Wednesday 19 August 2015

बजे नंगारे

                                 बजे नंगारे 

बजे नगारे दोउ दल, गजधर गावें नाग ।
रथ अपछर हुरहून दे, नारद सजे सराग ।।

शार्दूल सिंह शेखावत

शार्दूल सिंह शेखावत 


सादूलो जगरामरो सिंहल बुरी बुलाय ।
रामदुहाई फिर गयी ल्हुकती फिरे खुदाय ।।

पुस्तक - हमारी भुलें ।

पुस्तक - हमारी भुलें ।


आधुनिक विश्वामित्र श्री देवी सिंहजी महार साहब ने अपनी महत्वपूर्ण कृति "हमारी भूलें" की भूमिका में लिखा है कि संसार का इतिहास अनेक व्यक्तियों, जातियों धर्मो व राष्ट्रों के उत्थान-पतन के लेखों- जोखों से भरा पड़ा है | उसके अध्यन से जो बात सबसे स्पष्ट रूप से उभर के सामने आती है, वह यह है कि पतन के बाद जिन्होंने आत्म चिंतन का आश्रय लिया, अपनी कमियों को स्वीकार किया व अपनी भूलों को सुधारने के लिए जो तैयार हुए, उन्होंने समय पाकर अपनी समृधि को पुनः प्राप्त कर लिया |



इसके विपरीत जो व्यक्ति समाज अथवा राष्ट्र पराभव के बाद शोक मग्न हुए अपने भाग्य को कोसते रहे तथा अपने पूर्वजों कि गौरव गाथाओं को मात्र गाकर ही संतोष करते रहे, उनका नामो निशान ही उठ गया |
आज हम हमारी भूलों पर विचार करने के लिए तैयार है | उस कार्य को आत्मनिंदा या परनिंदा के द्रष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि आत्मचिंतन करते समय व्यक्ति व समाज को उन समस्त परिस्थितियों पर विचार करना पड़ता है, जिनके अंदर से गुजरने का समाज को अवसर मिला, उस समय जो भी त्रुटियाँ रही उनका विवेचन आत्म चिंतन ही कहा जायेगा और इस कार्य को किये बिना कोई भी पुनरोत्थान कि कल्पना नहीं कर सकता |

आत्म चिंतन कर अपनी भूलों को निकलना, उन्हें स्वीकार करना व भविष्य में उनसे बचे रहने की चेष्टा करना अत्यंत दुष्कर कार्य है | मानव स्वभाव अपने आपको दोषी स्वीकार करने का अभ्यस्त नहीं है | दोष को स्वीकार करने से उसके अहंकार पर आगात लगता है | समय के साथ व्यक्ति व समाज कुछ मान्यताओं में अपने आपको बाँध लेता है, जिनमे सदा सदा के लिए व अपने आपको बांधे रखने में सुख का अनुभव करता है, व इन मान्यताओं के विरुद्ध यदि कोई व्यक्ति कुछ बोलता है या कहता है तो ऐसा व्यक्ति उसे शत्रु-वत प्रतीत होता है | इस प्रकार आत्म चिंतन का मार्ग अत्यंत कठोर कार्य है |



आत्म चिंतन का आरम्भ करते हुवे विचारक को सबसे पहले अपने ही विचारों से संघर्ष करना पड़ता है | उन पर विजय प्राप्त करने के बाद जैसे ही वह अपना मुख समाज के सामने खोलने की चेष्टा करता है | उसको समाज के विद्रोह का सामना करना पड़ता है | क्योंकि लम्बे समय तक चले आने वाले कार्य उसे संस्कार (जो वास्तव में कुसंस्कार हैं) का रूप धारण कर लेते है, तथा कमजोर व विकृत विचार भी रुढी का बल पाकर अपने आप को बलवान समझने लगते है | यद्यपि ऐसे विचार समय के द्वारा तिरस्कृत होकर सर्वथा त्यागने के योग्य सिद्ध होते है फिर भी व्यक्ति व समाज केवल रूढ़ी ग्रसिता के कारन उनको छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता |

वर्तमान काल में जब हम समाज व उनके नेतृत्व की और दृष्टि डालते है | तो समाज को पूर्ण रूप से पंगु व नेतृत्व की और दृष्टि डालते है | तो समाज को पूर्ण रूप से पंगु व नेतृत्व से विहीन पाते है | क्षत्रिय व क्षात्र धर्म का नारा देकर समाज को एकत्रित व संघठित करने का अनेक बार, अनेक प्रकार से, अनेक लोगों ने प्रयास किया है, किन्तु सामजिक परिस्थितियों, समाज के अभावों, व पतन करने के कारणों का विवेक सम्मत विश्लेषण करने का प्रयास लगभग नगण्य रहा है |


सन् १९४७ में क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना समाज चिंतन के दृष्टिकोण से इस युग की एक एतिहासिक घटना है | जहाँ पर बैठ कर लोगों ने सामजिक दृष्टिकोण से सोचने व अपनी कमियों को देखने का कार्य आरम्भ किया | स्वर्गीय तनसिंह जी व आयुवान सिंह जी ने समाज चिंतन को जागृत करने व उसे आगे बढ़ाने में जो महत्वपूर्ण योगदान किया, उसके लिए समाज को उनका कृतज्ञ रहना चाहिए |

किन्तु खेद का विषय यह है कि समाज चाहे कठिनाई से ही तैयार हों लेकिन नए विचारों को स्वीकार कर उनको पीछे चलने के लिए तो तैयार हो जाता है लेकिन आत्म चिंतन का मार्ग अपनाने से हमेशा कतराता रहता है | इसी का परिणाम आज हमारे सामने है |

जिन नवीन विचारों ने नई दिशा दृष्टि को उन विचारों को सृजित किया था, उसको आगे बढ़ना तो दूर रहा, उन्ही विचारों को विचार क्रान्ति के रूप में परिवर्तित करने में समाज के कार्यकर्ता पूर्ण रूप से असफल रहे है |



विचार एक धारा है | धारा का धर्म सतत गतिशील रहना है | इस धर्म को जो स्वीकार नहीं करते उसे हम धारा नहीं कह सकते | इसीलिए विचार से अधिक महत्व विचार धारा को दिया जाता है | एक विचार को स्वीकार कर, उस पर स्थिर हो जाना किसी समय विशेष में उपयोगी सिद्ध हो सकता है |

किन्तु समय बीतने पर ऐसे लोग रूढ़िवादी ही कहे जायेंगे | विचार का प्रायोजन ही निरंतर विकास की और आगे बढ़ना है | यदि विचार में गति नहीं है तो वह विचार, उसको धारण करने वाले व्यक्ति के विनाश का हेतु होगा | 

पितामह भीष्म का मत है, कि जिस प्रकार मिट्टी को पीसते रहने पर उसके बारीक होने का क्रम जारी रहता है , उसी प्रकार विचार को गतिशील बनाये रखने से ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता चला जाता है | इस क्रम का कहीं अंत नहीं होता |

इसलिये विचारशील व्यक्ति अपने आपको कभी पूर्ण नहीं मानता | वह यह भी दावा नहीं करता, कि जो कुछ कहा है वही सत्य है, क्योंकि वह जानता है, कि इस क्षेत्र में हर क्षण आगे बढ़ने व नए अनुभवों को ग्रहण करने कि संभावना विद्यमान है | जी लोग केवल विचारक है कर्म के प्रति जिनकी रुचि नहीं है, उनसे समाज को अधिक प्राप्त करने कि आशा नहीं लगनी चाहिए | क्योंकि विचार को पूर्णता प्रदान करने के लिए अध्यन, मनन, कर्म का अनुभव तथा अनुभवी व सत्य पर स्थित लोगों का संग आवश्यक है | इनमे से किसी एक का भी अभाव विचार पूर्णता को प्राप्त नहीं करता | 


अतः यह आवश्यक है कि समाज चिंतन को जागृत करने व उसे आगे बढ़ाने के लिए लोगों को उपरोक्त सभी साधनों का आश्रय लेना चाहिए, उसके बिना जो लोग समाज जागरण या समाज को संगठित करने कि कल्पना करते है, उनकी चेष्टाएँ हमेशा निष्फल ही सिद्ध होंगी |
समाज के अधिकांश लोग आज समाज के संघठन कि बात करते है व अपनी कार्य शैली को इस कार्य के निमित्त लगा देने का दावा करते है | ऐसे लोगों के होते हुए भी आज समाज में कोई भी संघठन न तो वास्तविक रूप में संघठित ही है, और न ही गतिशील ही है | सभी संघठनो के लोग निराशा के गहरे गर्तों में गोते लगाते दिखाई दे रहे है व इसके लिए वे एक दुसरे को दोषी ठहरा रहे है | इस सब के पीछे कारण क्या है ? 

कारण स्पष्ट है लोग बिना अपने आपको बदले समाज को बदलना चाहते है | लोग बिना कष्ट उठाये सुख भोगने कि कल्पना में डूबे हुए है | शारीरिक कर्म से मानसिक कर्म अधिक कष्ट दायक व दुष्कर है | लोगों को जब विचार चिंतन, व मनन, कि बात कही जाती है तो उसका उत्तर होता है कार्यकर्ता को कार्य चाहिए, विचार करना नेताओं का धर्म है | ऐसे लोगों को विचार के लिए तैयार करना एक कठिन कार्य है, जिसमे फंसे बिना लोग संघठन के कार्य में जुट पड़ते है व समय व्यतीत होने पर देखते है कि उनके कार्यकर्ताओं का उत्साह भंग हो चूका है |



कार्य में आरम्भ से लेकर अंत तक एकरूपता व सामान रस बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि कार्यकर्ताओं में उत्साह निरंतर बना रहे | भावनाओं को उभार कर या परिस्थितियों का भय दिखाकर समय विशेष पर लोगों को उत्साहित कर कार्य को सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु जीवन पर्यन्त साधना के लिए, यह पर्याप्त सिद्ध नही हो सकते |

क्योंकि कामनाओ को आघात पंहुचाते ही उत्साह के स्थान पर शोक उपस्थित होता है | परिणामतः लोग एक दूसरे में दोष दृष्टि की स्थापना कर कर्म विमुख होने लगते है |

अतः आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है विचार क्रान्ति | सारे समाज को विचारशील बनाकर उसको आगे बढाने के लिए तैयार करना पड़ेगा | विचार व कर्म के सामंजस्य से उत्पन्न होने वाले नवीन अनुभव ही कार्यकर्ता के लिए संजीवनी शक्ति का कार्य कर सकते है | इस क्रम के चालु रहने पर लोगों की निरंतर नवीन प्रेरणा का सहारा मिलता रहेगा | जिससे उनका उत्साह कभी भंग नहीं होगा |

अतः यहीं से हम आत्म चिंतन के अध्याय को आरम्भ करते है | पहले हम हमारी भूलों को देखने व समझने का प्रयास करेंगे | उसके बाद उस संजीवनी शक्ति की खोज करेंगे, जिसको प्राप्त कर हमारे पूर्वजों ने अमरत्व व अक्षय यश प्राप्त किया था | यही होगा हमारी विचार क्रान्ति का पहला चरण ।
तो हम आज अपनी कमियों को अपनी भूलों को दूर करने के लिए कटिबद्ध हुएं ताकि क्षात्र धर्म के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ने हेतु हम संस्कारित हों। संस्कार जैसे कि पूर्व के अध्याय में विस्तृत रूप से परभाषित किया जा चुका है अतः क्षात्र धर्म ही हमारा संस्कार है।

Friday 7 August 2015

मेङतिया राठौङ !

मेड़तिया राठौङो  की 26 खापें और ठिकाने, मेड़तिया राठौङो की खापें और ठिकाने :-


जोधपुर के शासक जोधा के पुत्र दूदाजी के वंशज मेड़ता के नाम से मेड़तिया कहलाये, दूदाजी का जन्म जोधा की सोनगरी राणी चाम्पा के गर्भ से 15 जूं 1440 को हुआ !

दूदाजी  ने मेड़ता को विशेष आबाद किया, इसमें उनके भाई बरसिंह का भी साथ था ।
बरसिंह व दूदाजी जी ने सांख्लों (परमार ) से चौकड़ी, कोसाणा आदी जीते ।
बीकाजी द्वारा सारंगखां के विरुद्ध किये गये युद्ध में दूदाजी ने अद्भुत वीरता दिखाई ।
मल्लूखां ( सांभर का हाकिम ) ने जब मेड़ता पर अधिकार कर लिया था ।
दूदाजी, सांतल, सूजा, बरसिंह, बीसलपुर पहुंचे और मल्लूखां को पराजीत किया ।
मल्लूखां ने बरसिंह को अजमेर में जहर दे दिया जिससे बरसिंह की म्रत्यु हो गयी उनका पुत्र सीहा गद्धी पर बैठे और इसके बाद मेड़ता दूदाजी और सीहा में बंटकर आधा २ रह गया |

इसके बाद दूदाजी के पांच पुत्र वीरमदेव, रायमल, रायसल, रतनसिंह और पंचायण थे ।
मीराबाई रतन सिंह की पुत्री थी, रतनसिंह कूड़की ठिकाने के स्वामी थे ।

शरफुधीन ने 1563 ईस्वी में मेड़ता पर आक्रमण किया तब पंचायण इस युद्ध में मारे गए ।

दूदाजी के पुत्र वीरमदेव ईसवी 1515 में मेड़ता की गद्धी पर बैठे, इनका जन्म 19 नवम्बर 1477 को हुआ । वीरमदेव अपने समय के उद्भट योधा थे |
17 मार्च खानवा में बाबर व् सांगा के बीच हुए युद्ध में वीरमदेव ने राणा सांगा का साथ दिया, राणा सांगा की मूर्छित अवस्था के समय वे भी घायल थे । इस युद्ध में उनके भाई रायमल व् रतनसिंह भी मुगल सेना से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त हुए ।

जोधपुर के राजा मालदेव मेड़ता पर अधिकार करना चाहते थे, वीरमदेव ने 1536 ईस्वी में अजमेर पर भी अधिकार कर लिया था । मालदेव ने अजमेर लेना चाहा पर वीरमदेव ने नहीं दिया तब मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया । मालदेव का मेड़ता पर अधिकार हो गया । कुछ समय बाद मालदेव का अजमेर पर भी अधिकार हो गया ।
तब वीरमदेव रायमल अमरसर के पास चले गए | वीरमदेव आपने राज्य मेड़ता पर पुनः अधिकार करना चाहते थे अतः वीरमदेव रणथम्भोर की नवाब की मदद से शेरशाह के पास पहुँच गए । और मालदेव पर आक्रमण करने के लिए शेरशाह को तैयार किया |

बीकानेर के राव कल्याणमल भी मालदेव द्वारा बीकानेर छीन लेने के कारन मालदेव के विरुद्ध थे, उन्होंने भी शेरशाह का साथ दिया ।
शेरशाह को बड़ी सेना लेकर जोधपुर की तरह बढ़ा और विक्रमी संवत 1600 ईस्वी 1544 में अजमेर के पास सुमेल स्थान पर युद्ध हुआ । मालदेव पहले हि मैदान छोड़ चूका था । जैता और कुम्पा शेरशाह के सामने डटे रहे परन्तु मालदेव की सेना को पराजीत होना पड़ा । इस युद्ध के बाद वीरमदेव ने मेड़ता पर पुनः अधिकार कर लिया । वीरमदेव की म्रत्यु फाल्गुन विक्रमी संवत 1600 को हुयी |

इनके 10 पुत्र थे, 
१. जयमल 
२. ईशरदास 
३. करण 
४. जगमाल 
५. चांदा
६. बीका ( बीका के पुत्र बलू को बापरी  सोजत ) चार गाँवो से मिला 
७. प्रथ्वीराज ( इनके वंशज मेड़ता में रहे )
८. प्रतापसिंह 
9. सारंगदे 
१०. मांडण

१. जयमलोत मेड़तिया :-
वीरम दुदावत के पुत्र जयमल बड़े वीर थे, इनका जन्म 17 सिप्तम्बर 1507 को हुवा !

ई.स. 1544 ( विक्रमी 1600) में मेड़ता के स्वामी बने मालदेवजी जोधपुर ने मेड़ता पर आक्रमण किया परन्तु उन्हें पराजीत होना पड़ा, मालदेव मेड़ता छीनना चाहते थे, उन्होंने फिर ई. स. 1557 में मेड़ता पर आक्रमण किया और मेड़ता पर अधिकार कर लिया । उन्होंने आधा मेड़ता जयमल के भाई जगमाल को दे दिया ।

जयमल अकबर की सेवा में चले गए, और सहायता पाकर पुनः 1563 ई.वि. 1620 में मेड़ता पर अधिकार कर लिया |
इन्होने अकबर के विद्रोह सरफुधीन को शरण दी । अतः अकबर की सेना ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया । जयमल उदयसिंह के पास चितोड़ चले गए |
उदयसिंह ने इनको बदनोर का ठिकाना प्रदान किया । अकबर ने मगसिर वदी 6 वि.1624 को चितोड़ का घेरा डाला । संकट की इन घड़ियों में उदयसिंह को भेजकर चितोद की रक्षा का भार आपने पर लिया । अकबर की सेना से लड़ते हुए यहीं इन्होने वीरगति प्राप्त की |

इन्ही प्रसिद्ध जयमल के सुरताण, केश्वदाश, गोयंददास, माधवदास, कल्याणदास, रामदास, विठलदास, मुकंद्दास, श्यामदास, नारायणदास, नरसिंहदास, द्वारकादास, हरिदास व शार्दुल 14 पुत्र थे । बहादुरसिंह बीदासर ने अनोपसिंह अनोपसिंह नामक ऐक और पुत्र भी लिखा है |

२. सुरतानोत मेड़तिया :-
वि.सं. 1624 में हुए चितोड़ के तीसरे शाके में जयमल वीरगति प्राप्त हुए । उनके बड़े पुत्र सुरताण महाराणा उदयसिंह की सेवा में उपश्थित हुए । बदनोर पर तो अकबर का अधिकार हो गया । अतः उदयसिंह ने सुरतान को गढ़बोर गाँव प्रदान किया । इसके बाद  सुरतान मेड़ता प्राप्त करने के लिए अकबर के पास जा रहे । उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर अकबर ने उन्हें मेड़ता दे दिया |
इन्ही सुरतान के वंशज सुरतानोत मेड़तिया कहलाये ।
सुरतान के दो पुत्र भोपत व् भाण उग्रसेन ( बांवाड़ा शासक ) के समय बाँसवाड़ा राज्य में चले गए तथा ऐक पुत्र हरिराम डूंगरपुर राज्य में जा रहे ।
मारवाड़ में सुर्तानोतों के लवणों ( २ गाँव ) गूलर( पांच गाँव ) रोहिणी ( चार गाँव ) बाजुवास( दो गाँव ) जावलो( तीन गाँव ) जालरो ( सात गाँव ) भटवरी (पांच गाँव ) इनके अलावा जझोलो, सील भखरी,किशनपुरा आदी ऐक -ऐक गाँव के ठिकाने थे |

३. केशवदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र थे, अकबर ने इन्हें आधा मेड़ता दिया ।
वि.सं. 1655 में गोपालदास के साथ शाही सेना के साथ पक्ष में लड़ते हुए बीड़ की लड़ाई में काम आये ।
बाद में मेड़ता जोधपुर के सूरसिंह को दे दिया गया, यही से मेड़ता से मेद्तियों का राज समाप्त होता है ।

इन्ही केशवदास के वंशज केशव्दासोत को 22 गाँवो सहित केकिद मिला ।
केशवदास के दुसरे पुत्र गिरधरदास को परवतसर का पट्टा मिला, परवतसर के बाद में केशवदास मेड़तीयों का बदु तेरह गाँवो का ठिकाना था । इसके अतिरिक्त सबेलपुर ( ७ गाँव ) बोडावड(चार गाँव ) बुडसु (नो गाँव ) मडोली तथा बरनेल ,बणाग़नो ,चितावो,उंचेरियों,लाडोली ,कालवो( दो गाँव )आदी ऐक गाँव के ठिकाने थे |

४. अखेसिंहोत मेड़तिया :-
केशवदास के बाद क्रमशः- गिरधरदास, गदाधर, श्यामसिंह व् अखेसिंह हुए ।
इन्ही अखेसिंह के वंशज अखेसिंहोत मेड़तिया कहलाये ।
बुड़सु, खीदरपुर कुकडदो, तथा चाँवठिया इनके मुख्या ठिकाने थे, इनके अतिरिक्त टागलो, खोजावास, बीदयाद, डोडवाडो, जूसरियो, तोसीनो आदी छोटे -छोटे ठिकाने थे |

चिडालिया नागौर से दो भाई देवीसिंह व् डूंगरसिंह घोड़ों पर सवार हेदराबाद पहुंचे जिसमे की देवीसिंह वहीँ पर पिछड़ गए !
डूंगर सिंह ने अपनी वीरता से निजाम हेदराबाद को प्रसन्न किया निजाम ने उन्हें सर्फे खास व् नज्म की उपाधियाँ दी । १ हाथी 100 घोड़े और 100 सिपाही रखने की इजाजत दी ।
राठोड़ों का बेड़ा स्थापित करने की जगह दी । वर्तमान में डूंगर सिंह के ७ वें वंशज प्रेमसिंह प्रतिष्टित राठोड़ है |

५. अमरसिहोत मेड़तिया:-
अखेसिंह के बड़े पुत्र अमरसिंह के वंशज !
मैनाणा, इनके सात गाँवो का मुख्या ठिकाना था, इसके आलावा रोडू विरड़ा ( ६ गाँव ) तथा डासानो खुर्द व टांगलो ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे |

६. गोयंददासोत मेड़तिया :- 
वीरम के पुत्र जयमल के पुत्र गोयंददास के वंशज । 
भावतो ( 31 गाँवो ) का ठिकाना था, इनके हिस्से थे । इनके आलावा परगना मारोठ, परवतसर नागौर मेड़ता (कुछ गाँवो में ) के बहुत से गाँवो में इनकी जागीरी थी । 
गेड़ी (मेड़ता परगने के तीन गाँव ), सरनावड़ो (मेड़ता नागौर व् परवतसर परगनों के ६ गाँव ), डोभड़ी ( मेड़ता परगने के दो गाँव ), इटावा, लालो, इटावा खिंचिया, जसवंतपुरा, दुमोई बड़ी, दुमोई खुर्द, पालडी राजां, डोभड़ी, खुर्द, रामसियो, खुडी, रामसियो खुडी, राथीगाँव, नौरंगपूरा, भवाद, पोली, बेहडवो, झाड़ोद आदी ऐक ऐक गाँव के कई ठिकाने थे ।

खरेस आदी नाथसिंहोत के ठिकाने थे, गोयंददास के पुत्र नाथुसिंह के नाथूसिहोत है ।

७. रघुनाथसिहोत मेड़तिया :-
गोयन्द्दास के पुत्र सांवलदास के पुत्र रघुनाथसिंह थे, रघुनाथसिंह बड़े वीर थे । ओरंगजेब के समय में इन्होने 1715 वि.में गोड़ों से मारोठ का परगना छीन लिया । इनके वंशज  एंव रघुनाथसिहोत मेड़तिया कहलाये ।
मारोठ परगने में भावतो(13 गाँव ), घाटवो(11 गाँव ), नरोंणपूरा(15 गाँव ), नडवो(6गाँव ), वासा(७गाँव ), मगलानो गढ़ों(१० गाँव ), झिलियो(14 गाँव ), सरगोठ(13 गाँव ), कुकडवाली(५ गाँव ), लिचानो(५ गाँव ), जव्दी नगर(७ गाँव ), !
मीठड़ी(नावां ), परवतसर मारोठ नागौर व् मेड़ता तीनो परगनों के 15 गाँव, करोप (मेड़ता व् दौलतपुरा परगना के तीन गाँव ), खारठीयो(नावां परगना दो गाँव ), चालुखो(नागौर वा दौलतपुरा परगना के दो गाँव ), नीबी(दौलतपुरा व् नागोर परगना के ६ गाँव ), अलतवो(मेड़ता परगना के दो गाँव ), डोडीयानो(मेड़ता परगना के ६ गाँव ), पीपलाद(परबतसर परगने के ४ गाँव ), लापोलाई(मेड़ता वा परबतसर परगने के ३ गाँव ), भाद्लिया (मेड़ता, दौलतपुरा और परबतसर परगना के तीन गाँव ), आछोनाइ(मेड़ता परगना के तीन गाँव ), लूणवो(मारोठ परगने के ८ गाँव ), पांचवा(मारोठ परगने के 13 गाँव ), नीबोद (दौलतपुरा वा मारोठ परगने के तीन गाँव ) आदी इनके बड़े ठिकाने थे तथा ऐक गाँव वाले काफी ठिकाने थे |

८. श्यामसिहोत मेड़तिया :- 
जयमल के पुत्र गोयंददास के बाद क्रमशः सांवलदास व् श्यामसिंह हुए, इन्ही श्यामसिंह के वंशज श्यामसिहोत मेड़तिया कहलाये । शेखावाटी (राजस्थान ) के बगड़ और अव्गुणा गाँवो में निवास करते है । नागौर जिले में रेवासा , भूरणी व् नावा में है |

9. माधोदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र माधोदास बड़े वीर थे । इहोने कई युद्धों में भाग लिया और वि.सं .1656 में मुगलों से लड़ते हुए काम आये । इन्ही के वंशज माधोदासोत मेड़तिया कहलाये ।
मेड़ता परगने में रीया इनका मुख्या ठिकाना था । इनके अलावा मेड़ता परगने में बीजाथल (तीन गाँव ), चीखरणीयो बड़ो  (२ गाँव ), चापारुण ( पांच गाँव ), आलणीयावास (चार गाँव ), बलोली ( २ गाँव ), चानणी बड़ी ( २ गाँव ), धीरड (दो गाँव ) तथा जाटी, मेडास, ईड्वो, धोलेराव, पोलास, गोडेतिया, नैणीयो, गोठडो, सुरियाल, भैसडो, कीतलसर, बिखरणीयो, भाडली,बुताटी, बलोली, चुई, डोभड़ी, बरसणु, लंगोड़, आदी ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे ।
बीकानेर राज्य में खारी माधोदासोतों का ऐक छोटा सा ठिकाना था, चूर जिले के भेंसली गाँव में भी रहते है |

१०. कल्याणदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र कल्याणदास को सुरतान द्वारा रायण की जागीर मिली । मोटे राजा उदयसिंह की और से वि.1652 में खेरवा का पट्टा मिला । कालणा, बरकाना, कला रो बास आदी इनके ठिकाने थे |

११. बिशनदासोत मेड़तिया :-
कल्याणदास जयमलोत के पुत्र बिसनदास के वंशज बिशनदासोत मेड़तिया कहलाते है । बिशनदास अपने समय के प्रतिभा व्यक्ति थे । इनके मुख्य ठिकाने में खोडखास (५ गाँव )अमरपुर (दो गाँव )बोरुदो ( दो गाँव ) तथा तामडोली, बरनो, चोसली, जगड़बास, तिलानेस, मयापुर, चुवो, राजलियावास, मीदीयान आदी ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे |

१२.रामदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र रामदास हल्दीघाटी के युद्ध (ई.1576) में वीरगति को प्राप्त हुए । इनके वंशज रामदासोत मेड़तिया कहलाये है । ये मवाद क्षेत्र में है |

13.बिट्ठलदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र बिट्ठलदास के वंशज । नीबी खास इनका दो गाँवो का ठिकाना था । इनके आलावा लूणसरा, इग्योर  आदी मारवाड़ में इनके ठिकाने थे । 
बिट्ठलदास के पुत्र मनोहरदास मवाद में जाकर रहे । मेवाड़ में दांतड़ा इनका ठिकाना था |

14. मुकंददासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र मुकुंद्दास को जयमल के चितोड़ में 1624 वि.में वीरगति पाने पर उदयसिंह ने गढ़बोर की जागीरी दी और जब मुगलों का बदनोर से अधिकार हट गया तब इन्हें बदनोर का ठिकाना मिला । इन्ही के वंशज मुकुंद्दासोत मेड़तिया कहलाये । ये बड़े वीर थे । वि.सं .1663 में परवेज द्वारा मेड़ता पर आक्रमण के समय वे इसके विरुद्ध बहादुरी से लड़े और वीरगति प्राप्त की ।
मेवाड़ में बदनोर के आलावा उनके वंशज रूपहेली, डाबला, नीबाहेड़ा, जगपुरा आदी इनके ठिकाने थे |

15. नारायणदासोत मेड़तिया :- जयमल के पुत्र नारायणदास के वंशज |

16. द्वाराकदासोत मेड़तिया :- 
जयमल के पुत्र द्वारकादास अकबर की सेवा में रहे । वि.सं.1655 में वे शाही सेना की और से लड़ते हुए दक्षिण में बीद नामक स्थान पर काम आये । इन्ही के वंशज द्वारकादासोत मेड़तिया हुए । बछवारि इनका मुख्य ठिकाना था |

17. हरिदासोत मेड़तिया :- जयमल के पुत्र हरिदास के वंशज |

18. शार्दुलोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र शादुर्ल के वंशज शार्दुलोत मेड़तिया कहलाये । मेवाड़ में धोली इनका ठिकाना था |

19. अनोप्सिहोत मेड़तिया :- जयमल के पुत्र अनोपसिंह के वंशज । चानोद इनका ठिकाना था|

२०. ईशरदासोत मेड़तिया :-
वीरम के पुत्र ईशरदास बड़े वीर थे । चितोड़ के युद्ध में वे जयमल के साथ थे । अकबर के मधु नामक हठी के खांडा मारकर उसका दांत पकड़ लिया था और युद्ध करते हुए काम आये । इन्ही के वंशज ईशरदासोत मेड़तिया कहलाये । इनके वंशजों के अधिकार में बीकावास, सुमेल, खरवो, आदी ठिकाने |

21.जगमलोत मेड़तिया :-
वीरम के पुत्र जगमाल मालदेव को सेवा में रहे । मालदेव ने जयमल से मेड़ता लेकर आधा भाग जगमाल को दे दिया । जयमल ने फिर मेड़ता पर अधिकार कर लिया । बादशाह अकबर ने मेड़ता फिर छीन लिया और जगमाल को दे दिया इन्ही जगमाल के वंशज जगमलोत मेड़तिया हुए ।
ड्सानो, बड़ो, घिरडोदो, जेसला, कुडली, छापरी बड़ी, राठील, दाउदसर, बनवासी, भांडासर, घिरडोदी, डडी, माना री ढाणि आदी इनके ठिकाने थे |

22. चांदावत मेड़तिया :-
वीरमदेव के पुत्र चांदा ने बाझाकुंडो की भूमि पर अधिकार कर वि.सं.1603 में बलुन्दा को आबाद किया । चांदा राव मालदेव की सेवा में रहे । मालदेव द्वारा मेड़ता पर आक्रमण करते समय चांदा उनके साथ में थे । मालदेव के भयभीत होने पर उन्होंने जोधपुर पहुँचाया ।
राव मालदेव ने उन्हें ऐक बार आसोप और रास का पट्टा भी दिया था । हुसेन कुलिखां द्वारा जोधपुर पर आक्रमण करने के समय चांदा चन्द्रसेन के पक्ष में लड़े । नागौर के सुबायत हुसेन अली से भी कई लड़ाइया लड़ी । नागौर के नवाब ने उन्हें धोखे से मारना चाहा । इस षड़यंत्र में चांदा तो मरे पर नवाब को भी साथ में लेकर मरे ।
बलुन्दा इनका मुख्या ठिकाना था, धनापो, दूदड़ास, सूदरी, कुडकी, डाभडो, खानड़ी, बडवालो, सेवरीयो, आजडाली, लाडपूरा, सुंथली, हासीयास, पूजीयास, लायी, मुगधडो, देसवाल, नौखा, नोवड़ी, ओलादण, गागुरडो, मागलियास, डोगरानो, अचाखेड़ो, रेवत, रोहल, छापर बड़ी, पीड़ीयो, रोहीना, बसी, सिराधनो, बाखलियाच, चिवली आदी ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे ।
मेवाड़ के शाहपुर राज्य में खामोर चांदावतों का ठिकाना था । ये बलुन्दा ठिकाने से शाहपुरा गए |

23. प्रताप्सिहोत मेड़तिया :-
वीरमदेव के पुत्र प्रतापसिंह महाराणा उदयसिंह चितोड़ के पास रहे । 1624 विक्रमी में अकबर ने चितोड़ पर आक्रमण किया । उस युद्ध में जयमल के साथ वीरगति हुए । इन्ही के वंशज प्रतापसिहोत मेड़तिया हुए ।
इनके तीन पुत्र गोपालदास, भगवानदास, हरिदास थे ।
गोपालदास ने हल्दी घाटी व् कुम्भलगढ़ के युद्ध्दों मे वीरता दिखाई अतः राणा ने इनको घानोराव का इलाका प्रदान किया |

24.गोपिनाथोत मेड़तिया :-
वीरमदेव के पुत्र प्रतापसिंह के बाद क्रमश गोपालदास, किशनदास, दुर्जनसाल व् गोपीनाथ हुए ।
पिता दुर्जनशाल के बड़े पुत्र होने के कारन इन्हें घानोराव प्राप्त हुआ । घानोराव ऐक छोटा सा राज्य था । गोपीनाथ ने जयसिंह व् उनके पुत्र अमरसिंह के बीच हुए मन मुटाव को मिटाया । महाराणा ने इनको खीमेल, नीपरड़ा, अरसीपूरा, राजपुरा, खारडा, टीपरी, वरकाणा आदी गाँव प्रदान किये |
इनके अतिरिक्त मारवाड़ में नादानो बड़ो (25 गाँव ) चानोद(21 गाँव ) कोसेलाव (४ गाँव ) बरकानो (८ गाँव ) फालनों (८ गाँव ) व् सिदरड़ी ऐक गाँव के ठिकाने थे |

25. मांडनोत मेड़तिया :-
वीरमजी के पुत्र मांडण सोलंकियों के विरुद्ध लड़ते बरहड़ा के युद्ध में मरे गए । इन्ही के वंशज मांडनोत मेड़तिया कहलाये |

26.रायमलोत मेड़तिया :- 
मेड़ता राव दूदा के पुत्र रायमल को वीरमदेव ने रायाण का पट्टा प्रदान किया । यह इनका मुख्य ठिकाना था । विक्रमी 1583 के खानवा युद्ध में महाराणा सांगा के पक्ष में आपने भाई वीरमदेव के साथ यह भी युद्ध में लड़े और वीरगति पायी |
इन्ही के वंशज रायमलोत मेड़तिया कहलाये । रायमल के ऐक पुत्र अर्जुन व् उसके भतिज रूपसी चितोद के तीसरे शाके के समय वि.सं.1624 में काम आये ।
रायाणा के अलावा ढावो, जोरोडो, पडो, जालू, बासणी, जाल, बारवलो, जनस्वास, देवालोमोसो, मीठड़ीया आदी इनके ठिकाने थे |

Thursday 6 August 2015

हठिलो राजस्थान

हठिलो राजस्थान 



सिर देणो रण खेत मैं, स्याम-धरम हित चाह ।
सुत देणो मुख मौत मैं, इण घर रूङी राह ।।

अर्थात् -
रण-क्षेत्र में अपना मस्तक अर्पित करना, स्वामी का हमेशा हित चिन्तन करना व अपने पुत्रों को भी स्वधर्म पालन के लिए मौत के मुँह में धकेलना इस राजस्थान की धरती की परम्परा रही है ।।

लेखक - आयुवानसिंह हुडील

Sunday 2 August 2015

राजस्थानी भाषा

                   राजस्थानी भाषा


जद-जद भारत मे था सता-जोग, आफत रि आँन्धी आयी हि,
बक्तर रि कङिया बङकि हि जद, सिन्धु राग सुनायी हि ।।

गङ गङिया तोपा रा गोला, भाला रि अणिया भलकि हि।
जोधा री धारा रक्ता ही, धारा रातम्बर रळकी ही ।

अङवङता घोङा उलहङता, रङवङता माथा रण खेता ।
सिर कटिया सुरा समहर मे, ढाला-तलवारा ले ढलता ।

रणबँका राठौङ भिङे, कि देखे भाल तमाशा है ।
उण बकत हुवे ललकार अठे, बा राजस्थानी भाषा है ।।

पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण !

ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान !!

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण !
ता ऊपर सुल्तान है, मार मार मोटे तवे मत चूके चौहान !!


अबकी चढ़ी कमान, को जानै फिर कब चढे !
जिनि चुक्केचौहान, इक्के मारे इक्क सर !!

Saturday 1 August 2015

बुन्देलखण्ड


                                                   बुन्देलखण्ड :-




"बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में !
पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में !!

आल्हा-ऊदल गढ महुबे के, दिल्ली का चौहान धनी !जियत जिंदगी इन दोनों में तीर कमानें रहीं तनी !!

बाण लौट गा शब्दभेद का, दाग लगा चौहानी में पानीदार यहां का पानी, आग यहां के पानी में"

कटारी


कटारी अमरेश री, पदमै री तरवार ।
सेल रायासाल रो, सररावै संसार ।।

जौर जी चांपावत

                                                                             जौर जी चाम्पावत

जोरजी चांपावत कसारी गांव के थे, जो जायल से 10 किमी खाटू सान्जू रोड़ पर है जहा जौरजी की छतरी भी है । जोधपुर दरबार एक फोरेन से बन्दूक मंगाई थी और दरबार मे उसका बढ चढ कर वर्णन कर रहे थे संयोग से जौरजी भी दरबार मे मौजूद थे । दरबार ने जोरजी से कहा, देखो जोरजी ये बन्दूक हाथी को मार सकती है । जोरजी ने कहा, इसमे कोनसी बड़ी बात है हाथी तो घास खाता है ।

दरबार ने फिर कहा, ये शेर को मार सकती है..
जोरजी ने कहा, शेर तो जानवर को खाता है ।

इस बात को लेकर जोरजी और जोधपुर दरबार मे कहा सुनी हो गयी...तब जोरजी ने कहा, मेरे पास अगर मेरे मनपसंद का घोड़ा और हथियार हो तो मुझे कोई नही पकड सकता चाहे पुरा मारवाड़ पिछे हो जाय..तो जोधपुर दरबार ने कहा आपको जो अच्छा लगे वो घोड़ा  ले लो और ये बन्दुक ले लो...जोरजी ने वहा से एक अपने मनपसंद का घोड़ा  लिया और वो बन्दुक ले कर निकल गये..और मारवाड़ मे जगह जगह डाका डालते रहे ।

जोधपुर दरबार के नाक मे दम कर दिया। दरबार ने आस पास की रियासतो से भी मदद ली पर जोरजी को कौई पकड़ नही पाये ।तब ये दोहा प्रचलित हुआ ।

'"चाम्पा थारी चाल औरा न आवे नी,
बावन रजवाङा लार तु हाथ कोई के आवे नी ।"

फिर दरबार ने जोरजी पर इनाम रखा की जो उनको पकड़ के लायेगा उन्हे इनाम दिया जायेगा । इनाम के लालच मे आकर जोरजी के मासी के बेटे भाई खेरवा ठाकर धोखे से खेरवा बुलाकर जोरजी को मारा । जोरजी ने मरते मरते ही खेरवा ठाकर को मार गिराया । जब जोधपुर दरबार को जोरजी की मौत के बारे मे पता चला तो बहुत दूखी हुवे और बोले ऐसे शेर को तो जिन्दा पकड़ना था ऐसे शेर देखने को कहा मिलते है । जोरजी बन्दुक और कटारी हरसमय साथ रखते थे, खेरवा मे रात को सोते समय बन्दुक को खुंटी मे टंगा दी और कटारी को तकिये के नीचे रखते थे । जब जोरजी को निन्द आ गयी तो खेरवा ठाकर बन्दुक को वहा से हटवा दी और जोरजी के घोड़े को गढ़ से बहार निकाल कर दरवाजे बन्द कर दिया । तो घोड़ा जोर जोर से बोलने लगा घोड़े की हिनहिनाहट सुनकर जोरजी को कुछ अनहोनी की आसंका हुई वो उठे ओर बन्दुक की तरफ लपके पर वहा बन्दुक नही थी । तो जोरजी को पुरी कहानी समझ मे आ गयी ओर कटारी लेकर आ गये चौक मे मार काट शुरू कर दी उन सैनिको को मार गिराया ।

खेरवा ठाकर ढ्योढी मे बैठा था वहा से गोली मारी । जोरजी घायल शेर की तरह उछल कर ठाकर को ढ्योढी से निचे मार गिराया । ओर जोरजी घायल अवस्था मे अपने खुन से पिण्ड बना कर पिण्डदान करते करते प्राण त्याग दिये । ( उस समय जो राजपुत खुद अपने खुन से पिण्डदान करे तो उनकी मोक्स होती है ऐसी कुछ धारणा थी) राजस्थान के गाँवों मे जौर जी लिये होली पर गाया जाने वाला वीर-रस पूर्ण गीत :-

लिली लैरया ने लिलाड़ी माथे हीरो पळके वो
के मोडो बतलायो ओ जोरजी सिंघनी को जायो रे
के मोड़ो बतलायो.....

मेहला से उतरता जोरजी लोड़ालाडी बरजे वो
ढोड्या से निकलता जोरजी थाने मांजी बरजे वो
के मत खैरवे ओ खैरवो भाया को बैरी रे..
के मत जा खैरवे....

पागडी़ये पग देता जोरजी डाई कोचर बोली वो
जिवनी झाड्.या मे थाने तितर बरजे वो
के मत जा खैरवे..

गॉव से निकलता जोरजी काळो खोदो मिलयो वो
जिवनी झाड़्या मे थाने स्याळ बरजे वो
के मत जा खैरवे....
ओ खैरवो भाया को बैरी रे

जोरजी रा घुड़ला कांकड़ - कांकड़ खड़िया वो
जोरजी रो झुन्झरियो भरीयोड़ो हाले वो
के मत जा खैरवे..

जोरजी रा घुड़ला सुंवा बजारा खडि़या वो
खाटू आळे खाण्डेय डूगंर खाली तोपा हाले वो
खैरवा ठाकर घोड़ा आडा दिना वो
खाटू रा सिरदारा थाने धान किकर भावे वो
जोरजी रो मोरियो जोधाणे हाले वो
के मत जा खैरवे...

भरियोड़ी बोतलड़ी ठाकर जाजम माते ढुळगी वो
राम धर्म न देय न दरवाजा जड़िया वो
के मोड़ो बतलायो ओ जोरजी सिंघनी रो जायो रे
के मोड़ो बतलायो.....

ढाल न तलवार ठाकर महल माते रेगी रे
के भरियोड़ी बन्दुक बैरन धोखो देगी रे 
के मत जा खैरवे....

जोरजी चाम्पावत थारे महल माथे मेड़ी वो
अर मेड़ी माते मोर बोले मौत नेड़ी वो
के मत जा खैरवे ओ खैरवो भाया को बैरी वो
के मत जा खैरवे.......

 

खाटु गढ़

                                                                                             खाटु गढ़ :-


खाटू गढ़ बागी गजर, धजर रखे रणधीर !
पुर्जा पुर्जा हुई पड्या, रंग महताब हमीर !!

खाटू गढ़  उपर खिंवे, तोपां गोला तीर  !
उन बरियाँ द्यां आप ने, रंग महताब हमीर !!

जोधपुर की सेना द्वारा खाटू (जिला नागौर )के गढ़ को तोपों द्वारा ध्वस्त करते समय गढ़ के रक्षक महताब सिंह और हमीर सिंह नामक दो चंपावत वीरो ने तलवारों से तोपों पर आक्रमण किया और तोपों के गोलों से आहत हो कर कीर्ति शेष हुए ।

धरता पग धरती धुजे ।

धरता पग धरती धुजे ।

धरता पग धर धुजती, दाकलता दिकपाल ।जननी रजपुतानिया, थन थी झाल बंबाल ।।

अर्थात:

अपने स्तनो से नि:सृत अग्निकणो  सा दुध पिलाकर वे राजपुतानिया ऐसे नाहर पुत्रो को जन्म देती थी,  जिनके पैरो की धमक से धरती धुजती थी और जिनके दकालने से वीरहाक से दिशाऔ के दिगपाल कम्पायमान हो ऊठते थे।।

राव सिहाजी से धुहङ जी

राव सिहाजी से धुहङ जी

राव सिंहाजी (1273 ई. ) 
राव आस्थान जी ( 1272-1292)

ये मारवाड़ में राठौड़ राज्ये की स्थापना करने वाले राव सिंहाजी के पुत्र थे ।

आस्थान जी ने पाली से हटकर भदोच नामक स्थान पर शक्ति संचय किया और खेड़ पर अधिकार किया । इसके बाद भील सरदार को हराकर ईडर छिन लिया तथा अपने भाई सोनग जी को दे दिया ।

सोनग जी के वंशज ईडर से ईडरिया व हटूण्डी से हटूण्डिया राठौड़ कहलाये ।



जलालुद्दीन खिलजी कि सेना पाली पर चड़ आयी तब आस्थान जी 140 वीरो सहित घमाशान मुकाबले के बाद वि.सं .- 1248 को वीर गति को प्राप्त हुवे ।

आस्थान जी के आठ पुत्र धुह्ड़जी, धांधलजी, चाचक जी, आसलजी, हरकाजी, खिव जी, जोपसा जी व बांदर थे ।

राव सिंहाजी (1273 ई. ) |राव आस्थान जी ( 1272-1292 ई.) |राव धुहड़ जी (1292-1309 ई.) |

मारवाड़ में राठौड़ राज्ये की स्थापना करने वाले राव सिंहाजी के पुत्र आस्थान जी थे । आस्थान जी के बाद मारवाड़ कि गद्दी पर धुहड जी बैठे ।

राव धुहड़ जी (1292-1309 ई.) ठिकाना - खेड़ ।

राव धुहड़ जी राठौड़ो कि कुलदेवी माँ नाग्नेच्या माता को मारवाड़ लेकर आये, और ठिकाना खेड़ के पास हि में एक जगह माता कि स्थापना कि जिसे अब नागाणा गाँव के नाम से जानते है ।धुहड़ जी ने आस-पास के 150 गांवो को जीत कर राज्ये का विस्तार किया ।

मंडौर धुहड़ जी ने प्रतिहारो से जीता, धुहड़ जी प्रतिहारो से युद्ध करते हुवे वि.सं. 1366 को वीर गति को प्राप्त हुवे ।

विवेकानन्द

चार आदमी मिलकर कोई काम करे, यह हमारी आदत नहीं । इसलिए हमारी इतनी दुर्दशा हो रही है । जो आज्ञापालन करना जानते हो, वे ही आज्ञा देना भी जानते हैं ।पहले आदेशपालन करना सीखो । इन पाश्चात्य जातियों में स्वाधीनता का भाव जैसा प्रबल है, आदेशपालन करने का भाव भी वैसा ही प्रबल है । हम सभी अपने आपको बङा समझते हैं, इससे कोई काम नही बनता । महान उधम, महान साहस, महावीर्य और सबसे पहले आज्ञापालन - ये सब गुण व्यक्तिगत या जातिगत उन्नति के लिए एकमात्र उपाय हैं ।और, ये गुण हममें हैं ही नहीं ।

- स्वामी विवेकानन्द ।।