Monday 14 September 2015

नागभट्ट

नागभट्ट प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय


के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -"जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी,

तथा दूसरीऔर मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी !

जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था ,जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था। "

" इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया ,वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वंहा के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा।

ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी, वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी।

अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता।

इस सबसे बचाने का भारत में कार्य नागभट्ट प्रतिहार ने किया।

उसने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देंन है। "

Sunday 13 September 2015

सिकर

सिकर


सिकर का प्राचीन नाम "विरभान का वास" था ।
सं 1744 मे राव दौलत सिंह जी ने सीकर के किले की नींव डाली थी ।
और उसके बाद राव शिव सिंह जी ने चारदीवारी तथा महल बनवाए ।

झुंझार सिंह जी

झुंझार सिंह जी

वीर झुंझार सिंह शेखावत, गुढ़ा गौड़जी का

"डूंगर बांको है गुडहो, रन बांको झुंझार,
एक अली के कारण, मारया पञ्च हजार !!

राजा रायसल दरबारी खंडेला के 12 पुत्रों को जागीर में अलग अलग ठिकाने मिले| और यही से शेखावतों की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ|इन्ही के पुत्रों में से एक ठाकुर भोजराज जी को उदयपुरवाटी जागीर के रूप में मिली| इन्ही के वंशज 'भोजराज जी के शेखावत" कहलाते है|

भोजराज जी के पश्चात उनके पुत्र टोडरमल उदयपुर (शेखावाटी)के स्वामी बने,टोडरमल जी दानशीलता के लिए इतिहास विख्यात है,टोडरमलजी के पुत्रों में से एक झुंझार सिंह थे,झुंझार सिंह सबसे वीर प्रतापी निडर कुशल योद्धा थे, तत्कालीन समय "केड" गाँव पर नवाब का शासन था,छानवाब की बढती ताकत से टोडरमल जी चिंतित हुए| परन्तु वो काफी वृद्ध हो चुके थे|इसलिए केड पर अधिकार नहीं कर पाए|कहते है टोडरमल जी मृत्यु शय्या पर थे लेकिन मन्न में एक बैचेनी उन्हें हर समय खटकती थी,इसके चलते उनके पैर सीधे नहीं हो रहे थे| वीर पुत्र झुंझार सिंह ने अपने पिता से इसका कारण पुछा|टोडरमल जी ने कहा "बेटा पैर सीधे कैसे करू,इनके केड अड़ रही है"(अर्थात केड पर अधिकार किये बिना मुझे शांति नहीं मिलेगी)| पिता की अंतिम इच्छा सुनकर वीर क्षत्रिये पुत्र भला चुप कैसे बैठ सकता था?

झुंझार सिंह अपने नाम के अनुरूप वीर योद्धा,पित्रभक्त थे !उन्होंने तुरंत केड पर आक्रमण कर दिया| इस युद्ध में उन्होंने केड को बुरी तरह तहस नहस कर दिया| जलते हुए केड की लपटों के उठते धुएं को देखकर टोडरमल जी को परमशांति का अनुभव हुआ,और उन्होंने स्वर्गलोक का रुख किया|इन्ही झुंझार सिंह ने अपनी प्रिय ठकुरानी गौड़जी के नाम पर "गुढ़ा गौड़जी का" बसाया| तत्कालीन समय में इस क्षेत्र में चोरों का आतंक था, झुंझार सिंह ने चोरों के आतंक से इस क्षेत्र को मुक्त कराया| किसी कवि का ये दोहा आज भी उस वीर पुरुष की यशोगाथा को बखूबी बयां कर रहा है-

इस लेख के लेखक- गजेन्द्र सिंह शेखावत

रायसिंह जी बिकानेर

रायसिंह जी बिकानेर

बीकानेर के राजा रायसिंहजी का भाई अमरसिंह किसी बात पर दिल्ली के बादशाह अकबर से नाराज हो बागी बन गया था और बादशाह के अधीन खालसा गांवों में लूटपाट करने लगा इसलिए उसे पकड़ने के लिए अकबर ने आरबखां को सेना के साथ जाने का हुक्म
दिया |
इस बात का पता जब अमरसिंह के बड़े भाई पृथ्वीराजसिंह जी को लगा तो वे अकबर के पास गए
बोले-
" मेरा भाई अमर बादशाह से विमुख हुआ है आपके शासित गांवों में उसने लूटपाट की है उसकी तो उसको सजा मिलनी चाहिए पर एक बात है आपने जिन्हें उसे पकड़ने हेतु भेजा है वह उनसे कभी पकड़ में नहीं आएगा | ये पकड़ने जाने वाले मारे जायेंगे | ये पक्की बात है हजरत इसे गाँठ बांधलें |"

अकबर बोला- "पृथ्वीराज !
हम तुम्हारे भाई को जरुर पकड़कर दिखायेंगे |"
पृथ्वीराज ने फिर कहा- "जहाँपनाह ! वो मेरा भाई है उसे मैं अच्छी तरह से जानता हूँ वो हरगिज पकड़ में नहीं आएगा और पकड़ने वालों को मारेगा भी | पृथ्वीराज के साथ इस तरह की बातचीत होने के बाद अकबर ने मीरहम्जा को तीन हजार घुड़सवारों के साथ आरबखां की मदद के लिए रवाना कर दिया |

उधर पृथ्वीराजजी ने अपने भाई अमरसिंह को पत्र लिख भेजा कि- "भाई अमरसिंह ! मेरे और बादशाह के बीच वाद विवाद हो गया है | तेरे ऊपर बादशाह के सिपहसलार फ़ौज लेकर चढ़ने आ रहे है तुम इनको पकड़ना मत, इन्हें मार देना |
और तूं तो जिन्दा कभी पकड़ने में आएगा नहीं ये मुझे भरोसा है | भाई मेरी बात रखना |"
ये वही पृथ्वीराज थे जो अकबर के खास प्रिय थे और जिन्होंने राणा प्रताप को अपने प्रण पर दृढ रहने हेतु दोहे लिखकर भेजे थे जिन्हें पढने के बाद महाराणा प्रताप ने अकबर के आगे कभी न झुकने का प्रण किया था |
पृथ्वीराज जी का पत्र मिलते ही अमरसिंह ने अपने साथी २००० घुड़सवार राजपूत योद्धाओं को वह पत्र पढ़कर
सुनाया, पत्र सुनने के बाद सभी ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए मरने मारने की कसम खाई कि- "मरेंगे या मरेंगे |" अमरसिंह को अम्ल (अफीम) का नशा करने की आदत थी | नशा कर वे जब सो जाते थे तो उन्हें जगाने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी कारण नशे में जगाने पर वे बिना देखे, सुने सीधे जगाने वाले के सिर पर तलवार की ठोक देते थे | उस दिन अमरसिंह अफीम के नशे में सो रहे थे कि अचानक आरबखां ने अपनी सेनासहित "हारणी खेड़ा" नामक गांव जिसमे अमरसिंह रहता था को घेर लिया पर अमरसिंह तो सो रहे थे उन्हें जगाने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी ,कौन अपना सिर गंवाना चाहता |

आखिर वहां रहने वाली एक चारण कन्या "पद्मा" जिसे अमरसिंह ने धर्म बहन बना रखा था ने अमरसिंह को जगाने का निर्णय लिया | पद्मा बहुत अच्छी कवियत्री थी | उसने अमरसिंह को संबोधित कर एक ऐसी वीर रस की कविता सुनाई जो कविता क्या कोई मन्त्र था, प्रेरणा का पुंज था, युद्ध का न्योता था | उसकी कविता का एक एक अक्षर एसा कि कायर भी सुन ले तो तलवार उठाकर युद्ध भूमि में चला जाए | कोई मृत योद्धा सुनले तो उठकर तलवार बजाने लग जाये |

पद्मा की कविता के बोलों ने अमरसिंह को नशे से उठा दिया | वे बोले - "बहन पद्मा ! क्या बादशाह
की फ़ौज आ गयी है ?"
अमरसिंह तुरंत उठे ,शस्त्र संभाले,अपने सभी राजपूतों को अम्ल की मनुहार की | और घोड़े पर अपने साथियों सहित आरबखां पर टूट पड़े | उन्होंने देखा आरबखां धनुष लिए हाथी पर बैठा है और दुसरे ही क्षण उन्होंने अपना घोडा आरबखां के हाथी पर कूदा दिया , अमरसिंह के घोड़े के अगले दोनों पैर हाथी के दांतों पर थे अमरसिंह ने एक हाथ से तुरंत हाथी का होदा पकड़ा और दुसरे हाथ से आरबखां पर वार करने के उछला ही था कि पीछे से किसी मुग़ल सैनिक में अमरसिंह की कमर पर तलवार का एक जोरदार वार किया और उनकी कमर कट गयी पर धड़ उछल चूका था,

अमरसिंह का कमर से निचे का धड़ उनके घोड़े पर रह गया और ऊपर का धड़ उछलकर सीधे आरबखां के हाथी के होदे में कूदता हुआ पहुंचा और एक ही झटके में आरबखां की गर्दन उड़ गयी | पक्ष विपक्ष के लोगों ने देखा अमरसिंह का आधा धड़ घोड़े पर सवार है और आधा धड़ हाथी के होदे में पड़ा है और सबके मुंह से वाह वाह निकल पड़ा |

एक सन्देशवाहक ने जाकर बादशाह अकबर को सन्देश दिया -" जहाँपनाह ! अमरसिंह मारा गया और बादशाह
सलामत की फ़ौज विजयी हुई |"
अकबर ने पृथ्वीराज की और देखते हुए कहा- "अमरसिंह को श्रधांजलि दो|"
पृथ्वीराज ने कहा - "अभी श्रधांजलि नहीं दूंगा, ये खबर पूरी नहीं है झूंठी है |"

तभी के दूसरा संदेशवाहक अकबर के दरबार में पहुंचा और उसने पूरा घटनाकर्म सुनाते हुए बताया कि- "कैसे अमरसिंह के शरीर के दो टुकड़े होने के बाद भी उसकी धड़ ने उछलकर आरबखां का वध कर दिया |"
अकबर चूँकि गुणग्राही था ,अमरसिंह की वीरता भरी मौत कीई कहानी सुनकर विचलित हुआ और बोल पड़ा - "अमरसिंह उड़ता शेर था, पृथ्वीराज !
भाई पर तुझे जैसा गुमान था वह ठीक वैसा ही था ,अमरसिंह वाकई सच्चा वीर राजपूत था | काश वह हमसे रूठता नहीं |"

अमरसिंह की मौत पर पद्मा ने उनकी याद और वीरता पर दोहे बनाये -
आरब मारयो अमरसी, बड़ हत्थे वरियाम,
हठ कर खेड़े हांरणी, कमधज आयो काम |
कमर कटे उड़कै कमध, भमर हूएली भार,
आरब हण हौदे अमर, समर बजाई सार ||

राव कुँपाजी

राव कुँपाजी :-

राव कुंपा जी जिन्होंने मरुधरा पर अपना अमर बलिदान दिया, जिसका स्वरुप ये वीररस गीत है ।

जोधाणे माल, अजै गढ़ जैतो ।
कूंप बीक पुर राज करै ।।
लाखाँ लोग चढ़ै ज्यां लारे ।
दिल्ली आगरो दहूं डरै ।।
माल धणी अर जैत मुसाहिब ।
कूप करण दीवाण कहै ।।
बेगङ अरवा सदा धुर वामि ।
वडरा जीमणीयाल बहै ।।
गंगावत मंडोर गरजियो ।
पचाणोत बावन गढ़पाट ।।
सुत मेहराज जंगल धर सौहे ।
धङे न कोई हूवा घाट ।।
अनमां नाम उनथां नाथै ।
बलवन्त भरै गयण सु बाथ ।।
असमर त्याग कमंधा आगे ।
हिन्दू तूरक न काढ़ै हाथ ।।

बख्तावर सिंह नागौर

बख्तावर सिंह नागौर


रामू सूं राजी नहीं, मारु मुरघर देश ।
जोधाणो झाला देवै, आव घणी बखतेश ।।

इन्हीं बखत सिंह जी के लिये यह दोहा भी प्रसिद्ध है -

बखत-बखत बायरा क्यों मारेयो अजमाल ।
हिंदवाणी रो सेहरो तुरकाणी रो साल।।

Saturday 12 September 2015

कहत नवाब

कहत नवाब


कहत नबाब सिपाह सूं, मरन सु दीसै आज ।
जुद्ध बन्यो है नृपति सूं, गहो लून की लाज ।।

Wednesday 9 September 2015

सामन्त :-

सामन्त :-

कैसे हो दादाजी !
बेटा कोई 8 दशक बीत गये इन आँखों ने क्या कुछ नही देखा ?

मुझे याद है भरी जवानी के वो दिन जब देश झूठी आजादी कि तरफ दौड़ रहा था,
मैं खुद सामन्तों के विरुद्ध झण्डा लिये उत्साह से घुमा करता था !!
(और एक गहरी श्वास छोड़ते हुए बोले हाय रे देश कि किस्मत ।)



आज आजादी के इतने सालो बाद भी वो मंजर याद आता है,
वो जो उँचा टिल्ला है वहाँ ठाकुर लाल सिंह जी का किला था,
कितने दीन दुःखीयो को उस किले बहार खङे होकर गुहार लगाने से न्याय मिला है याद है मुझे !!

आज उनका परिवार तो इस गाँव मे नहीं पर मुझे याद है,
मेरी दादी मुझे यह कहते हुवे सुबह उठाती थी कि ठाकुर साहब सूर्य को जल चढाने छत पर आ रहे है मुंह देख ले बङा शुभ दिन निकलेगा ।


मुझे याद है तिज-त्यौहार और वो मैले जिनमें ठाकुर साहब गाँव कि खुशी के लिये राजकोष से धन खर्च करते थे ।
हम जहाँ उत्साह से खेलते कूदते हुवे बङे हुवे वो ठाकुर साहब का श्याम बाग और कृष्ण मन्दिर तो अब एक याद बनकर रह गया ।

हमारे गाँव कि चर्चा थी जमाने भर मे थी, कितने खुशहाल थे हम सब !!
लाल सिंह जी जब गढ़ से निकलते तो गाँव के बङे बूढ़े भी उनके सम्मान मे खड़े हो जाते ।और वो हर गरीब दुखयारे कि बात सुनते थे ।

बेटा जब ये अंग्रेजी शिक्षा आयी तो हमें सामन्तों के बारे में गलत प्रचारित किया गया,
तब मेरी दादी इस गाँव के चौक के बिचो-बिच बैठकर हमें समझाती थी कि तुम्हारी मती खराब हो गयी है,
काश हम मेरी दादी कि बात समझ पाते ।

देश आजाद हुआ और उनकी जमीने गयी,
पर किले के चारों तरफ कि जमिन गढ़ के नाम थी,
लाल सिंह जी ने फिर भी पुरे गाँव को बसने के लिये जमिन दी ।


हम सामन्तों का विरोध करते रहे वो खुशी खुशी हमारी खुशी के लिये सब कुछ त्यागते गये ।
लाल सिंह जी के पत्र व्यवहार है बेटा मेरे पास,
साफ साफ लिखा है उन्होंने हम लोक कल्याण के लिये जागीरो को त्याग रहे है ।
(अब क्या बताउ आज लोक मे गरीब का कोई कल्याण नही हो सकता )
लोक मे नयी कानून व्यवस्था है गरीब कि कोई सुनता नही ।

अब उस किले के बाहर खड़े होकर गुहार लगाने से न्याय नही मिलता !!
हम अपने ही हाथो अनाथ हो गये बेटा !!

आज भी ये बूढ़ी आँखें देख रही है कि उस खण्डहर किले से कोई लाल सिंह जी आये और हम गरीबों कि सुने ।।

लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल ।

अखण्ड, प्रचण्ड और खण्ड - खण्ड

अखण्ड, प्रचण्ड और खण्ड - खण्ड :-


खण्ड-खण्ड प्रचण्ड था जिसका, वो मेरा भारत था अखण्ड !
खण्ड-खण्ड हुवा भारत मेरा, ना दिखता अब कुछ प्रचण्ड !!

भीष्म से भयंकर वीर से अर्जुन के अँधा-धुन्द तीर से, भारत दिखता था प्रचण्ड !
शकुनी से अपने मामा ने देखो, भारत को किया खण्ड-खण्ड !!





बप्पा रावल का राज्य ईरान तक, भारत दिखता था प्रचण्ड !
कुम्भा के कर-कमलो में, भारत दिखता था अखण्ड !

जयचंद कि जयकर गूँजती, भारत दिखता था प्रचण्ड !
आल्हा-उदल से उदार झुन्झते, भारत दिखता था अखण्ड !!


पदमनी कि पुकार सुनकर, भारत हुवा था प्रचण्ड !
गोरा-बादल का घमासान देखकर, भारत दिखा था अखण्ड !!

केशरिया निशानी अखण्ड कि, जौहर ज्वाला थी प्रचण्ड !
खण्ड-खण्ड हुवा भारत मेरा, कुछ ना दिखता अब प्रचण्ड !!




बाबर बोला हम हुवे प्रचण्ड, सांगा शरीर हुवा खण्ड-खण्ड !
रजपूती शौर्ये को देखकर, भारत दिखता था प्रचण्ड !!

रजपूती शौर्ये था प्रचण्ड, अब रजपूती भी हुयी खण्ड-खण्ड !
बिन रजपूती के मेरा भारत, कैसे रह पाता अखण्ड !!

सिंहा से सरताज देखकर, भारत लगता था प्रचण्ड !
पाबू के परोपकार देखकर, भारत दिखता था अखण्ड !!



खण्ड-खण्ड में राणा-शिवा थे, भारत दिखता था प्रचण्ड !
बिन राणा और शिवा के, भारत दिखता अब खण्ड-खण्ड !

मान सिंह कि काबुल फतेह से, भारत दिखता था प्रचण्ड !
मान सिंह के बिना मान के, भारत हुवा था खण्ड-खण्ड !!

दुर्गादास का साहस अखण्ड था, भारत दिखता था प्रचण्ड !
दुर्गादास बिना ना कोई आश, भारत दिखता अब खण्ड-खण्ड !!

अमर सिंह तो अमर हुवे पर, भारत दिखता था प्रचण्ड !
खण्ड-खण्ड अब भारत मेरा, कुछ न दिखता अब प्रचण्ड !!



जयमल की जयकार गूँजती, भारत दिखता था प्रचण्ड !
फत्ता सा फौलादी झुन्झता, भारत दिखता था अखण्ड !!

सुरों से इन वीरो से, भारत दिखता था प्रचण्ड !
पण्डो से पाखण्डो से, भारत हुवा खण्ड-खण्ड !!

बल-बुद्धि थी प्रचण्ड और मेरा भारत था अखण्ड !
बिन बल-बुद्धि के कैसे, भारत रहे अब प्रचण्ड !!

खण्ड-खण्ड पर खाण्डा खड़का, तलवारे भी थी प्रचण्ड !
खण्ड-खण्ड हुवा खाण्डा अब तो, तलवारे कैसे रहे प्रचण्ड !!

नर-मुण्डो की माला पहने, भारत दीखता था प्रचण्ड !
नर-मुण्डो की माला बिन, भारत दिखता अब खण्ड-खण्ड !!

पीढ़ी-पीढ़ी खण्ड-खण्ड हुवा और शांत हुवा भारत अखण्ड !
पीढ़ी-पीढ़ी प्रचंडता सिमटी, भारत दिखता है अब खण्ड -खण्ड !!

खण्ड-खण्ड प्रचण्ड था जिसका, वो मेरा भारत था अखण्ड !
खण्ड-खण्ड हुवा भारत मेरा, ना दिखता अब कुछ प्रचण्ड !!

रियासत -ए- मारवाड़ :-

रियासत- ए - मारवाड़ :-

मारवाड़ रियासत हो, राठौड़ो का राज हो !
रणवीरो में रोश हो, जौधा जैसा जोश हो !!

पिथल सा पानी हो, कुम्पा कि कहानी हो !
मीरा सि मेड़तानी हो, साथ माँ भटयाणि हो !!

रक्त में रवानी हो, रण-भूमि इसकी निशानी हो !
शेखा इसके शानी हो, सच्ची ये कहानी हो !!



जौहर की ज्वाला हो, जैता सा जूनून हो !
सिंहाजी सि समझ हो, चुंडाजी जी रि छतर हो !!

चन्द्र सेन चौतरफा हो, माँ नाग्नेच्या रि कृपा !
जसवंत सिंह सि झुंझलाहट, राठौड़ो कि हर तरफ आहट हो !!

गज सिंह कि गर्जना हो, हणुवन्त सिंह कि हुँकार हो !
मारवाड़ का गुणगान हो, हाथा में तलवार हो !!

रण-बंको को रहम हो, पर रण -भूमि सबसे अहम हो !
रिडमल सि राजनीती हो, आ बात अठे बीती हो !!



चांदा रि चतुराई हो, मेडतिया रि बडाई हो !
बिका सि बहादुरी हो, चाहे सामने शेरशाह सुरी हो !!

चाम्पा सा चरित्र हो, मुकन्दास सा मित्र हो !
मेडतिया रि वो मार हो, अमर सिंह सि कटार हो !!

कांधल रि किर्ति हो, माँ करणी रि कृपा हो !
मालदेव सि मात हो, राठौड़ जग - विख्यात हो !!

जैमल रि जयकार हो, राजपुताना रि पुकार हो !
फत्ता सा फौलाद हो, शेखा सी औलाद हो !!

जौधा जैसा जंगी हो, तो भाग ज्यावे फिरंगी हो !
पाबु रा प्रवाडा जो याद करया आवे आडा !!

दारू हो दाखिरा रि, धरती हो आ वीरा रि !
शूरा हो शिकार हो, हाथा में तलवार हो !!



रघुकुल रा वटकाला हो, जौहर रि ज्वाला हो !
गौरबन्द रा गीत हो, राठौड़ा रि जीत हो !!

दुदाजी रा दिदार हो, हाथा में तलवार हो !
आसोप से आश हो, उदा से उम्मीद हो !!

दुर्गा जैसा दम हो, साथ आप और हम हो
मारवाड़ लुन्ठो होवे, रण-वीरा रो खूंटो होवे !!

गिरी -सुमेल पर गर्व हो, राजपूत एकता सर्वे हो !
तलवारा रा वार हो, राठौड़ी रि जयकार हो !!

वही आन बान शान हो, राजपुताना अपनी जान हो ! 

कटाक्ष

कटाक्ष :-




कटाक्ष की कटारो से, खेल लिए तलवारों से !
पर हमारी हस्ती मिटती नही इन बेचारो से !! 

सपूत ।

सपूत ।


राजपूत बण मजबूत, खिंच दे सगळा का सूत !
तू तो है माट्टी का पूत, जणा ही कथिजे सपूत !!

हठीलो राजस्थान ।।

हठीलो राजस्थान

हरवल रह नित भेजणा, चुण माथा हरमाल ।
बाजै नित इण देस रा, तो माथै त्रम्बाल ।।

तुने सदैव युद्ध-भूमि की अग्रिम पंक्ति में रहकर 
भगवान शिवजी की मुण्ड-माला के लीए चुन-चुन कर शत्रुओं के शीश भेजे हैं ।
तेरे बाहु-बल के भरोसे ही इस देश के रण-वाध्य ( नगाड़े ) बजते आये हैं ।।

साभार - हठीलो राजस्थान
लेखक - आयुवान सिंह हुडील

वीर धरा

हठीलो राजस्थान


वीर धरा रजंथान री, सूरां मैं सिर मौङ ।
हल्दी घाटी घाटियाँ, गढ़ां सु गढ़ चितौङ ।।

राजस्थान कि ये वीर-भूमि, वीर-भूमियों में शिरोमणि है ।
घाटियों में हल्दी घाटी व दुर्गों में चितौङ दुर्ग श्रेष्ठ है ।।

लेखक - आयुवानसिंह हुडील
साभार - हठीलो राजस्थान 

खानवा

खानवा युद्ध के लिए कुँवर आयुवानसिंह हुडील कि दो लाइन :-



माथा बाट भरावियो, खनवा खेत सधीर ।
धार तराजू तोलियो, भारत भाग अखीर ।।73।।

खानवा के रण-क्षेत्र में तलवार की तराजू पर मस्तक के बाटों से भारत का भाग्य अन्त में राणा सांगा के हाथों ही तोला गया ।



साभार- हठीलो राजस्थान ।
लेखक - आयुवान सिंह हुडील ।

जालौर

          जालौर गढ:-





सूरो गढ जालौर रो, सूरां रौ सिंणगार ।
अजै सुनीजै उण धरा, वीरम दे हूंकार ।।

क्षात्र धर्म

क्षात्र धर्म 


कुटम कबिलौ आपरौ, सह पालै संसार !
भड बालै करतब तणों, क्षात्र धर्म बलिहार !!

अपने परिवार का पालन पोषण तो सारा संसार ही करता है,
परन्तु वीर तो कर्तव्य की वेदी पर अपने परिवार को भी झोंक देता है,
निश्चय ही हम इस क्षात्र धर्म पर बलिहारी है !! 

स्व. आयुवान सिंह शेखावत !!

उदयांण

उदयांण


उतरी विध उदयांण में, साज सुरंगों भेस |
दीलां बिच आछौ फबै, झीलां वालो देस ||

रेतीले राजस्थान के बीच झीलों वाला प्रदेश मेवाड़ ऐसे शोभायमान हो रहा है मानों विधाता श्रंगार करके किसी उद्यान अवतरित हो गई हो!!

स्व. आयुवान सिंह शेखावत !!

सूरा

सूरा


सह देसां सूरा हुवा, लङिया जोर हमेस ।
सिर कटियां लङनो सखि, इण धर रीत विसेस ।।

हे सखि !
सभी देशों में शूर-वीर हुए हैं, जो सदैव वीरता से लङे हैं ।
किन्तु सिर कटने के उपरान्त भी युद्ध करना तो 
केवल इस देश की ही विशेष परम्परा है ।।

लेखक - आयुवान सिंह हुडील

रामदास

रामदास:-


विप्र बचावण कारणे, बजे जुंझारू ढोल !
चढ़ चांदा रा पाटवी, बंधी जाय निबोल !

रामदास तद रामभज, चढ़िया तुरका लार !
तुरका रा तुन्डल करे, विप्र छुडावणा  सार !!

राजावत

राजावत:- 


राजावत -प्रथ्वीराज आमेर के पुत्र भारमल जी के पुत्र भगवंत दास के पुत्रो के वंशज
राजावत कहलाते है ।

गोड चढ्या गज केसरी कछवाह कहु निर्वान,
कोई सोलंकी वांख्ला कोई चावड़ा कोई चहुवाण ।।

Sunday 6 September 2015

राजस्थानी पानी !!

                                                            वीर-रस !



है जहा के अनुठे छन्द, जंग मे लडे कबन्द !
शीश जो कटा तो, आँख वक्ष पे लगी रही !!


इन माथे बाढ़े दह दडा, पोडे करज उतार !
तीण सुरा रो नाम ले, भड बाँधे तलवार !

ओर राजस्थानी पानी का, शानी है ना जहाँ मे कोय !
सैकड़ो के समक्ष, भीड़ गये एक दोय !!

Wednesday 19 August 2015

बजे नंगारे

                                 बजे नंगारे 

बजे नगारे दोउ दल, गजधर गावें नाग ।
रथ अपछर हुरहून दे, नारद सजे सराग ।।

शार्दूल सिंह शेखावत

शार्दूल सिंह शेखावत 


सादूलो जगरामरो सिंहल बुरी बुलाय ।
रामदुहाई फिर गयी ल्हुकती फिरे खुदाय ।।

पुस्तक - हमारी भुलें ।

पुस्तक - हमारी भुलें ।


आधुनिक विश्वामित्र श्री देवी सिंहजी महार साहब ने अपनी महत्वपूर्ण कृति "हमारी भूलें" की भूमिका में लिखा है कि संसार का इतिहास अनेक व्यक्तियों, जातियों धर्मो व राष्ट्रों के उत्थान-पतन के लेखों- जोखों से भरा पड़ा है | उसके अध्यन से जो बात सबसे स्पष्ट रूप से उभर के सामने आती है, वह यह है कि पतन के बाद जिन्होंने आत्म चिंतन का आश्रय लिया, अपनी कमियों को स्वीकार किया व अपनी भूलों को सुधारने के लिए जो तैयार हुए, उन्होंने समय पाकर अपनी समृधि को पुनः प्राप्त कर लिया |



इसके विपरीत जो व्यक्ति समाज अथवा राष्ट्र पराभव के बाद शोक मग्न हुए अपने भाग्य को कोसते रहे तथा अपने पूर्वजों कि गौरव गाथाओं को मात्र गाकर ही संतोष करते रहे, उनका नामो निशान ही उठ गया |
आज हम हमारी भूलों पर विचार करने के लिए तैयार है | उस कार्य को आत्मनिंदा या परनिंदा के द्रष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि आत्मचिंतन करते समय व्यक्ति व समाज को उन समस्त परिस्थितियों पर विचार करना पड़ता है, जिनके अंदर से गुजरने का समाज को अवसर मिला, उस समय जो भी त्रुटियाँ रही उनका विवेचन आत्म चिंतन ही कहा जायेगा और इस कार्य को किये बिना कोई भी पुनरोत्थान कि कल्पना नहीं कर सकता |

आत्म चिंतन कर अपनी भूलों को निकलना, उन्हें स्वीकार करना व भविष्य में उनसे बचे रहने की चेष्टा करना अत्यंत दुष्कर कार्य है | मानव स्वभाव अपने आपको दोषी स्वीकार करने का अभ्यस्त नहीं है | दोष को स्वीकार करने से उसके अहंकार पर आगात लगता है | समय के साथ व्यक्ति व समाज कुछ मान्यताओं में अपने आपको बाँध लेता है, जिनमे सदा सदा के लिए व अपने आपको बांधे रखने में सुख का अनुभव करता है, व इन मान्यताओं के विरुद्ध यदि कोई व्यक्ति कुछ बोलता है या कहता है तो ऐसा व्यक्ति उसे शत्रु-वत प्रतीत होता है | इस प्रकार आत्म चिंतन का मार्ग अत्यंत कठोर कार्य है |



आत्म चिंतन का आरम्भ करते हुवे विचारक को सबसे पहले अपने ही विचारों से संघर्ष करना पड़ता है | उन पर विजय प्राप्त करने के बाद जैसे ही वह अपना मुख समाज के सामने खोलने की चेष्टा करता है | उसको समाज के विद्रोह का सामना करना पड़ता है | क्योंकि लम्बे समय तक चले आने वाले कार्य उसे संस्कार (जो वास्तव में कुसंस्कार हैं) का रूप धारण कर लेते है, तथा कमजोर व विकृत विचार भी रुढी का बल पाकर अपने आप को बलवान समझने लगते है | यद्यपि ऐसे विचार समय के द्वारा तिरस्कृत होकर सर्वथा त्यागने के योग्य सिद्ध होते है फिर भी व्यक्ति व समाज केवल रूढ़ी ग्रसिता के कारन उनको छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता |

वर्तमान काल में जब हम समाज व उनके नेतृत्व की और दृष्टि डालते है | तो समाज को पूर्ण रूप से पंगु व नेतृत्व की और दृष्टि डालते है | तो समाज को पूर्ण रूप से पंगु व नेतृत्व से विहीन पाते है | क्षत्रिय व क्षात्र धर्म का नारा देकर समाज को एकत्रित व संघठित करने का अनेक बार, अनेक प्रकार से, अनेक लोगों ने प्रयास किया है, किन्तु सामजिक परिस्थितियों, समाज के अभावों, व पतन करने के कारणों का विवेक सम्मत विश्लेषण करने का प्रयास लगभग नगण्य रहा है |


सन् १९४७ में क्षत्रिय युवक संघ की स्थापना समाज चिंतन के दृष्टिकोण से इस युग की एक एतिहासिक घटना है | जहाँ पर बैठ कर लोगों ने सामजिक दृष्टिकोण से सोचने व अपनी कमियों को देखने का कार्य आरम्भ किया | स्वर्गीय तनसिंह जी व आयुवान सिंह जी ने समाज चिंतन को जागृत करने व उसे आगे बढ़ाने में जो महत्वपूर्ण योगदान किया, उसके लिए समाज को उनका कृतज्ञ रहना चाहिए |

किन्तु खेद का विषय यह है कि समाज चाहे कठिनाई से ही तैयार हों लेकिन नए विचारों को स्वीकार कर उनको पीछे चलने के लिए तो तैयार हो जाता है लेकिन आत्म चिंतन का मार्ग अपनाने से हमेशा कतराता रहता है | इसी का परिणाम आज हमारे सामने है |

जिन नवीन विचारों ने नई दिशा दृष्टि को उन विचारों को सृजित किया था, उसको आगे बढ़ना तो दूर रहा, उन्ही विचारों को विचार क्रान्ति के रूप में परिवर्तित करने में समाज के कार्यकर्ता पूर्ण रूप से असफल रहे है |



विचार एक धारा है | धारा का धर्म सतत गतिशील रहना है | इस धर्म को जो स्वीकार नहीं करते उसे हम धारा नहीं कह सकते | इसीलिए विचार से अधिक महत्व विचार धारा को दिया जाता है | एक विचार को स्वीकार कर, उस पर स्थिर हो जाना किसी समय विशेष में उपयोगी सिद्ध हो सकता है |

किन्तु समय बीतने पर ऐसे लोग रूढ़िवादी ही कहे जायेंगे | विचार का प्रायोजन ही निरंतर विकास की और आगे बढ़ना है | यदि विचार में गति नहीं है तो वह विचार, उसको धारण करने वाले व्यक्ति के विनाश का हेतु होगा | 

पितामह भीष्म का मत है, कि जिस प्रकार मिट्टी को पीसते रहने पर उसके बारीक होने का क्रम जारी रहता है , उसी प्रकार विचार को गतिशील बनाये रखने से ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता चला जाता है | इस क्रम का कहीं अंत नहीं होता |

इसलिये विचारशील व्यक्ति अपने आपको कभी पूर्ण नहीं मानता | वह यह भी दावा नहीं करता, कि जो कुछ कहा है वही सत्य है, क्योंकि वह जानता है, कि इस क्षेत्र में हर क्षण आगे बढ़ने व नए अनुभवों को ग्रहण करने कि संभावना विद्यमान है | जी लोग केवल विचारक है कर्म के प्रति जिनकी रुचि नहीं है, उनसे समाज को अधिक प्राप्त करने कि आशा नहीं लगनी चाहिए | क्योंकि विचार को पूर्णता प्रदान करने के लिए अध्यन, मनन, कर्म का अनुभव तथा अनुभवी व सत्य पर स्थित लोगों का संग आवश्यक है | इनमे से किसी एक का भी अभाव विचार पूर्णता को प्राप्त नहीं करता | 


अतः यह आवश्यक है कि समाज चिंतन को जागृत करने व उसे आगे बढ़ाने के लिए लोगों को उपरोक्त सभी साधनों का आश्रय लेना चाहिए, उसके बिना जो लोग समाज जागरण या समाज को संगठित करने कि कल्पना करते है, उनकी चेष्टाएँ हमेशा निष्फल ही सिद्ध होंगी |
समाज के अधिकांश लोग आज समाज के संघठन कि बात करते है व अपनी कार्य शैली को इस कार्य के निमित्त लगा देने का दावा करते है | ऐसे लोगों के होते हुए भी आज समाज में कोई भी संघठन न तो वास्तविक रूप में संघठित ही है, और न ही गतिशील ही है | सभी संघठनो के लोग निराशा के गहरे गर्तों में गोते लगाते दिखाई दे रहे है व इसके लिए वे एक दुसरे को दोषी ठहरा रहे है | इस सब के पीछे कारण क्या है ? 

कारण स्पष्ट है लोग बिना अपने आपको बदले समाज को बदलना चाहते है | लोग बिना कष्ट उठाये सुख भोगने कि कल्पना में डूबे हुए है | शारीरिक कर्म से मानसिक कर्म अधिक कष्ट दायक व दुष्कर है | लोगों को जब विचार चिंतन, व मनन, कि बात कही जाती है तो उसका उत्तर होता है कार्यकर्ता को कार्य चाहिए, विचार करना नेताओं का धर्म है | ऐसे लोगों को विचार के लिए तैयार करना एक कठिन कार्य है, जिसमे फंसे बिना लोग संघठन के कार्य में जुट पड़ते है व समय व्यतीत होने पर देखते है कि उनके कार्यकर्ताओं का उत्साह भंग हो चूका है |



कार्य में आरम्भ से लेकर अंत तक एकरूपता व सामान रस बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि कार्यकर्ताओं में उत्साह निरंतर बना रहे | भावनाओं को उभार कर या परिस्थितियों का भय दिखाकर समय विशेष पर लोगों को उत्साहित कर कार्य को सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु जीवन पर्यन्त साधना के लिए, यह पर्याप्त सिद्ध नही हो सकते |

क्योंकि कामनाओ को आघात पंहुचाते ही उत्साह के स्थान पर शोक उपस्थित होता है | परिणामतः लोग एक दूसरे में दोष दृष्टि की स्थापना कर कर्म विमुख होने लगते है |

अतः आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है विचार क्रान्ति | सारे समाज को विचारशील बनाकर उसको आगे बढाने के लिए तैयार करना पड़ेगा | विचार व कर्म के सामंजस्य से उत्पन्न होने वाले नवीन अनुभव ही कार्यकर्ता के लिए संजीवनी शक्ति का कार्य कर सकते है | इस क्रम के चालु रहने पर लोगों की निरंतर नवीन प्रेरणा का सहारा मिलता रहेगा | जिससे उनका उत्साह कभी भंग नहीं होगा |

अतः यहीं से हम आत्म चिंतन के अध्याय को आरम्भ करते है | पहले हम हमारी भूलों को देखने व समझने का प्रयास करेंगे | उसके बाद उस संजीवनी शक्ति की खोज करेंगे, जिसको प्राप्त कर हमारे पूर्वजों ने अमरत्व व अक्षय यश प्राप्त किया था | यही होगा हमारी विचार क्रान्ति का पहला चरण ।
तो हम आज अपनी कमियों को अपनी भूलों को दूर करने के लिए कटिबद्ध हुएं ताकि क्षात्र धर्म के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ने हेतु हम संस्कारित हों। संस्कार जैसे कि पूर्व के अध्याय में विस्तृत रूप से परभाषित किया जा चुका है अतः क्षात्र धर्म ही हमारा संस्कार है।

Friday 7 August 2015

मेङतिया राठौङ !

मेड़तिया राठौङो  की 26 खापें और ठिकाने, मेड़तिया राठौङो की खापें और ठिकाने :-


जोधपुर के शासक जोधा के पुत्र दूदाजी के वंशज मेड़ता के नाम से मेड़तिया कहलाये, दूदाजी का जन्म जोधा की सोनगरी राणी चाम्पा के गर्भ से 15 जूं 1440 को हुआ !

दूदाजी  ने मेड़ता को विशेष आबाद किया, इसमें उनके भाई बरसिंह का भी साथ था ।
बरसिंह व दूदाजी जी ने सांख्लों (परमार ) से चौकड़ी, कोसाणा आदी जीते ।
बीकाजी द्वारा सारंगखां के विरुद्ध किये गये युद्ध में दूदाजी ने अद्भुत वीरता दिखाई ।
मल्लूखां ( सांभर का हाकिम ) ने जब मेड़ता पर अधिकार कर लिया था ।
दूदाजी, सांतल, सूजा, बरसिंह, बीसलपुर पहुंचे और मल्लूखां को पराजीत किया ।
मल्लूखां ने बरसिंह को अजमेर में जहर दे दिया जिससे बरसिंह की म्रत्यु हो गयी उनका पुत्र सीहा गद्धी पर बैठे और इसके बाद मेड़ता दूदाजी और सीहा में बंटकर आधा २ रह गया |

इसके बाद दूदाजी के पांच पुत्र वीरमदेव, रायमल, रायसल, रतनसिंह और पंचायण थे ।
मीराबाई रतन सिंह की पुत्री थी, रतनसिंह कूड़की ठिकाने के स्वामी थे ।

शरफुधीन ने 1563 ईस्वी में मेड़ता पर आक्रमण किया तब पंचायण इस युद्ध में मारे गए ।

दूदाजी के पुत्र वीरमदेव ईसवी 1515 में मेड़ता की गद्धी पर बैठे, इनका जन्म 19 नवम्बर 1477 को हुआ । वीरमदेव अपने समय के उद्भट योधा थे |
17 मार्च खानवा में बाबर व् सांगा के बीच हुए युद्ध में वीरमदेव ने राणा सांगा का साथ दिया, राणा सांगा की मूर्छित अवस्था के समय वे भी घायल थे । इस युद्ध में उनके भाई रायमल व् रतनसिंह भी मुगल सेना से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त हुए ।

जोधपुर के राजा मालदेव मेड़ता पर अधिकार करना चाहते थे, वीरमदेव ने 1536 ईस्वी में अजमेर पर भी अधिकार कर लिया था । मालदेव ने अजमेर लेना चाहा पर वीरमदेव ने नहीं दिया तब मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया । मालदेव का मेड़ता पर अधिकार हो गया । कुछ समय बाद मालदेव का अजमेर पर भी अधिकार हो गया ।
तब वीरमदेव रायमल अमरसर के पास चले गए | वीरमदेव आपने राज्य मेड़ता पर पुनः अधिकार करना चाहते थे अतः वीरमदेव रणथम्भोर की नवाब की मदद से शेरशाह के पास पहुँच गए । और मालदेव पर आक्रमण करने के लिए शेरशाह को तैयार किया |

बीकानेर के राव कल्याणमल भी मालदेव द्वारा बीकानेर छीन लेने के कारन मालदेव के विरुद्ध थे, उन्होंने भी शेरशाह का साथ दिया ।
शेरशाह को बड़ी सेना लेकर जोधपुर की तरह बढ़ा और विक्रमी संवत 1600 ईस्वी 1544 में अजमेर के पास सुमेल स्थान पर युद्ध हुआ । मालदेव पहले हि मैदान छोड़ चूका था । जैता और कुम्पा शेरशाह के सामने डटे रहे परन्तु मालदेव की सेना को पराजीत होना पड़ा । इस युद्ध के बाद वीरमदेव ने मेड़ता पर पुनः अधिकार कर लिया । वीरमदेव की म्रत्यु फाल्गुन विक्रमी संवत 1600 को हुयी |

इनके 10 पुत्र थे, 
१. जयमल 
२. ईशरदास 
३. करण 
४. जगमाल 
५. चांदा
६. बीका ( बीका के पुत्र बलू को बापरी  सोजत ) चार गाँवो से मिला 
७. प्रथ्वीराज ( इनके वंशज मेड़ता में रहे )
८. प्रतापसिंह 
9. सारंगदे 
१०. मांडण

१. जयमलोत मेड़तिया :-
वीरम दुदावत के पुत्र जयमल बड़े वीर थे, इनका जन्म 17 सिप्तम्बर 1507 को हुवा !

ई.स. 1544 ( विक्रमी 1600) में मेड़ता के स्वामी बने मालदेवजी जोधपुर ने मेड़ता पर आक्रमण किया परन्तु उन्हें पराजीत होना पड़ा, मालदेव मेड़ता छीनना चाहते थे, उन्होंने फिर ई. स. 1557 में मेड़ता पर आक्रमण किया और मेड़ता पर अधिकार कर लिया । उन्होंने आधा मेड़ता जयमल के भाई जगमाल को दे दिया ।

जयमल अकबर की सेवा में चले गए, और सहायता पाकर पुनः 1563 ई.वि. 1620 में मेड़ता पर अधिकार कर लिया |
इन्होने अकबर के विद्रोह सरफुधीन को शरण दी । अतः अकबर की सेना ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया । जयमल उदयसिंह के पास चितोड़ चले गए |
उदयसिंह ने इनको बदनोर का ठिकाना प्रदान किया । अकबर ने मगसिर वदी 6 वि.1624 को चितोड़ का घेरा डाला । संकट की इन घड़ियों में उदयसिंह को भेजकर चितोद की रक्षा का भार आपने पर लिया । अकबर की सेना से लड़ते हुए यहीं इन्होने वीरगति प्राप्त की |

इन्ही प्रसिद्ध जयमल के सुरताण, केश्वदाश, गोयंददास, माधवदास, कल्याणदास, रामदास, विठलदास, मुकंद्दास, श्यामदास, नारायणदास, नरसिंहदास, द्वारकादास, हरिदास व शार्दुल 14 पुत्र थे । बहादुरसिंह बीदासर ने अनोपसिंह अनोपसिंह नामक ऐक और पुत्र भी लिखा है |

२. सुरतानोत मेड़तिया :-
वि.सं. 1624 में हुए चितोड़ के तीसरे शाके में जयमल वीरगति प्राप्त हुए । उनके बड़े पुत्र सुरताण महाराणा उदयसिंह की सेवा में उपश्थित हुए । बदनोर पर तो अकबर का अधिकार हो गया । अतः उदयसिंह ने सुरतान को गढ़बोर गाँव प्रदान किया । इसके बाद  सुरतान मेड़ता प्राप्त करने के लिए अकबर के पास जा रहे । उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर अकबर ने उन्हें मेड़ता दे दिया |
इन्ही सुरतान के वंशज सुरतानोत मेड़तिया कहलाये ।
सुरतान के दो पुत्र भोपत व् भाण उग्रसेन ( बांवाड़ा शासक ) के समय बाँसवाड़ा राज्य में चले गए तथा ऐक पुत्र हरिराम डूंगरपुर राज्य में जा रहे ।
मारवाड़ में सुर्तानोतों के लवणों ( २ गाँव ) गूलर( पांच गाँव ) रोहिणी ( चार गाँव ) बाजुवास( दो गाँव ) जावलो( तीन गाँव ) जालरो ( सात गाँव ) भटवरी (पांच गाँव ) इनके अलावा जझोलो, सील भखरी,किशनपुरा आदी ऐक -ऐक गाँव के ठिकाने थे |

३. केशवदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र थे, अकबर ने इन्हें आधा मेड़ता दिया ।
वि.सं. 1655 में गोपालदास के साथ शाही सेना के साथ पक्ष में लड़ते हुए बीड़ की लड़ाई में काम आये ।
बाद में मेड़ता जोधपुर के सूरसिंह को दे दिया गया, यही से मेड़ता से मेद्तियों का राज समाप्त होता है ।

इन्ही केशवदास के वंशज केशव्दासोत को 22 गाँवो सहित केकिद मिला ।
केशवदास के दुसरे पुत्र गिरधरदास को परवतसर का पट्टा मिला, परवतसर के बाद में केशवदास मेड़तीयों का बदु तेरह गाँवो का ठिकाना था । इसके अतिरिक्त सबेलपुर ( ७ गाँव ) बोडावड(चार गाँव ) बुडसु (नो गाँव ) मडोली तथा बरनेल ,बणाग़नो ,चितावो,उंचेरियों,लाडोली ,कालवो( दो गाँव )आदी ऐक गाँव के ठिकाने थे |

४. अखेसिंहोत मेड़तिया :-
केशवदास के बाद क्रमशः- गिरधरदास, गदाधर, श्यामसिंह व् अखेसिंह हुए ।
इन्ही अखेसिंह के वंशज अखेसिंहोत मेड़तिया कहलाये ।
बुड़सु, खीदरपुर कुकडदो, तथा चाँवठिया इनके मुख्या ठिकाने थे, इनके अतिरिक्त टागलो, खोजावास, बीदयाद, डोडवाडो, जूसरियो, तोसीनो आदी छोटे -छोटे ठिकाने थे |

चिडालिया नागौर से दो भाई देवीसिंह व् डूंगरसिंह घोड़ों पर सवार हेदराबाद पहुंचे जिसमे की देवीसिंह वहीँ पर पिछड़ गए !
डूंगर सिंह ने अपनी वीरता से निजाम हेदराबाद को प्रसन्न किया निजाम ने उन्हें सर्फे खास व् नज्म की उपाधियाँ दी । १ हाथी 100 घोड़े और 100 सिपाही रखने की इजाजत दी ।
राठोड़ों का बेड़ा स्थापित करने की जगह दी । वर्तमान में डूंगर सिंह के ७ वें वंशज प्रेमसिंह प्रतिष्टित राठोड़ है |

५. अमरसिहोत मेड़तिया:-
अखेसिंह के बड़े पुत्र अमरसिंह के वंशज !
मैनाणा, इनके सात गाँवो का मुख्या ठिकाना था, इसके आलावा रोडू विरड़ा ( ६ गाँव ) तथा डासानो खुर्द व टांगलो ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे |

६. गोयंददासोत मेड़तिया :- 
वीरम के पुत्र जयमल के पुत्र गोयंददास के वंशज । 
भावतो ( 31 गाँवो ) का ठिकाना था, इनके हिस्से थे । इनके आलावा परगना मारोठ, परवतसर नागौर मेड़ता (कुछ गाँवो में ) के बहुत से गाँवो में इनकी जागीरी थी । 
गेड़ी (मेड़ता परगने के तीन गाँव ), सरनावड़ो (मेड़ता नागौर व् परवतसर परगनों के ६ गाँव ), डोभड़ी ( मेड़ता परगने के दो गाँव ), इटावा, लालो, इटावा खिंचिया, जसवंतपुरा, दुमोई बड़ी, दुमोई खुर्द, पालडी राजां, डोभड़ी, खुर्द, रामसियो, खुडी, रामसियो खुडी, राथीगाँव, नौरंगपूरा, भवाद, पोली, बेहडवो, झाड़ोद आदी ऐक ऐक गाँव के कई ठिकाने थे ।

खरेस आदी नाथसिंहोत के ठिकाने थे, गोयंददास के पुत्र नाथुसिंह के नाथूसिहोत है ।

७. रघुनाथसिहोत मेड़तिया :-
गोयन्द्दास के पुत्र सांवलदास के पुत्र रघुनाथसिंह थे, रघुनाथसिंह बड़े वीर थे । ओरंगजेब के समय में इन्होने 1715 वि.में गोड़ों से मारोठ का परगना छीन लिया । इनके वंशज  एंव रघुनाथसिहोत मेड़तिया कहलाये ।
मारोठ परगने में भावतो(13 गाँव ), घाटवो(11 गाँव ), नरोंणपूरा(15 गाँव ), नडवो(6गाँव ), वासा(७गाँव ), मगलानो गढ़ों(१० गाँव ), झिलियो(14 गाँव ), सरगोठ(13 गाँव ), कुकडवाली(५ गाँव ), लिचानो(५ गाँव ), जव्दी नगर(७ गाँव ), !
मीठड़ी(नावां ), परवतसर मारोठ नागौर व् मेड़ता तीनो परगनों के 15 गाँव, करोप (मेड़ता व् दौलतपुरा परगना के तीन गाँव ), खारठीयो(नावां परगना दो गाँव ), चालुखो(नागौर वा दौलतपुरा परगना के दो गाँव ), नीबी(दौलतपुरा व् नागोर परगना के ६ गाँव ), अलतवो(मेड़ता परगना के दो गाँव ), डोडीयानो(मेड़ता परगना के ६ गाँव ), पीपलाद(परबतसर परगने के ४ गाँव ), लापोलाई(मेड़ता वा परबतसर परगने के ३ गाँव ), भाद्लिया (मेड़ता, दौलतपुरा और परबतसर परगना के तीन गाँव ), आछोनाइ(मेड़ता परगना के तीन गाँव ), लूणवो(मारोठ परगने के ८ गाँव ), पांचवा(मारोठ परगने के 13 गाँव ), नीबोद (दौलतपुरा वा मारोठ परगने के तीन गाँव ) आदी इनके बड़े ठिकाने थे तथा ऐक गाँव वाले काफी ठिकाने थे |

८. श्यामसिहोत मेड़तिया :- 
जयमल के पुत्र गोयंददास के बाद क्रमशः सांवलदास व् श्यामसिंह हुए, इन्ही श्यामसिंह के वंशज श्यामसिहोत मेड़तिया कहलाये । शेखावाटी (राजस्थान ) के बगड़ और अव्गुणा गाँवो में निवास करते है । नागौर जिले में रेवासा , भूरणी व् नावा में है |

9. माधोदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र माधोदास बड़े वीर थे । इहोने कई युद्धों में भाग लिया और वि.सं .1656 में मुगलों से लड़ते हुए काम आये । इन्ही के वंशज माधोदासोत मेड़तिया कहलाये ।
मेड़ता परगने में रीया इनका मुख्या ठिकाना था । इनके अलावा मेड़ता परगने में बीजाथल (तीन गाँव ), चीखरणीयो बड़ो  (२ गाँव ), चापारुण ( पांच गाँव ), आलणीयावास (चार गाँव ), बलोली ( २ गाँव ), चानणी बड़ी ( २ गाँव ), धीरड (दो गाँव ) तथा जाटी, मेडास, ईड्वो, धोलेराव, पोलास, गोडेतिया, नैणीयो, गोठडो, सुरियाल, भैसडो, कीतलसर, बिखरणीयो, भाडली,बुताटी, बलोली, चुई, डोभड़ी, बरसणु, लंगोड़, आदी ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे ।
बीकानेर राज्य में खारी माधोदासोतों का ऐक छोटा सा ठिकाना था, चूर जिले के भेंसली गाँव में भी रहते है |

१०. कल्याणदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र कल्याणदास को सुरतान द्वारा रायण की जागीर मिली । मोटे राजा उदयसिंह की और से वि.1652 में खेरवा का पट्टा मिला । कालणा, बरकाना, कला रो बास आदी इनके ठिकाने थे |

११. बिशनदासोत मेड़तिया :-
कल्याणदास जयमलोत के पुत्र बिसनदास के वंशज बिशनदासोत मेड़तिया कहलाते है । बिशनदास अपने समय के प्रतिभा व्यक्ति थे । इनके मुख्य ठिकाने में खोडखास (५ गाँव )अमरपुर (दो गाँव )बोरुदो ( दो गाँव ) तथा तामडोली, बरनो, चोसली, जगड़बास, तिलानेस, मयापुर, चुवो, राजलियावास, मीदीयान आदी ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे |

१२.रामदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र रामदास हल्दीघाटी के युद्ध (ई.1576) में वीरगति को प्राप्त हुए । इनके वंशज रामदासोत मेड़तिया कहलाये है । ये मवाद क्षेत्र में है |

13.बिट्ठलदासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र बिट्ठलदास के वंशज । नीबी खास इनका दो गाँवो का ठिकाना था । इनके आलावा लूणसरा, इग्योर  आदी मारवाड़ में इनके ठिकाने थे । 
बिट्ठलदास के पुत्र मनोहरदास मवाद में जाकर रहे । मेवाड़ में दांतड़ा इनका ठिकाना था |

14. मुकंददासोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र मुकुंद्दास को जयमल के चितोड़ में 1624 वि.में वीरगति पाने पर उदयसिंह ने गढ़बोर की जागीरी दी और जब मुगलों का बदनोर से अधिकार हट गया तब इन्हें बदनोर का ठिकाना मिला । इन्ही के वंशज मुकुंद्दासोत मेड़तिया कहलाये । ये बड़े वीर थे । वि.सं .1663 में परवेज द्वारा मेड़ता पर आक्रमण के समय वे इसके विरुद्ध बहादुरी से लड़े और वीरगति प्राप्त की ।
मेवाड़ में बदनोर के आलावा उनके वंशज रूपहेली, डाबला, नीबाहेड़ा, जगपुरा आदी इनके ठिकाने थे |

15. नारायणदासोत मेड़तिया :- जयमल के पुत्र नारायणदास के वंशज |

16. द्वाराकदासोत मेड़तिया :- 
जयमल के पुत्र द्वारकादास अकबर की सेवा में रहे । वि.सं.1655 में वे शाही सेना की और से लड़ते हुए दक्षिण में बीद नामक स्थान पर काम आये । इन्ही के वंशज द्वारकादासोत मेड़तिया हुए । बछवारि इनका मुख्य ठिकाना था |

17. हरिदासोत मेड़तिया :- जयमल के पुत्र हरिदास के वंशज |

18. शार्दुलोत मेड़तिया :-
जयमल के पुत्र शादुर्ल के वंशज शार्दुलोत मेड़तिया कहलाये । मेवाड़ में धोली इनका ठिकाना था |

19. अनोप्सिहोत मेड़तिया :- जयमल के पुत्र अनोपसिंह के वंशज । चानोद इनका ठिकाना था|

२०. ईशरदासोत मेड़तिया :-
वीरम के पुत्र ईशरदास बड़े वीर थे । चितोड़ के युद्ध में वे जयमल के साथ थे । अकबर के मधु नामक हठी के खांडा मारकर उसका दांत पकड़ लिया था और युद्ध करते हुए काम आये । इन्ही के वंशज ईशरदासोत मेड़तिया कहलाये । इनके वंशजों के अधिकार में बीकावास, सुमेल, खरवो, आदी ठिकाने |

21.जगमलोत मेड़तिया :-
वीरम के पुत्र जगमाल मालदेव को सेवा में रहे । मालदेव ने जयमल से मेड़ता लेकर आधा भाग जगमाल को दे दिया । जयमल ने फिर मेड़ता पर अधिकार कर लिया । बादशाह अकबर ने मेड़ता फिर छीन लिया और जगमाल को दे दिया इन्ही जगमाल के वंशज जगमलोत मेड़तिया हुए ।
ड्सानो, बड़ो, घिरडोदो, जेसला, कुडली, छापरी बड़ी, राठील, दाउदसर, बनवासी, भांडासर, घिरडोदी, डडी, माना री ढाणि आदी इनके ठिकाने थे |

22. चांदावत मेड़तिया :-
वीरमदेव के पुत्र चांदा ने बाझाकुंडो की भूमि पर अधिकार कर वि.सं.1603 में बलुन्दा को आबाद किया । चांदा राव मालदेव की सेवा में रहे । मालदेव द्वारा मेड़ता पर आक्रमण करते समय चांदा उनके साथ में थे । मालदेव के भयभीत होने पर उन्होंने जोधपुर पहुँचाया ।
राव मालदेव ने उन्हें ऐक बार आसोप और रास का पट्टा भी दिया था । हुसेन कुलिखां द्वारा जोधपुर पर आक्रमण करने के समय चांदा चन्द्रसेन के पक्ष में लड़े । नागौर के सुबायत हुसेन अली से भी कई लड़ाइया लड़ी । नागौर के नवाब ने उन्हें धोखे से मारना चाहा । इस षड़यंत्र में चांदा तो मरे पर नवाब को भी साथ में लेकर मरे ।
बलुन्दा इनका मुख्या ठिकाना था, धनापो, दूदड़ास, सूदरी, कुडकी, डाभडो, खानड़ी, बडवालो, सेवरीयो, आजडाली, लाडपूरा, सुंथली, हासीयास, पूजीयास, लायी, मुगधडो, देसवाल, नौखा, नोवड़ी, ओलादण, गागुरडो, मागलियास, डोगरानो, अचाखेड़ो, रेवत, रोहल, छापर बड़ी, पीड़ीयो, रोहीना, बसी, सिराधनो, बाखलियाच, चिवली आदी ऐक ऐक गाँव के ठिकाने थे ।
मेवाड़ के शाहपुर राज्य में खामोर चांदावतों का ठिकाना था । ये बलुन्दा ठिकाने से शाहपुरा गए |

23. प्रताप्सिहोत मेड़तिया :-
वीरमदेव के पुत्र प्रतापसिंह महाराणा उदयसिंह चितोड़ के पास रहे । 1624 विक्रमी में अकबर ने चितोड़ पर आक्रमण किया । उस युद्ध में जयमल के साथ वीरगति हुए । इन्ही के वंशज प्रतापसिहोत मेड़तिया हुए ।
इनके तीन पुत्र गोपालदास, भगवानदास, हरिदास थे ।
गोपालदास ने हल्दी घाटी व् कुम्भलगढ़ के युद्ध्दों मे वीरता दिखाई अतः राणा ने इनको घानोराव का इलाका प्रदान किया |

24.गोपिनाथोत मेड़तिया :-
वीरमदेव के पुत्र प्रतापसिंह के बाद क्रमश गोपालदास, किशनदास, दुर्जनसाल व् गोपीनाथ हुए ।
पिता दुर्जनशाल के बड़े पुत्र होने के कारन इन्हें घानोराव प्राप्त हुआ । घानोराव ऐक छोटा सा राज्य था । गोपीनाथ ने जयसिंह व् उनके पुत्र अमरसिंह के बीच हुए मन मुटाव को मिटाया । महाराणा ने इनको खीमेल, नीपरड़ा, अरसीपूरा, राजपुरा, खारडा, टीपरी, वरकाणा आदी गाँव प्रदान किये |
इनके अतिरिक्त मारवाड़ में नादानो बड़ो (25 गाँव ) चानोद(21 गाँव ) कोसेलाव (४ गाँव ) बरकानो (८ गाँव ) फालनों (८ गाँव ) व् सिदरड़ी ऐक गाँव के ठिकाने थे |

25. मांडनोत मेड़तिया :-
वीरमजी के पुत्र मांडण सोलंकियों के विरुद्ध लड़ते बरहड़ा के युद्ध में मरे गए । इन्ही के वंशज मांडनोत मेड़तिया कहलाये |

26.रायमलोत मेड़तिया :- 
मेड़ता राव दूदा के पुत्र रायमल को वीरमदेव ने रायाण का पट्टा प्रदान किया । यह इनका मुख्य ठिकाना था । विक्रमी 1583 के खानवा युद्ध में महाराणा सांगा के पक्ष में आपने भाई वीरमदेव के साथ यह भी युद्ध में लड़े और वीरगति पायी |
इन्ही के वंशज रायमलोत मेड़तिया कहलाये । रायमल के ऐक पुत्र अर्जुन व् उसके भतिज रूपसी चितोद के तीसरे शाके के समय वि.सं.1624 में काम आये ।
रायाणा के अलावा ढावो, जोरोडो, पडो, जालू, बासणी, जाल, बारवलो, जनस्वास, देवालोमोसो, मीठड़ीया आदी इनके ठिकाने थे |

Thursday 6 August 2015

हठिलो राजस्थान

हठिलो राजस्थान 



सिर देणो रण खेत मैं, स्याम-धरम हित चाह ।
सुत देणो मुख मौत मैं, इण घर रूङी राह ।।

अर्थात् -
रण-क्षेत्र में अपना मस्तक अर्पित करना, स्वामी का हमेशा हित चिन्तन करना व अपने पुत्रों को भी स्वधर्म पालन के लिए मौत के मुँह में धकेलना इस राजस्थान की धरती की परम्परा रही है ।।

लेखक - आयुवानसिंह हुडील