) की गद्दी के हकदार थे, उनका मार्गदर्शन महाराज सर प्रतापसिंहजी जोधपुर ने किया। उन्होंने ब्रिटिश राजघराने और भारत के वाइसराय को संस्तुति की कि रणजीतसिंहजी नवानगर राज्य की गद्दी के वास्तविक अधिकारी हैं। महाराणा सज्जनसिंहजी द्वारा तैयार की गयी भूमिका के बाद सरप्रताप के प्रयासों ने रंग दिखाया। जाम विभाजी के देहावसान के बाद वाइसराय ने रणजीतसिंहजी को जामनगर का शासक घोषित कर दिया। इन्हीं रणजीतसिंहजी के नाम से भारत में रणजी ट्राफी क्रिकेट का चलन हुआ। भारत के क्रिकेट प्रेमियों के लिये रणजीतसिंहजी पितामह के रूप में मान्य हैं। इन्हीं की स्मृति में बनी रणजी ट्राफी की मैचों में खेलते हुए खिलाड़ी राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचे हैं। आज भारत में रणजी ट्राफी के मैच सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय गिने जाते हैं।

पुनश्च :- हिन्दुओं के धर्मरक्षक मेवाड़ के महाराणा :- महाराणा सज्जनसिंहजी की साहसिक पहल से नवानगर (जामनगर) राज्य का सिंहासन एक मुसलमान के अधिकार में जाने से बच गया। इसी संदर्भ में एक ऐतिहासिक घटना का जिक्र करना आवश्यक है। जोधपुर राज्य के मंत्री और विख्यात चारण कवि कविराजा मुरारिदान मेवाड़ की राजधानी उदयपुर गये थे, वहाँ उनके सम्बन्धी श्यामलदास दधवाडिया महाराणा सज्जनसिंहजी के विश्वासपात्र और कृपापात्र थे। महाराणा सज्जनसिंहजी ने कविराजा मुरारिदानजी को लाख पसाव और जागीर देने की इच्छा जताई, परन्तु मुरारिदानजी ने यह सम्मान लेने से | इन्कार करते हुए महाराणा साहब को एक सवैया लिख भेजा, जो इस प्रकार था-

रावरो दान मुरार भने जग जाहिर है, कवि कीरति गाई।
मैं हूँ अचायक भूप जोधाण को, बीनति माफी की यातें कराई।
सज्जन मो अपराध न पेखिये, देखिये रावरी वंश बड़ाई।
धर्म निबाहन को हिन्दुआन के, राण रहे तत्रतांत्र सदाई।।

(मुरारिदान कहता है कि श्रीमान् का दान विश्व प्रसिद्ध है और इस कारण कवियों ने भी आपका यश गाया है। मैं जोधपुर नरेश का अयाचक चारण हूँ जो किसी अन्य दानदाता ये याचना नहीं कर सकता। हे सज्जनसिंहजी मेरे अपराध को मत देखिये, आप अपने वंश की बड़ाई देखिये। हिन्दुओं के धर्म निबाहने के लिये मेवाड़ के महाराणा सदा कवच और ढाल बनके रहे हैं, अत: आप भी मेरे धर्म को बचाइये।) ।

उपरोक्त सवैये से मेवाड़ के राजवंश का यशगान तो प्रकट होता ही है, इसके साथ ही कविराजा मुरारिदान की सिद्धान्तप्रियता और त्याग भी प्रदर्शित होता है। कवि ने उपरोक्त सवैये द्वारा बड़े सटीक तर्क से महाराणा से क्षमा मांगी है। ज्ञातव्य है कि कविराजा मुरारिदान को जोधपुर नरेश महाराजा जसवन्तसिंहजी ने लूणी ग्राम की बड़ी जागीर प्रदान करके अयाचक बना दिया था।

Tuesday 8 May 2018

महाराजा मानसिंह आमेर - नरेन्द्रसिंह निभेड़ा

महाराजा मानसिंह आमेर - नरेन्द्रसिंह निभेड़ा





राजा मानसिंह आमेर की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार कही जा सकती हैं:-

(1) एक कुशल राजनीतिज्ञ :- गीता सहित सम्पूर्ण क्षत्रिय शास्त्र इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि बिना नीति के शासन नहीं किया जा सकता है इसलिए इस नीतिशास्त्र का नाम ही राजनीति शास्त्र बन गया। नीति का अर्थ है जिसके द्वारा विजय प्राप्त की जाती है। दुर्बल पक्ष नीति का आश्रय लेकर ही सबल शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकता है। नीति शास्त्र का कथन है यदि आपका पक्ष दुर्बल है तो सबल से समझौता कर उसको अपने सिर पर घड़े की तरह धारण कर लो व अपनी शक्ति का संचय करते रहो। जब तुम स्वयं सबल हो जाओ तो शत्रु रूपी घड़े को सिर पर से उठाकर ऐसे गिरा दो जिससे वह पूरी तरह नष्ट हो जाये। इतिहास साक्षी है कि राजपूत काल में क्षत्रिय व क्षत्राणियों ने ऐसी अद्भुत वीरता का परिचय दिया जिसकी तुलना अन्य किसी काल व देश से नहीं की जा सकती लेकिन उनका उद्देश्य केवल कर्तव्य पालन का भाव था, उसके साथ नीति का मिश्रण नहीं होने के कारण उनका अद्भुत पराक्रम व वीरता उनको विजय तक नहीं पहुँचा सकी। इतिहास में जिसको राजपूत काल कहा जाता है उसमें केवल तीन नीतिज्ञ क्षत्रियों (राजपूतों) के उदाहरण मिलते हैं।

पहला उदाहरण है मेवाड़ के राणा उदयसिंह का जिन्होंने किलों में बंद होकर लड़ने की आत्मघाती परम्परा को समाप्त कर दिया, खुले में लड़ने की नीति अपनाई। अकबर के आक्रमण के समय केवल सांकेतिक युद्ध लड़ने के लिए जयमल व फत्ता को कुछ सौ सैनिकों के साथ किले में किले की रक्षा के लिए छोड़ा व अपनी सारी सेना, सम्पत्ति व परिवारजनों को साथ लेकर किले के बाहर निकल गये व बाहर से छापामार युद्ध के द्वारा शत्रु को परेशान करते रहे। उसी अपने धन से सुरक्षित स्थान पर उदयपुर बसाया उसे अपनी राजधानी बनाया व उसी धन के बल पर राणा प्रताप जीवन भर अकबर से संघर्ष करने में सफल हुए। 

दूसरा उदाहरण है आमेर के राजाओं का, राजा भारमल, भगवंतदास व मानसिंह तीन पीढ़ी तक लगातार वीर व नीतिज्ञ राजा हुये जिन्होंने इस सच्चाई को स्वीकार किया कि राजपूत शक्ति इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह मुगलों का सामना नहीं कर सकती है इसलिए भारमल ने अकबर से समझौता किया व उस समझौते का सर्वाधिक लाभ राजा मानसिंह ने अपने अद्भुत नेतृत्व, वीरता व नीतिज्ञता के कारण उठाया। तीसरे नीतिज्ञ पुरूष दुर्गादास राठौड़ हुये जिन्होंने औरंगजेब जैसे कट्टर व क्रूर शासक से संघर्ष कर जोधपुर राज्य पर पुनः अधिकार कर अजीतसिंह को राजा बनाया, मुगलों से सन्धि भी की, संघर्ष भी किया। यदि पूर्व काल के लोगों ने भी नीति का आश्रय लिया होता तो राजपूतों की शक्ति का उतना क्षय नहीं होता जितना राजपूत काल के 600 वर्षों में हुआ।

(2) पराक्रम व युक्ति बुद्धि का सामंजस्य :- राजा मानसिंह आमेर ने अपने जीवन के 60 वर्ष युद्ध के मैदानों में व्यतीत किये। मुगलों के आगमन से पूर्व लगभग दो हजार वर्षों से मुसलमान भारत पर आक्रमण कर रहे थे उनका उद्देश्य केवल लूटपाट व राज्य स्थापित करना नहीं था, उनका उद्देश्य था भारत पर शासन स्थापित कर देश की जनता का इस्लामीकरण करना। ईरान, इराक व अफगानिस्तान जहां पहले क्षत्रियों का शासन था का मुसलमानों ने केवल सौ साल की अवधि में इस्लामीकरण कर दिया। उस समय मुसलमान इस स्थिति में थे कि वे अर्थात पठान और मुगल एक हो जाते तो आसानी से भारत का इस्लामीकरण कर सकते थे। इस इस्लामीकरण को रोकने के लिए पहली आवश्यकता थी मुसलमानों की इन दो प्रबल शक्तियों को एक होने से रोका जाए। राजा मानसिंह आमेर ने अकबर को यह समझाने में सफलता प्राप्त की, कि जब तक तुम्हारा राज्य सुदृढ़ नहीं होगा तब तक किसी उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकोगे। उसने अकबर को यह भी समझाया कि पठान इस समय इस देश में सबसे प्रबल शक्ति है। उसे खण्डित किये बिना तुम्हारा राज्य सुदृढ़ नहीं हो सकता है।

राजीवनयन द्वारा लिखित राजा मानसिंह आमेर पुस्तक को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि केवल अकबर के दरबारी, मुसलमान सैनिक व सैनिक अफसर ही मानसिंह के विरूद्ध नहीं थे बल्कि सारे मुगल मानसिंह को न केवल इस्लाम का विरोधी घोपित कर रहे थे, बल्कि अकबर से यह माँग भी कर रहे थे कि उसको युद्ध क्षेत्र से वापिस बुलाया जाये। अफगानिस्तान के पाँच राज्यों को नष्ट कर वहाँ पर मुगलों का शासन स्थापित करने वाले मानसिंह पर अकबर के मुसलमान दरबारी व सैनिक अफसर यह आरोप लगा रहे थे कि यह मुसलमानों को कत्ल करवा रहा है व इनके विरोध के कारण अकबर ने मानसिंह को काबुल से वापिस बुलाया व उसको बिहार में भेजा, उड़ीसा में भेजा, बंगाल में भेजा, जहाँ भी वो रहा उसने मुस्लिम शक्ति को खण्डित व विघटित किया, राजपूत शक्ति को एकजुट किया व मेवाड़ को छोड़कर राजस्थान के सम्पूर्ण राजाओं को अकबर के साथ सन्धि करने को राजी किया जिसके परिणामस्वरूप राजपूत राज्यों का न केवल सीमाओं का विस्तार हुआ बल्कि उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ।

(3) विज्ञान के विकास की ओर ध्यान देना :- भारत के क्षत्रियों ने आक्रान्ता मुसलमानों के विरूद्ध दो हजार वर्षों तक संघर्ष किया। अपने आपको विश्व विजेता कहने वाला सिकन्दर हो अथवा मोहम्मद गजनी सबको यहाँ से मुँह की खाकर वापिस लौटना पड़ा। जब मुसलमानों ने विज्ञान के क्षेत्र में कदम आगे बढ़ाया। उन्होंने बन्दूकों व तोपों का अविष्कार कर लिया तब भी हम तोपों के सामने तलवारों से लड़े किन्तु इससे क्षत्रियों की सैनिक व आर्थिक दोनों प्रकार की शक्तियों का भारी क्षय हुआ और इन आधुनिक हथियारों के बल पर ही मुसलमान इस देश पर सत्ता प्राप्त करने में सफल हुये। राजा मानसिंह आमेर ने राजपूतों की इस कमजोरी को अनुभव किया और इस कमजोरी को दूर करने का प्रयत्न भी किया, पंजाब में विद्रोह का दमन करने के लिए बादशाह अकबर स्वयं भगवंतदासजी व मानसिंहजी के साथ शांति स्थापित करने के लिए निकला था। पंजाब का विद्रोह शांत होने पर अकबर भगवंतदासजी के साथ वापिस लौट आया व आगे के सैनिक अभियान के लिए मानसिंहजी को सेनापति नियुक्त किया।

उस समय अफगानिस्तान में पाँच राज्य थे जो तोप बन्दूक आदि शस्त्रों व गोले-बारूद का निर्माण कर भारत पर आक्रमण करने के लिए आने वाले मुसलमानों को मुफ्त शस्त्र व गोला-बारूद उपलब्ध कराते व लूटपाट करके जब वो वापिस जाते तो लूट का आधा माल वसूल कर लेते थे। इसलिए प्रतिवर्ष कितने ही मुसलमान काफिले भारत पर आक्रमण करने आते व उनसे लड़ने में क्षत्रियों की शक्ति व्यर्थ में ही नष्ट हो रही थी। राजा मानसिंह आमेर ने इस स्थिति को समझा व अफगानिस्तान के उन पाँच राज्यों पर विजय प्राप्त कर वहाँ के शस्त्र बनाने वाले सारे कारखानों को नष्ट किया व उन कारखानों में कार्य करने वाले कारीगरों को बंदी बनाकर आमेर ले आया, जहाँ पर आज जयगढ़ दुर्ग है उस जगह शस्त्र बनाने का कारखाना खोला। जहां पर तोपों व बन्दूकों का निर्माण शुरू हुआ। यह तकनीकी ज्ञान अन्य राजपूत राजाओं को भी मिले इसकी व्यवस्था की। जब राजपूतों के पास आधुनिक हथियार आये तब शक्ति संतुलन बना व राजपूतों में यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वे अब मुसलमानों का मुकाबला कर सकते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि राजा मानसिंह की मृत्यु के बाद आमेर के राजाओं ने ही नहीं किसी भी राजपूत राजा ने विज्ञान के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया।

मानसिंहजी के जीवन काल में ही जुजर्बो का निर्माण हो चुका था (जिनको छोटी तोपें कह सकते है, जिनको एक आदमी भी साथ लेकर चल सकता है लेकिन उनकी मारक क्षमता कम थी व निशाना नहीं साधा जा सकता था) यहाँ से राजपूत एक इंच भी आगे नहीं बढ़े लेकिन विदेशों में अविष्कार होते रहे व भारत के ही अन्य शासक उन हथियारों व गोला-बारूद ही नहीं उनको काम में लेने वाले कारीगरों को भी खरीद के लाये और उससे राजपूत शक्ति को ही इतना कमजोर कर दिया कि अंग्रेजों के आगमन काल तक वे पूरी तरह शक्तिहीन हो गये। भरतपुर के जाटों, ग्वालियर के सिंधिया व मराठों के पास ऐसे ही खरीदे हुये हथियार व गोलंदाज थे जिनके बल पर उन्होंने न केवल जनता को पीडित किया बल्केि अनेक युद्धों में राजपूत शक्ति को भी भारी हानि पहुँचाई अगर राजपूतों ने विज्ञान के विकास की तरफ ध्यान दिया होता तो अंग्रेजों का शासन इस देश में नहीं हो पाता।

(4) धर्म के प्रति आस्था व आत्मविश्वास की पुनः स्थापना :- दो हजार वर्ष तक इस देश पर हुये | मुसलमानों के आक्रमणों से केवल राजपूत व कुछ अन्य जातियां जिन्हें आज आदिवासी कहा जाता है वे ही लड़ते रहे। व शेष जनता सुखपूर्वक दर्शक बने अपना जीवन यापन करते रहे। मुसलमानों ने न केवल देशवासियों को लूटा बल्कि यहाँ की जनता के धार्मिक आस्था के केन्द्र मन्दिरों को भी नष्ट किया जिसके परिणाम स्वरूप एक तरफ जनता का अपनी रक्षा के प्रति व धर्म के प्रति आस्था डगमगा रही थी अपितु राजपूत शक्ति क्षीण होती चली जा रही थी उस स्थिति में मानसिंह ने अनेक प्राचीन धार्मिक स्थलों का पुनरूद्धार किया, पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर जहाँ मुसलमान नमाज पढ़ने लगे थे, को न केवल मुसलमानों के कब्जे से मुक्त कराया बल्कि नवीन मंदिरों का निर्माण भी करवाया। उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल व उड़ीसा में जहां भी एक स्थान पर उसका 2-3 महीने भी पड़ाव रहा वहीं पर उसने मंदिर बनवा दिया।

ये मंदिर आज सभी जगह मानमंदिर के नाम से जाने जाते हैं। इससे आस्तिक जनता में आत्मविश्वास पैदा हुआ कि अब हमारे धर्म को कोई नष्ट नहीं कर सकेगा। उजड़ होते हरिद्वार को पुनः बसाया, गंगा के तट पर हर की पौंड़ी घाट का पुर्नर्निमाण किया व अन्य घाटों की मरम्मत करवाई इन सब कार्यों से मानसिंह को यहाँ की जनता ने धर्मरक्षक घोषित किया। उसके झंडे को धर्म ध्वजा स्वीकार की व उसकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में हर की पैड़ियों पर उसकी स्मृति में एक छतरी का निर्माण करवाया। इससे स्पष्ट है कि एक तरफ राणा प्रताप इसलिए लड़ रहा था कि इतिहासकार यह नहीं लिख पाये कि सभी राजपूतों को अकबर ने अपने अधीन कर लिया था वहीं दूसरी और मानसिंह इस बात के लिए लड़ रहा था कि यहां जनता के टूटते आत्मविश्वास को पुनर्जीवित कर मुसलमानों के देश के इस्लामीकरण करने के स्वप्न को हमेशा के लिए | खत्म कर दिया जाये।

राजा दुर्लभराज चौहान तृतीय- सांभर (शाकम्भरी) 1079 ई.

राजा दुर्लभराज चौहान तृतीय- सांभर (शाकम्भरी) 1079 ई.





डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार दुर्लभराज ने गजनी सुल्तान इब्राहीम से 1079 ई. में युद्ध कर देश रक्षा में वीरगति प्राप्त की थी | (Early Chauhan dynasties) श्रीधर कवि रचित पाश्र्वनाथ चरित (1132 ई.) में कहा गया है कि दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर ने सुल्तान की हराया । 

संभव है, यह सुल्तान गजनी का इब्राहीम था । आसराज चौहान ने मुसलमानों से घिरे अपने भाई नाडोल के राजा पृथ्वीपाल चौहान को बचाया था । आसराज के साले हरिपाल ने मुसलमानों के प्यासे घोड़ों को पानी नहीं पीने दिया । उपरोक्त दोनों वर्णन ताम्रपत्रों से प्राप्त हैं और इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार यह गजनी सुलतान इब्राहीम के 1079 ई. में आक्रमणों से सम्बन्धित है । (Early Chauhan dynasties)

राजा गोविन्दचन्द्र गहड़वाल (1114-1154 ई.) - राजा विजयचन्द्र गाहडवाल, कर्नौज (11 55-69 ई.)

राजा गोविन्दचन्द्र गहड़वाल (1114-1154 ई.) और राजा विजयचन्द्र गाहडवाल, कर्नौज (11 55-69 ई.)





इन राजाओं ने विदेशी मुसलमानों से लगातार युद्ध किए और देश रक्षा के लिए जनता पर विशेष तुर्क दण्ड नामक कर लगाया था । ऐसा ताम्रपत्रों से ज्ञात हुआ है। राजा गोविन्द्रचंद की रानी कुमारदेवी के सारनाथ शिलालेख में लिखा गया है कि गोविन्दचन्द्र दुष्ट तुकों से वाराणसी की रक्षा करने के लिए शिवशंकर द्वारा नियुक्त हरिविष्णु का अवतार था। 

कृत्यकल्पतरू का लेखक लक्ष्मीधर लिखता है कि गोविन्दचन्द्र ने युद्ध में वीर हम्मीर (अमीर तुर्क) को मार डाला । आर.एस. त्रिपाठी हिस्ट्री ऑफ कन्नौज में इसे गजनी के मसूद तृतीय द्वारा कन्नौज पर हुआ आक्रमण मानते हैं। 1168 ई. के जयचन्द का कमोली शिलालेख में विजयचन्द्र द्वारा किसी तुर्क सेना को हराने का वर्णन करता है ।

(गाहड़वालों का इतिहास, पृष्ठ 38 - डॉ. प्रशान्त कश्यप, वाराणसी) । 
(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 73 व 74)

अजमेर संस्थापक राजा अजयराज चौहान (1113-1133 ई.)

अजमेर संस्थापक राजा अजयराज चौहान (1113-1133 ई.) 



राजा पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र अजयराज ने अपने समकालीन गजनी सुल्तान के आधीन पंजाब के सूबेदार बहलोम और सालार हुसैन का प्रतिरोध किया और युद्ध में सफलता से विजय प्राप्त की थी ।

राजा अजयराज ने सांभर को मुसलमान से लड़ने के लिए सही स्थान नहीं मान कर 1113 ई.के लगभग अजमेर बसा कर उसे राजधानी बनाया । ऐसा जयानक ने पृथ्वीराज विजय में लिखा है ।

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 72)

महाराजा अर्णोराज चौहान- अजमेर (1133-1151 ई.)

महाराजा अर्णोराज चौहान- अजमेर (1133-1151 ई.)







अजमेर पर अणोंराज के राज्यारोहण के कुछ ही समय पश्चात् गजनी के मुसलमानों ने अजमेर पर आक्रमण कर दिया। वर्तमान अनासागर जहां है वहां यह युद्ध हुआ जिसमें भारी संख्या में आक्रमणकारी मुसलमानों का संहार हुआ तथा उनका सेनापति भाग छूटा । इन भागते हुए आक्रमणकारियों को गांवों के लोगों ने मार कर जला डाला। इस मुस्लिम आक्रमण का नेता सम्भवतः गजनी का बहराम शाह था ।

इस जीत की खुशी में उन्होंने अनासागर बनाया | उसे चन्द्रा नदी के पानी से भरा । चौहान प्रशस्ति के अनुसार तुकों के रक्त से लाल अजमेर की धरती जैसे लाल वस्त्र पहने अपनी जीत की खुशी मना रही थी । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 73) पृथ्वीराज विजय - जयानक, कश्मीरी पण्डित Rajasthan through the Ages-I-Dr. Dashrath Sharma चौहान प्रशस्ति - अजमेर संग्रहालय

Sunday 29 April 2018

ब्रिगेडियर जबरसिंह जी का देहावसान और उनकी धर्मपत्नी उनके साथ चिता में बैठकर सती होना

मेरी जीवन-कथा (ठा. औकार सिंह बाबरा)


मैं तिजारा से जयपुर आया उसके दो दिन बाद ही समाचार मिला कि जोधपुर में ब्रिगेडियर जबरसिंह जी का देहावसान हो गया और उनकी धर्मपत्नी उनके साथ चिता में बैठकर सती हो गई । जोधपुर नगर में सती होने का समाचार प्रसारित होते ही हजारों आदमी सती के दर्शनार्थ घटनास्थल पर पहुँच गये ।
ब्रिगेडियर साहब का दाह संस्कार हवाई अड्डा मार्ग पर सर प्रताप के थङे के पास किया गया । ज्ञातव्य है कि ब्रिगेडियर साहब जबरसिंह सर प्रतापसिंह के दोहिते थे । दाह संस्कार के समय इतनी भीङ इकट्ठी हो गई कि पुलिस स्थिति को नियंत्रण करने में पूर्णतः असफल रही ।
बाद में पुलिस की आलोचना हुई तो कई लोगों के विरुद्ध आपराधिक मामला दर्जे हुआ, उनमें से एक राजा हरीसिंह कुचामण भी थे । उनकी रानी साहिबा जबरसिंह जी की बहन थी, इस रिस्तेदारी के कारण जबरसिंह जी के दाह संस्कार के समय उनका उपस्थित होना स्वाभाविक था । न्यायालय ने अधिकांश आरोपियों को जमानत दे दी क्योंकि वे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनके भाग जाने की कोई संभावना नहीं थी ।
मेरे पास राजा साहब कुचामण का संदेश आया कि इस बात का पता लगाओ कि राज्य सरकार का इस मामले में क्या रुख है । विधायकों के माध्यम से पता चला कि मुख्यमंत्री व्यासजी इस प्रकरण को अधिक महत्व नहीं दे रहें हैं, और इसका कारण यह बताया गया कि व्यासजी की जाति के जाने-माने व्यक्ति और नगर के कई प्रतिष्ठित लोग भी सती स्थल पर उपस्थित थे ।

(पाठकों को प्रसंगवश बता दूँ कि आगे चलकर सन् 1987 में सिकर जिले के दिवराला गाँव में राजपूत महिला रुपकँवर सती हूवे थे, जिनके महिमामण्डन के आरोप में मुझे भी गिरफ्तार किया गया था और मुझे 31 दिन तक जेल में रहना पङा ।
मैंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की जिसका मुकदमा 21 दिन लगातार चला । यह एक तरह का कीर्तिमान था । हाईकोर्ट की दो जजों की खण्डपीठ ने सुनवाई की थी, जिसके एक सदस्य जस्टिस गुमानमल लोढा थे, यह पहले जोधपुर में वकालत करते थे, और ब्रिगेडियर जबरसिंह जी की पत्नी के सती होने के समय घटना स्थल पर पूरे समय उपस्थित थे ।)

Wednesday 25 April 2018

राजमाता नाईकी देवी, पाटन गुजरात - मौहम्मद गौरी का आक्रमण और उसकी हार I

राजमाता नाईकी देवी, पाटन गुजरात - मौहम्मद गौरी का आक्रमण और उसकी हार I


१. राजा धरावर्ष परमार, आबू (1163-12 19 ई.) २. राजा कीर्तिपाल चौहान, जालैर (1161-1182 ई.) ३. राजा केल्हण चौहान, नाडोल (1 164-1 193 ई.) ४. कायंद्रा -कालिन्द्री, आबूका युद्ध (1 178 ई.)

गजनी के सुल्तान आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी का प्रथम प्रयास :- मौहम्मद गौरी ने डेरा इस्माइल खां के पास के गोमल दर्रे से मुल्तान और उच्च होकर गुजरात की राजधानी अन्हिलवाडा (नहरवाला) की ओर रूख किया। उसने पृथ्वीराज चौहान को तटस्थ रखने के लिये उसके पास दूत भेजा परन्तु पृथ्वीराज गुजरात के राजा मूलराज चालुक्य (सोलंकी) द्वितीय की सहायता करना चाहता था परमंत्री कदम्बवास ने उसे ऐसा करने नहीं दिया ।

मुस्लिम सेना ने किराडू (बाड़मेर) होकर नाडोल (मारवाड़) के चौहान राज्य पर अधिकार कर लिया । वह आगे बढ़ कर आबू के पास कालिन्द्री पहुंचा जहां नाडोल के राजा केल्हण चौहान, उसका छोटा भाई जालौर का राजा कीर्तीपाल तथा आबू का राजा धारावर्ष परमार ने उसका सामना किया। नैणसी की ख्यात भाग एक पृष्ठ 152 पर नैणसी कीर्तीपाल को महान राजपूत कहता है।

प्रबंध चिंतामणी के अनुसार इस राजपूत सेना का नेतृत्व गुजरात के बाल मूलराज सोलंकी द्वितीय की माता नाइकी देवी जी गोवा के राजा परमार्दिन की बेटी थी, ने किया था । घमासान युद्ध हुआ और भारी संख्या में तुकों का विनाश हुआ ।

प्रबंध कोष के अनुसार धारावर्ष ने मुस्लिम सेना को बिना रोके घाटी में प्रवेश करने दिया और उनके अन्दर आ जाने पर पीछे से रास्ता रोक कर आगे की तरफ से गुजरात के सोलंकी सेना को उन पर आक्रमण कराया । युद्ध में मोहम्मद गौरी हारा और घायल होकर गजनी लैट गया। इसके बाद फिर कभी वह गुजरात पर नहीं गया । इस विजय के स्मारक स्वरूप आबू के अचलेश्वर मंदिर में लौह स्तम्भ स्थापित किया गया जो अभी भी विद्यमान है ।
The Parmaras – Pratipal Bhatia, Page 176

गोर प्रदेश काबुल कंधार के पश्चिम में था । पहले यहां महायान बौद्ध रहते थे । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 111 से 114)

Monday 8 January 2018

राजा लक्ष्मणदेव परमार (1086-1094 ई.)

राजा लक्ष्मणदेव परमार (1086-1094 ई.)


कुछ प्राचीन अभिलेख राजा लक्ष्मणदेव परमार द्वारा मुसलमानों से युद्ध का उल्लेख करते है जो इब्राहीम गजनवी या उसके पुत्र महमूद के विरूद्ध हो सकते हैं।
सम्भवत: यह नागपुर क्षेत्र के राजा थे जैसा कि नागपुर में इनका शिलालेख मिला है।

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ. पृष्ठ 71)

Thursday 4 January 2018

अनुठी वीरता - अजयराज जी चौहान

अनुठी वीरता जो अन्यत्र ना मिले:-


अजमेर पर चौहान राजवंश का राज था पृथ्वीराज चौहान के पुर्वजों ने ही अजमेर बसाया था । तारागढ़ व गढ़ बिठली जैसे नामों से जाना जाने वाला ये राजपूत शहर प्राचीन था और इसकी गौरव गाथा भी बङी समृद्ध रही है ।अजमेर के बीच झील और पहाड़ियों से घिरा यह शहर उस काल में भी हर किसी को रोमांचित कर देने वाला था तो एक तरफ उँचि पहाङी पर बना सुदृढ़ किला चौहान वंश के यश का बखान करता था ।

इस तराह कि भव्यता के और सुन्दरता होते किसी का मन राज-काज व मोह माया से उठकर भगवान कि भक्ति में लग जाना एक सच्चे क्षत्रिय तक ही सीमित है, हर कोई कर पाये संभव नही ।राजपूत जाति मे कभी भी इतिहास लेखन कि परम्परा नही रही थी इसी लिये उस काल का समयाकन में ठिक ठिक नहीं कर पाऊंगा ।

यह बात है अजयराज जी चौहान कि उस समय बाहरी आक्रमणकारी भारत में प्रवेश कर चुके थे,और उनके मुख्य उद्देश्य धर्म व लूट थे । अजयराज जी ने उम्र के आखिरी पङाव मे राज-काज छोड़ प्रभु भक्ति कि तरफ मुंह किया ।उस जमाने में राजपूत जब इस उम्र में घर त्याग करते तो अपना घोड़ा व तलवार साथ रखते थे और सफेद वस्त्र धारण कर एकांत वास को चले जाते थे ।

अजयराज जी चौहान राज्य भोग से दूर अजमेर कि पहाड़ियों में चले गये ।उस समय मुस्लिम आक्रमणकारीयों द्वारा उस क्षेत्र में गायों को चरवाहो से जबरदस्ती ले जाने कि घटना घटित हुयी । जब अजयराज जी चौहान को यह बात ज्ञात हुयी तो उसी समय उनके वृद्ध शरीर में फिर फुर्ती आ गयी और वह अपनी तलवार और घोड़ा लेकर गाय रक्षार्थ निकल पङे । यह घटना सिर्फ जनश्रुतियों से ही ज्ञात होती है लिखित इतिहास कि कमी के चलते । एक पुरी मुस्लिम सेना कि टुकङी से अकेला वृद्ध राजपूत जा टकराता है और इतना भीषण संग्राम होता है जिसकी कल्पना भी नही कि जा सकती है ।
इसी में वह वीर-गति को प्राप्त होते है ।

सबसे रोचक घटना यहाँ यह है कि उनका सिर युद्ध करते समय अजमेर कि इन्हीं पहाड़ियों में कट जाता है और फिर भी उनका धङ रण जारी रखता है,उनका धङ आक्रमणकारीयों को गुजरात के अंजार जिले तक खदेड़ता है । गुजरात के अंजार जिले मे उनका धङ गिरा और वहाँ भी उनकी समाधी व छतरी बनी हुई है वहाँ भी वह पूजे जाते है,अजमेर के पास जहाँ सिर गिरा यहाँ भी उनकी समाधी व छतरी बनी हुई है यहाँ भी उनकी पुजा होती है । अजमेर से अंजार गुजरात कोई 600-700 किलोमीटर कि दूरी बिना सिर युद्ध करते हुवे जाना किसी क्षत्रिय के ही वश कि बात है अन्यत्र तो एसी कल्पना भी विध्यमान नही है ।

लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल ।