Thursday 29 September 2016

कुँवर मानसिंह - काबुल के गवर्नर के रुप में ।




कुँवर मानसिह - काबुल के गवर्नर के रुप में ।
पंजाब और उत्तर पश्चिम सीमा प्रदेश में मानसिंह की नियुक्ति उसकी सफलता का एक मील का पत्थर था । भारत का उत्तर पश्चिम भाग एक अशान्त प्रदेश था, जब हाँ अफगान लोग और विद्रोही अफरीदी लोग पंजाब क्षेत्र के लिये एक निरन्तर भय के स्त्रोत बने हुए थे । इन विपरीत स्थितियों को देखकर कुँवर मानसिंह को पंजाब भेजा गया ।

अकबर ने राजा टोडरमल को पंजाब भेजा ताकि वह कछवाहा सरदारों की जागीरों में व्यवस्था स्थापित कर सके जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक सम्पन्न किया ।
पंजाब में कुँवर मानसिंह, भगवन्तदास, राजा गोपाल, जगमाल और दूसरे कछवाहा सरदार साथ थे ।
जब कश्मीर का शासक युसुफ खान आन्तरिक विद्रोह से पीङित हुआ तो उसने कुँवर मानसिंह से संरक्षण मांगा जिसने दुसरे मुगल सरदार मुहम्मद युसुफ खाँ की मदद से कश्मीर के शासक को शाही दरबार में पेश किया । जब काबुल के शासक मुहम्मद हकीम का पक्ष सुलेमान मिर्जा ने ग्रहण किया तो उसने बदकशाँ के बादशाह शाहरुख मुहम्मद जो कि अकबर का मित्र था पर एक सेना भेजने का निश्चय किया ।

लेकिन जब काबुल के बादशाह को पता लगा कि कुँवर मानसिंह, व राजा भगवन्तदास के संरक्षण में है बदकशाँ तो वह हमले का साहस नही जुटा पाया । इस समय कुँवर मानसिंह मात्र 3500 के मनसबदार थे लेकिन उनकी ख्याति फैलने लगी थी ।। उस काल में पंजाब कि राजधानी सियाल कोट थी और वही इनका मुख्यालय था । कुँवर मानसिंह के भाग्य में पृष्ठभूमि में अधिक दिनों तक रहने का विधान नहीं था । जनवरी 1580 में उन्हें एक जिम्मेदारी का कार्य सौंपा गया ।

उत्तर - पश्चिम सीमान्त प्रदेश में मुहम्मद युसुफ खान के प्रशासन के कार्यों के प्रबंध से अकबर प्रसन्न नहीं था, इसके फलस्वरूप उसे वहाँ से हटा दिया गया और उसका स्थान कुँवर मानसिंह को दिया गया । कुँवर को इसके अतिरिक्त पङौस के सिन्ध नदी के क्षेत्र भी प्रशासन के लिये सौंप दिये गये । कुँवर मानसिंह ने अपना मुख्यालय सियालकोट से हटाकर सिन्ध प्रदेश में कर लिया, ताकि मुगल भूभाग पर निकटता से नजर रख सकें । जल्दी ही उन्हें अपनी शूरवीरता एवं राजनीतिज्ञता दिखाने का सुअवसर प्राप्त हुआ ।।

जब कुँवर मानसिंह रावलपिण्डी में थें, उन्होंने मुगल भूभागों पर शादमान के हमले कि बात सुनी । काबुल का शासक मुहम्मद हकीम शादमान का बहुत आदर करता था । वह उसे "सेना की तलवार" मानता था । कुँवर ने यह भी सुना शादमान ने सिन्ध नदी पार कर ली है और "नीलम" के दुर्ग को घेर लिया है । जैनुद्दीन अली, जिसको कुँवर ने पूर्व में इस किले की रक्षा के लिये नियुक्त किया था, बङी वीरता से किले की रक्षा कर रहा था । कुँवर शीघ्र इस प्रदेश के लिये रवाना हुवे और 22 दिसम्बर 1580 को रात्रि में उन्होंने शादमान की फौजौं पर आक्रमण कर दिया ।

सेना की हरावल की कमान आलूखान व कछवाहा सूरजसिंह को सौंपी गयी । सूरजसिंह मानसिंह के भाई थे । काबुल की सेना पर उस समय हमला किया गया जब वे हमले के लिये जरा भी तैयार नही थी । इसका परिणाम यह हुआ कि शाही फौज के सामने अफगान सेनाओं की बुरी तरह पराजय हुई । सूरजसिंह के वार से शादमान घायल हो गया और पङौस में जाकर मर गया । शादमान की मौत और काबुल की फौजौ की पराजय की खबर सुनकर बादशाह बङा प्रसन्न हुआ ।
पर उसने अफगान सेनापति की म्रत्यु के कारण कुछ बखेड़ा पैदा होने की आशंका भी वयक्त की । वह इस बात के लिए लिए पूरी तरह आश्वस्त था की मिर्जा मुहम्मद हकीम अपने सेनापति की हार को चुपचाप बैठकर देखने वाला व्यक्ति नही है और वह निश्चित ही मुगल भू-भाग पर आक्रमण करेगा ।

अकबर ने इस कार्य पर राव रायसिंह, जगन्नाथ, राजा गोपाल और दुसरे स्वामीभक्त अधिकारियों को नियुक्त किया । इनके साथ बङी संख्या में हाथी भेजे गये ताकि कुँवर मानसिंह इनकी सहायता से मिर्जा को प्रभावी ढंग से रोकने व सामना करने में समर्थ हो सके । इतना प्रबंध करके ही अकबर संतुष्ट नहीं हुआ । उसने स्वयं पंजाब कि और बढ़ने का निश्चय किया । उसने मानसिंह को आदेश भेजा कि वह मिर्जा का खुलकर विरोध नहीं करे और उससे सीधा संघर्ष टालते रहे, क्योंकि बादशाह स्वयं अपने सौतेले भाई से अपनी शक्ति मापना चाहता था ।।

जिस समय कुँवर ने अफगान सेनापति शादमान को हराया था, उसने उसके कब्जे से तीन फरमान प्राप्त किये । इन्हें मिर्जा मुहम्मद हकीम ने जारी किये थे । ये हकीम उल मुल्क, मुहम्मद कासिम खान मीर-ए-बहर और ख्वाजा शाह मंसूर के लिये थे ।। ये फरमान इन लोगों द्वारा मुहम्मद हकीम को लिखे हुए पत्रों की स्वीकृति के रुप में थे । इन लोगों ने मिर्जा मुहम्मद हकीम को सभी प्रकार की सहायता का वचन दिया था, अगर वह भारत पर हमला करें । कुँवर ने ये फरमान बादशाह के पास फतेहपुर सीकरी में भेज दिये । मिर्जा के इन पत्रों से शाह मंसूर के प्रति बादशाह को सन्देह हो गया, फलस्वरूप फरवरी 27, 1581 को उसे फाँसी दे दी गयी ।।

जैसा कि अकबर ने संभावना प्रकट की थी मिर्जा मुहम्मद हकीम ने 1581 के प्रारम्भ में पंजाब पर आक्रमण कर दिया । मिर्जा के इस आक्रमण के पिछे कुछ सुनिश्चित कारण थे । अफगान बादशाह को मुगल सरदारों के कुछ पत्र मिले थें । जिनमें प्रमुख असिकाबुली, फरहकुंडी थे । इसके अलावा उसके मामा फरीदन ने भी भारत पर हमला करने के लिये उसे उकसाया था । उसका मानना था कि भारत पर हमला करने का यही उपयुक्त समय है ।

अपनी बात के समर्थन में फरीदन का यह तर्क था कि उस समय पुराने विचारों के मुसलमानों के बंगाल और बिहार में विद्रोह को कुचलने में अकबर व्यस्त था इसलिये पंजाब पर हुए अफगान आक्रमण की ओर वह पूरा ध्यान नहीं दे सकेगा । इस प्रकार मिर्जा मुगल साम्राज्य के पश्चिमी भूभाग पर कब्जा कर सकेगा । यह तर्क मिर्जा हकीम को अच्छा लगा जो स्वयं अपनी पराजय और अपने प्रिय सेनापति शादमान के निधन से बङा दुःखी था ।

फरवरी 1581 में जब अकबर पंजाब जाता हुआ दिल्ली पहुँचा । उसे सूचना मिली कि मिर्जा ने लाहौर में अपना शिविर स्थापित कर लिया है, जो महदी कासिम खान के बाग में है, और राजा भगवन्तदास, कुँवर मानसिंह और सैयद खान ने अपने आपको लाहौर के किले में बन्द कर लिया है । अकबर को यह भी सूचना मिली कि राजा भगवन्तदास और कुँवर मानसिंह काबुल कि सेना का खुले में अच्छे से सामना कर सकते थे, पर यह रणनीति के तहत ऐसा किया कि मिर्जा से टकराव से बचा जाये ।
इसी कारण वह लाहौर किले में बंद ही रहे आक्रमण नही किया ।।

कुँवर मानसिंह आमेर - काबुल के गवर्नर ।

काबुल अभियान के समय काबुल फौजौ को पराजित करना व सेनापति शादमान को मौत के घाट उतारकर कुँवर ने लाहौर का किला फतेह कर चुके थे यह पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है ।


लाहौर का किला जीतने के बाद मिर्जा हाकीम से संघर्ष कि कहानी पुर्तगाली लेखक मोन्सेरेट द्वारा ।।

पुर्तगाली यात्री मोंसेरेट ने कुँवर मानसिंह द्वारा लाहौर पर हुए मिर्जा के हमले का विस्तृत वृतान्त दिया है । उसके कथन है :-

"मिरश्चिमस" (मिर्जा हाकिम) अपने हमले के दौरान लाहौर में पहुँचा और एक बहुत बड़े बाग़ के पूर्वी दिशा में अपना शिविर स्थापित किया । उसने किले के सेनापति मनसीनुस (मानसिंह) जो बागोनदास (भगवन्तदास) का पुत्र था को समर्पण करने का आदेश देता है ।
कुँवर मानसिंह ने उतर दिया की किले की संभाल का वचन दिया है में प्रतिज्ञा नही तोडूंगा, अगर तुम अपने भाग्य की जाँच करना चाहते है तो किले पर हमला बोल दे । मैं तुम्हारा मुकाबला करने को तैयार हूँ, अगर तुम्हें अपनी अधिक ताकतवर सेना का भरोसा है, तो मैं भी अपने आदमियों की वीरता के प्रति आस्वस्त हूँ, जो समर्पण करने के बजाय शीघ्र लड़कर मरना हजार गुणा पसन्द करेंगे ।

अगर तुम हमला बोलकर किले पर अधिकार कर लोगे तो मुझे अपनी जिंदगी की कोई चिंता नही है । मैं तो केवल अपना फर्ज निभा रहा हूँ ।।
इतना होते हुए भी मिरस्चीम्स(मिर्जा हाकिम) यह आशा करत्ते हुए की यह महान नगर उसके हाथों में आ जाएगा उसने नागरिको को प्रसन्न करने की इच्छा करते करते हुए चोरी और लूटपाट की आज्ञा नही दी । नगर के चार दीवारी नहीं थी । उसने सभी नागरिको और व्यापारियों को अश्वासन दिया की उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं करनी चाहिए ।
उसने कहा यह सिर्फ किले के सेनापति मानसिंह के विरुद्ध युद्ध है ।।

मोंसेरेट आगे चलकर लिखता है : "जब मोन्सीन्स(मानसिंह) ने समर्पण से इंकार कर दिया तो मिर्जा को इस लड़ाई को शुरु करने पर दुःख महसुस हुआ । उसने यह जान लिया की कोई भी बड़ा सरदार उसके सामने नही झुकेगा जब तक मानसिंह है, और वह विश्वश्घाती भी जिन्होंने उसे भारत में निमंत्रण किया था, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते दिखाई नही दे रहे थे ।


क्योंकि उसे कोई कुमुक प्राप्त नही हई थी । वह मानसिंह की शक्ति व साधन से डरने लगा था । इस बात पर दुःख प्रकट करना शुरु किया की उसने एक अविचारित आक्रमण पर इतना पैसा खर्च कर दिया जिसकी असफलता पहले ही प्रकट हो चुकी है । उसकी रसद दिन पर दिन कम हो रही है ! उसने यह सोचना शुरु कर दिया लौटना पड़ेगा ।।
क्रमशः

साभार पुस्तक - राजा मानसिंह आमेर


लेखक - राजीव नयन प्रसाद (English)
अनुवाद - डाँ. रतनलाल मिश्र ( Hindi )
#राजा_मानसिंह_आमेर

Wednesday 28 September 2016

दानवीर राजा मानसिंह आमेर

दानवीर राजा मानसिंह आमेर

राजा मानसिहजी आमेर महान दानवीर जब दानवीरो की चर्चा चलती है तो आज तक तीन ही आदमी महान दानवीर हुए है और तीनो ही क्षत्रिय थे, इस विषय पर यह दोहा प्रचलित है ।

बलि बोई कीरत लता कर्ण करे द्वपान ।
सिची मान महिप ने जद देखी कुमलान ।

राजा बलि ने दान की बेलडी बोई और कर्ण ने उस बेलडी के दो पान (पत्ते) लगाए यानी दान की परम्परा को आगे बढाया । ओर जब बेलडी मुरझाने लगी तो राजा मान सिह आमेर ने उसको सिचा ।
यानी दान की महिमा कम होने लगी तो, उसको वापिस प्रारम्भ किया । जो हम देख रहे मान सिह जी की दान की महिमा से इतिहास भरा  पडा है ।

सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2016 जयपुर

Tuesday 13 September 2016

सोरठ

सोरठ

"सोरठ थाने देखिया, जांझा झूलर माँहि ।
जाँणै चमके बीजली, गुदल्हे बादल माँहि ।।"

उँचो गढ गिनार, आबू पे छाया पङे ।
सोरठ रो सिणगार, बादल सूं वातं करे ।।

सोरठ रंग री सांवल्ही, सुपारी रे रंग ।
लूँगा जेङी चरपरी, उङ-उङ लागे अंग ।।

सोरठ गढ़ सूं उतरी, झाँझर रे झणकार ।
धूज्या गढ़ रा काँगरा, गाज्यो गढ़ गिरनार ।।

जिण साँचे सोरठ घङी, घङीयो राव खंगार ।
वो साँचो तो गल्ह गयो, लद ही गयो लुहार ।।

"बिंझा म्हाके आँगणै, नित आवो नित जाय ।
घटकी वेदन बालमा, तो सुं कही न जाय ।।"

"वेदन कहाँ तो मारिजा, कहतां लाज मरांह ।
म्हें करहा थैं बेलङी नीरो तो ही चरांह ।"

"सोरठ थूं छै बहुगुणी, पण इक थोक निवास ।
ज्या सुगणी रे मन बसी, त्या लोही चढे़ न मांस ।।"

सोरठ थां में गुण घणां, रतियन औगण होय ।
गूंदगरी का पेङ ज्यूं कदियन खारो होय ।।

"सोरठ साकर री डल्ही, मुख मेल्यां घुल जाय ।
हिवङे आय बिलूंबतां, हेमालो ढुल्ह जाय ।।"

"सुण बींझा सोरठ कहे, नेह कता मण होय ।
लाग्यां रो लेखो नहीं, टूटा टांक न होय ।।"

"सोरठ सोना रो टको, परहत्थ लो परखाय ।
खोटा कलजुग वापरया, मत पितल व्हे जाय ।।"

सोरठ नागण को रही, ज्यों छेङे ज्यूं खाय ।
आ जा बिंझा गारुङी, ले जा कण्ठ लगाय ।।

Friday 9 September 2016

राजा मानसिंह आमेर एक सनातन धर्म रक्षक ।

राजा मानसिंह आमेर और सनातन धर्म

आमेर के इतिहास प्रसिद्ध राजा मानसिंह सनातन धर्म के अनन्य उपासक थे. वे सनातन धर्म के सभी देवी और देवताओं के भक्त थे व स्वधर्म में प्रचलित सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करते थे| उनकी धार्मिक आस्था पर भले ही समय समय पर किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रभाव रहा हो, पर वे हमेशा एक आम राजपूत की तरह अपने ही कुलदेवी, कुलदेवता व इष्ट के उपासक रहे| अपनी दीर्घकालीन वंश परम्परा के अनुरूप राजा मानसिंह ने सभी सम्प्रदायों के संतों का आदर किया पर उनके जीवन पर रामभक्त संत दादूदयाल का सर्वाधिक प्रभाव रहा. यद्धपि राजा मानसिंह सनातन धर्म के दृढ अनुयायी रहे फिर भी वे धर्मान्धता और अन्धविश्वास से मुक्त धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत थे. जिसकी पुष्टि रोहतास किले में एक पत्थर पर उनके द्वारा उत्कीर्ण करवाई एक कुरान की आयात से होती है, जिसमें कहा गया है कि- "धर्म का कोई दबाव नहीं होता, सच्चा रास्ता झूठे रास्ते से अलग होता है|"
राजा मानसिंह के काल में अकबर ने धर्म क्षेत्र में नया प्रयोग किया और अपने साम्राज्य में एक विश्वधर्म की स्थापना के लिए "दीने इलाही" धर्म विकसित किया| राजा मानसिंह अकबर के सर्वाधिक नजदीकी व्यक्ति थे, फिर भी अकबर की लाख कोशिशों के बाद भी वे अपने स्वधर्म से एक इंच भी दूर हटने को तैयार नहीं हुये| अकबर के दरबारी इतिहासकार बदायुनी का कथन है कि "एक बार 1587 में जब राजा मानसिंह बिहार, हाजीपुर और पटना का कार्यभार संभालने के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे तब बादशाह ने उसे खानखाना के साथ एक मित्रता का प्याला दिया और दीने इलाही का विषय सामने रखा| यह मानसिंह की परीक्षा लेने के लिए किया गया| कुंवर ने बिना किसी बनावट के कहा अगर सेवक होने का मतलब अपना जीवन बलिदान करने की कामना से है तो मैंने अपना जीवन पहले ही अपने हाथ में ले रखा है| ऐसे में और प्रमाण की क्या जरुरत| अगर फिर भी इस बात का दूसरा अर्थ है और यह धर्म से सम्बन्धित है तो मैं निश्चित रूप से हिन्दू हूँ|"
Raja Man Singh Amer and Hinduism
इस तरह राजा मानसिंह ने अकबर द्वारा मित्रतापूर्वक धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने स्वधर्म में अप्रतिम आस्था प्रदर्शित की| रॉयल ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के जरनल में मि. ब्लौकमैन ने अपने लेख में लिखा है- "अकबर के अनुयायी मुख्यरूप से मुसलमान थे| केवल बीरबल को छोड़कर जो आचरणहीन था, दूसरे किसी हिन्दू सदस्य का नाम धर्म परिवर्तन करने वालों में नहीं था| वृद्ध राजा भगवंतदास, राजा टोडरमल और राजा मानसिंह अपने धर्म पर दृढ रहे यद्धपि अकबर ने उनको परिवर्तित करने की चेष्टा की थी|
राजा मानसिंह ने सनातन धर्म शास्त्रों के साथ साथ कुरान का भी गहन अध्ययन किया था और उसकी मूलभूत बातों से वे परिचित थे| मुंगेर में दौलत शाह नाम के एक मुस्लिम संत ने भी राजा मानसिंह को इस्लाम की शिक्षाओं से प्रभावित कर उनका धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश की पर राजा मानसिंह मानते थे कि परमात्मा की मोहर सबके हृदय पर है| यदि किसी की कोशिश से मेरे हृदय का वह ताला हटा सकती है तो मैं उसमें तत्काल विश्वास करने लग जावुंगा| यानी वह किसी भी धर्म को तभी स्वीकार करने को तैयार है बशर्ते वह धर्म उनके मन में सत्यज्ञान का उदय कर सके| इस तरह अकबर के साथ कई मुस्लिम सन्तों की चेष्टा भी राजा मानसिंह की स्वधर्म में अटूट आस्था को नहीं तोड़ सकी| राजा के निजी कक्ष की चन्दन निर्मित झिलमिली पर राधाकृष्ण के चित्रों का चित्रांकन राजा मानसिंह की सनातन धर्म में अटूट आस्था के बड़े प्रमाण है| आमेर राजमहल में राजा मानसिंह का निजी कक्ष में विश्राम के लिए अलग कक्ष व पूजा के लिए अलग कक्ष व पूजा कक्ष के सामने एक बड़ा तुलसी चत्वर, राजमहल के मुख्य द्वार पर देवी प्रतिमा राजा मानसिंह के धार्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए काफी है|

राजा मानसिंह ने अपने जीवनकाल में कई मंदिरों का निर्माण, कईयों का जीर्णोद्धार व कई मंदिरों के रख रखाव की व्यवस्था कर सनातन के प्रचार प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई| यही नहीं राजा मानसिंह ने सनातन मंदिरों के लिए अकबर के खजाने का भरपूर उपयोग किया और दिल खोलकर अकबर के राज्य की भूमि मंदिरों को दान में दी| बनारस में राजा मानसिंह ने मंदिर व घाट के निर्माण पर अपने एक लाख रूपये के साथ अकबर के खजाने से दस लाख रूपये खर्च कर दिए थे, जिसकी शिकायत जहाँगीर ने अकबर से की थी, पर अकबर ने उसकी शिकायत को अनसुना कर मानसिंह का समर्थन किया|
राजा मानसिंह ने अपने राज्य आमेर के साथ साथ बिहार, बंगाल और देश के अन्य स्थानों पर कई मंदिर बनवाये| पटना जिले बरह उपखण्ड के बैंकटपुर में राजा मानसिंह ने एक शिव मंदिर बनवाया और उसके रखरखाव की समुचित व्यवस्था की जिसका फरमान आज भी मुख्य पुजारी के पास उपलब्ध है| इसी तरह गया के मानपुर में भी राजा ने एक सुन्दर शिव मंदिर का निर्माण कराया, जिसे स्वामी नीलकंठ मंदिर के नाम से जाना जाता है| इस मंदिर में विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति की प्रतिमाएं भी स्थापित की गई थी| मि. बेगलर ने बंगाल प्रान्त की सर्वेक्षण यात्रा 1872-73 की अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि- "राजा मानसिंह ने बड़ी संख्या में मंदिर बनाये और पुरानों का जीर्णोद्धार करवाया| ये मंदिर आज भी बिहार में बंगाल के उपखंडों में विद्यमान है| रोहतास किले में भी राजा मानसिंह द्वारा मंदिर बनवाये गए थे|
मथुरा के तत्कालीन छ: गुंसाईयों में से एक रघुनाथ भट्ट के अनुरोध पर राजा मानसिंह ने वृन्दावन में गोविन्ददेव का मंदिर बनवाया था|
आमेर के किले शिलादेवी का मंदिर भी राजा मानसिंह की ही देन है| शिलादेवी की प्रतिमा राजा मानसिंह बंगाल में केदार के राजा से प्राप्त कर आमेर लाये थे| परम्पराएं इस बात की तस्दीक करती है कि राजा मानसिंह ने हनुमान जी की मूर्ति को और सांगा बाबा की मूर्ति को क्रमश: चांदपोल और सांगानेर में स्थापित करवाया था| आज भी लोक गीतों में गूंजता है-
आमेर की शिलादेवी, सांगानेर को सांगा बाबो ल्यायो राजा मान|
आमेर में जगत शिरोमणी मंदिर का निर्माण कर उसमें राधा और गिरधर गोपाल की प्रतिमाएं भी राजा मानसिंह द्वारा स्थापित करवाई हुई है|
मंदिर निर्माणों के यह तो कुछ ज्ञात व इतिहास में दर्ज कुछ उदाहरण मात्र है, जबकि राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के अनुयायियों हेतु पूजा अर्चना के के कई छोड़े बड़े असंख्य मंदिरों का निर्माण कराया, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया और कई मंदिरों के रखरखाव की व्यवस्था करवाकर एक तरह से सनातन धर्म के प्रसार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई|
पर अफ़सोस जिस राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के प्रसार से इतना सब कुछ किया आज उसी राजा मानसिंह को वर्तमान हिन्दुत्त्ववादी कट्टर सोच के लोग अकबर का चरित्र हनन करते समय मानसिंह का भी चरित्र हनन कर डालते है| मानसिंह ने राणा प्रताप के खिलाफ युद्ध लड़ा, उसके लिए वे राणा के दोषी हो सकते है, लेकिन मानसिंह ने अकबर जैसे विजातीय के साथ अपने पुरखों द्वारा उस समय की तत्कालीन आवश्यकताओं व अपने राज्य के विकास हेतु की गई संधि को निभाते हुये, उसी की सैनिक ताकत से हिदुत्त्व की जो रक्षा की वह तारीफे काबिल है। लेकिन अफसोस वर्तमान पीढी बिना इतिहास पढ़े देश की वर्तमान परिस्थियों से उस काल की तुलना करते उनकी आलोचना करने में जुटी रहती है|
साभार- ज्ञान दर्पण ।।

राजा मानसिंह आमेर व मंदिरों का पंचरंगा ध्वज ।

मंदिरों पर पंचरंगा ध्वज और राजा मानसिंह आमेर

किसी भी राजा या धर्म की ध्वजा उनके वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बल और इष्टदेव का प्रतीक होता है। हर राजा, देश या धर्म की अपनी अपनी अलग अलग रंग की ध्वजा (झण्डा) होती है। सनातन धर्म के मंदिरों में भगवा व पंचरंगा ध्वज लहराते नजर आते है।
भगवा रंग सनातन धर्म के साथ वैदिक काल से जुड़ा है, हिन्दू साधू वैदिक काल से ही भगवा वस्त्र भी धारण करते आये है। लेकिन मुगलकाल में सनातन धर्म के मंदिरों में पंचरंगा ध्वज फहराने का चलन शुरू हुआ। जैसा कि ऊपर बताया जा चूका है ध्वजा वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बल और इष्टदेव का प्रतीक होती है।
अपने यही भाव प्रकट करने के लिए आमेर के राजा मानसिंह ने कुंवर पदे ही अपने राज्य के ध्वज जो सफ़ेद रंग का था को पंचरंग ध्वज में डिजाइन कर स्वीकार किया।
राजा मानसिंहजी ने मुगलों से सन्धि के बाद अफगानिस्तान (काबुल) के उन पाँच मुस्लिम राज्यों पर आक्रमण किया, जो भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे, व बदले में भारत से लूटकर ले जाए जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे।
राजा मानसिंह ने उन्हें तहस-नहस कर वहाँ के तमाम हथियार बनाने के कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली मशीनों व कारीगरों को वहाँ से लाकर जयगढ़ (आमेर) में शस्त्र बनाने का कारखाना स्थापित करवाया। इस कार्यवाही के परिणाम स्वरूप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बन्द हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्र करने का अवसर प्राप्त हुआ।
यही नहीं राजा मानसिंह आमेर ने भारतवर्ष में जहाँ वे तैनात रहे वहां वहां उन्होंने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया व नए नए मंदिर बनवाये। मंदिरों की व्यवस्था के लिए भूमि प्रदान की. उड़ीसा में पठानो का दमन कर जगन्नाथपुरी को मुसलमानों से मुक्त कर वहाँ के राजा को प्रबन्धक बनाया। हरिद्वार के घाट, हर की पैडियों का भी निर्माण भी मानसिंह ने करवाया।

मानसिंहजी की इस कार्यवाही को तत्कालीन संतों ने पूरी तरह संरक्षण व समर्थन दिया तथा उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति में हर की पेड़ियों पर उनकी विशाल छतरी बनवाई। यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पाँच यवन राज्यों की विजय के चिन्ह स्वरूप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गई व मन्दिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा। नाथ सम्प्रदाय के लोग "गंगामाई" के भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यशोगान आज भी गाते।
आमेर राज्य के सफ़ेद ध्वज की जगह पंचरंग ध्वज के पीछे की कहानी-
इतिहासकार राजीव नयन प्रसाद ने अपनी पुस्तक "राजा मानसिंह" के पृष्ठ संख्या 111 पर जयपुर के पंचरंग ध्वज के बारे में कई इतिहासकारों के सन्दर्भ से लिखा है- "श्री हनुमान शर्मा ने अपनी पुस्तक "जयपुर के इतिहास" में लिखा है कि जयपुर पंचरंगा ध्वज की डिजाइन मानसिंह ने बनायी थी। जब वह काबुल के गवर्नर थे। इसके पहले राज्य का ध्वज श्वेत रंग था।
श्री शर्मा आगे चलकर कहते है कि जब मनोहरदास जो मानसिंह का एक अधिकारी था, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश के अफगानों से लड़ रहा था। उसने लूट के माल के रूप में उनसे भिन्न-भिन्न पांच रंगों के ध्वज प्राप्त किये थे। ये ध्वज नीले, पीले, लाल, हरे और काले रंग के थे।
मनोहरदास ने कुंवर को सुझाव दिया कि राज्य का ध्वज कई रंगों का होना चाहिये केवल श्वेत रंग का नहीं। इस सुझाव को शीघ्र स्वीकार कर लिया गया। उस समय से जयपुर राज्य का ध्वज पांच रंगों वाला हो गया। ये रंग है नीला, पीला, लाल और काला।
श्री शर्मा के कथन के पीछे स्थानीय परम्परा है। जयपुर के लोग इस कथन की पुष्टि करते है कि राज्य का पंचरंगा झण्डा सबसे पहले कुंवर मानसिंह ने तैयार किया था। उस समय वे काबुल के गवर्नर थे। इसके अतिरिक्त श्री पट्टाभिराम शास्त्री जो महाराजा संस्कृत कालेज जयपुर के प्रिंसिपल थे ने अपने जयवंश महाकाव्य की भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया कि जयपुर के पंचरंग ध्वज की कल्पना मानसिंह द्वारा की गई थी।"
रियासती काल में झंडे की वंदना में यह उल्लेखित है:-
मान ने पांच महीप हराकर,
पचरंगा झंडा लहराकर,
यश से चकित किया जग सारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा। (मदनसिंह जी झाझड़)
साभार - ज्ञान दर्पण ।

राजा मानसिंह आमेर व काबुल अभियान ।

राजा मानसिंह आमेर
ये लाल किले ये मोती मस्जिद हाय-हाय क्या सुना रही ।
काबुल मे जाकर के देखो कबरे अब भी सिसक रही ।।
राजा मान सिंह आमेर एक अपराजित योद्धा थे, इन्होंने 77 बड़े युद्ध लङे थे ।
उतर भारत मे ये जहाँ भी युद्ध करने गए उस राज्य को जीता, अगर वहाँ का शासक हिन्दू था तो उससे अधिनता स्वीकार करवा कर, कर वसूल कर छोड़ दिया उसे नष्ट नही किया । जहाँ मुस्लिम थे उनका राज्य छीन कर विश्वासी राजपूत को सौंप दिया ।।
जिसका उदाहरण आज भी बिहार, उङीसा, बंगाल मे बहुत से राजपूत है जो उनके काल मे राजस्थान से गए ।
ना उन्होंने प्रताप से हुवे युद्धों के बाद मेवाड़ को लुटा ना लुटने दिया ।
मान सिंह धर्म के अनुयायी थे उन्होंने वृन्दावन मे गोविन्ददेव जी का मन्दिर बनवाया ।
आमेर मे जगत शिरोमणि जी का विशाल मन्दिर बनवाया ।
मानसिंह आमेर का स्वर्णवास दक्षिण के इलिचपुर मे ई. स. 1614 को हुआ ।
अफगानिस्तान मे पाँच मुस्लिम राज्य थे, जहाँ पर भारी मात्रा मे आधुनिक शस्त्रों का उत्पादन किया जाता था ।
वे भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे, बदले मे भारत से लुटे धन का आधा भाग लेते थे ।
ऐसी स्थिति मे राजा मान सिंह आमेर ने अकबर से सन्धि कर काबुल स्थिति उन पाँच राज्यों को तहस-नहस किया । काबुल मे राजा मान के नाम से पठानो मे इतनी दहशत फैली कि स्त्रियाँ अपने बच्चों से कहती सो जा बेटा नही तो सरदार मान सिंह आ जायेंगे ।
मान सिंह ने वहाँ तमाम अस्त्र-शस्त्र के कारखानों को नष्ट कर दिया, और श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली मशीनों व कारीगरों को वहाँ से लाकर जयगढ़ मे शस्त्र कारखाना स्थापित करवाया ।
इस कार्यवाही के परिणाम स्वरूप ही भारत पर यवन आक्रमण बन्द हुवे । और बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत मे अपनी शक्ति एकत्र करने का अवसर मिला ।
मान सिंह के लिये लोगों के जबान से सुनाई देता था-
"माई एङौ पूत जण, जैङो मान मरद ।
समदर खाण्डो पखारियो, काबुल पाङी हद

राजा मानसिंह आमेर व काबुल

राजा मानसिंह आमेर का काबुल अभियान
मात सुणावै बालगां, खौफ़नाक रण-गाथ |
काबुल भूली नह अजै, ओ खांडो, ऎ हाथ ||
काबुल की भूमि अभी तक यहाँ के वीरों द्वारा किये गए प्रचंड खड्ग प्रहारों को नहीं भूल सकी है | उन प्रहारों की भयोत्पादक गाथाओं को सुनाकर माताएं बालकों को आज भी डराकर सुलाती है |
महमूद गजनी के समय से ही आधुनिक शास्त्रों से सुसज्जित यवनों के दलों ने अरब देशों से चलकर भारत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया था | ये आक्रान्ता काबुल (अफगानिस्तान)होकर हमारे देश में आते थे अफगानिस्तान में उन दिनों पांच मुस्लिम राज्य थे ,जहाँ पर भारी मात्रा में आधुनिक शास्त्रों का निर्माण होता था वे भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे बदले में भारत से लूटकर ले जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे |
इस प्रकार काबुल का यह क्षेत्र उस समय बड़ा भारी शस्त्र उत्पादक केंद्र बन गया था जिसकी मदद से पहले यवनों ने भारत में लुट की व बाद में यहाँ राज्य स्थापना की चेष्टा में लग गए | इतिहासकारों ने इस बात को छुपाया है कि बाबर के आक्रमण से पूर्व बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू शासकों के परिवारजनों व सेनापतियों ने राज्य के लोभ में मुस्लिम धर्म अपना लिया था और यह क्रम बराबर जारी था |
ऐसी परिस्थिति में आमेर के शासक भगवानदास व उनके पुत्र मानसिंह ने मुगलों से संधि कर अफगानिस्तान (काबुल) के उन पांच यवन राज्यों पर आक्रमण किया व उन्हें इस प्रकार तहस नहस किया कि वहां आज तक भी राजा मानसिंह के नाम की इतनी दहशत फैली हुई है कि वहां की स्त्रियाँ अपने बच्चों को राजा मानसिंह के नाम से डराकर सुलाती है | राजा मानसिंह ने वहां के तमाम हथियार बनाने वाले कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली मशीनों को वहां लाकर जयगढ़ (आमेर) में स्थापित करवाया |
इस कार्यवाही के परिणामस्वरुप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बंद हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ | मानसिंह की इस कार्यवाही को तत्कालीन संतो ने भी पूरी तरह संरक्षण दिया व उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति में हर की पेड़ियों पर उनकी एक विशाल छतरी बनवाई | यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पांच यवन राज्यों पर विजय के चिन्ह स्वरुप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गयी व मंदिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा |
आज भी लोगों की जबान पर सुनाई देता है -
माई एडो पूत जण, जैडौ मान मरद |
समदर खान्ड़ो पखारियो ,काबुल पाड़ी हद ||
नाथ सम्प्रदाय के लोग गंगामाई के भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यश गान आज भी गाते है |
स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील

राजा मानसिंह आमेर कि उङीसा पर चढाई ।


उड़ीसा पर चढ़ाई - राजा मानसिंह आमेर ।


जब उड़ीसा प्रान्त के बलवाइयों ने फिर से सिर उठाया, तब 35 साल के मान सिंह जी ने झारखंड के रास्ते से उड़ीसा पर चढ़ाई की, उड़ीसा प्रान्त के शासनकर्ता हमेशा अलग शासन करते थे। इससे कुछ पहले प्रतापदेव नामक राजा था, जिसके पुत्र वीरसिंह देव ने अपने बुरे स्वभाव के कारण पिता का पद लेना चाहा और अवसर मिलने पर उसे विष दे दिया, जिससे वह मर गया।

तेलंगाना से आकर मुकुंददेव नामक एक पुरुष इनके यहाँ पर नौकर हो चुका था। वह इस बुरे काम से घबरा कर पुत्र से बदला देने की फ़िक्र में पड़ा। उसने यह प्रकट किया कि मेरी स्त्री मुझे देखने आती है। इस प्रकार बहाना कर शस्त्रों से भरी हुई डोलियाँ दुर्ग में जाने लगीं और बहुत सा युद्ध का सामान दो सौ अनुभवी मनुष्यों के साथ दुर्ग में पहुँच गया।

वहाँ उसका काम जल्दी समाप्त हो गया और उसे सरदारी मिल गई। यह कोई अच्छी चाल नहीं है कि पूर्वजों के संचित कोष पर राजा अधिकार कर ले; पर इसने कोष के सत्तर तालों को तोड़कर उनमें का संचित धन ले लिया। यद्यपि इसने दान बहुत किया, पर यह आज्ञापालन के रास्ते से हट गया।

सुलेमान किर्रानी ने, जिसका बंगाल पर अधिकार हो गया था, अपने पुत्र वायजीद को झारखण्ड के रास्ते से इस प्रान्त पर भेजा और इसकंदर ख़ाँ उजबेग़ को, जो अकबर के पास विद्रोह करके सुलेमान किर्रानी के पास चला आया, था साथ कर दिया।

राजा ने अपने सुख के कारण दो सेनाएँ झपटराय और दुर्गा तेज़ के अधीन भेजी। ये दोनों स्वामीद्रोही शत्रु के सेनाध्यक्षों से मिल कर युद्ध से लौट आए। बड़ी अतिष्ठा हुई। निरुपाय होकर राजा ने शरीर का त्यागना विचार कर बायजीद का सामना किया। उसकी अधीनता में घोर युद्ध हुआ। जिसमें राजा और झपटराय मारे गए तथा दुर्गा तेज़ सरदार हुआ। सुलेमान ने उसको कपट से अपने पास बुलवा कर मरवा डाला और प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया[3]।

मुनइम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ और ख़ानेजहाँ तुर्कमान की सूबेदारी में उस प्रान्त से बहुतेरे सरदार साम्राज्य में चल आए। बंगाल के सरदारों की गड़बड़ी में कतलू ख़ाँ लोहानी वहाँ प्रबल हो उठा। जब राजा उसी वर्ष प्रान्त में गया, तब कतलू ने उन पर चढ़ाई की।

जब बादशाही सेना परास्त हो गई, तब राजा दृढ़ नहीं रह सकते थे। पर कतलू (जो की बीमार था) एकाएक मर गया और उसके प्रधान ईसा ने उसके छोटे पुत्र नसीर ख़ाँ को सरदार बनाकर राजा से संधि कर ली। राजा जगन्नाथ जी का मन्दिर उसकी भूसम्पत्ति सहित लेकर बिहार लौट गए। यह मन्दिर हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है और परसोतम नगर में समुद्र के पास है। उसमें श्रीकृष्ण जी, उनके भाई और बहिन की चंदन की मूर्तियाँ हैं।