जब भी हम राजतंत्र के बारे में पढ़ते हैं तो पाते हैं की जनमानस में राजतंत्र मे महाराजा, राजा, जागीरदार, ठिकानेदार या सामंतो के खिलाफ असंतोष नहीं था बल्कि असंतोष उन लोगों के खिलाफ था जो राजतन्त्र मे आज की तरह प्रशासन मे बैठे थे, मज्जे की बात यह हैं की यह प्रशासन मे बैठे लोग राजा, महाराजा, जागीरदार, ठिकानेदारों के परिवारिक सदस्य, रिस्तेदार या आम राजपूत नहीं होते थे, यह वही लोग होते थे जिन लोगों ने, उनके परिवारो ने या उनकी जाति के लोगों ने राजतंत्र, महाराजा व राजपूत के खिलाफ आजादी के बाद जहर उगला उन्हें खलनायक बनाया।
इस तथ्य को समझने के लिए हमें राजतन्त्र के समय की एक घटना को जानना होगा, यह घटना 1922-25 के बिच की हैं ज़ब मारवाड़ के महाराजा उम्मेद सिंह जी थे।
उम्मेद सिंह जी ज़ब महाराजा बने तो वह नाबालिक थे तो राज्य का शासन ब्रिटिश रेजिडेंट की सलाह से रीजेंसी कौंसिल द्वारा चलता था और उस कौंसिल के अध्यक्ष महाराजा के दादा सर प्रताप थे। 1 सितम्बर 1922 को उनका देहांत हो गया उसके पश्चात कौंसिल के अध्यक्ष पंडित सर सुखदेवप्रसाद काक हुवे। पंडित सर सुखदेवप्रसाद काक का राज्य शासन पर प्रभाव कई वर्षों से था और ये ब्रिटिश सरकार के भी कृपापात्र थे। इनके शासन काल में जनता में कई छोटे-मोटे प्रकरणों को लेकर असंतोष फैलने लगा । इन्होंने राज्य से जागीर भी प्राप्त कर रखी थी।
27 जनवरी 1923 को महाराजा उम्मेदसिह के वयस्क होने पर उन्हें राज्याधिकार प्राप्त हो गए, परन्तु प्रधानमंत्री का पद सर सुखदेवप्रसाद काक के पास ही रहा। उनकी शासन पद्धति से लोगों में असंतोष फैलने लगा और समय-समय पर मारवाड़-हितकारिणी-संभा इनके विरुद्ध आवाज उठाती रहती थी।
मार्च, 1925 में महाराजा उम्मेदसिंह ने जोधपुर की सुप्रसिद्ध पोलो टीम को इग्लैण्ड ले जाने का कार्यक्रम बनाया। इस यात्रा में महारानी व महाराजकुमार हनवंतसिंह को भी साथ लेजाना निश्चित हुआ । इस बात का पता जब जनता को लगा तो उसने महाराजा को बिलायत जाने से रोकने का प्रयत्न किया। मारवाड़-हितकारिणी-सभा इन प्रयत्नों में अगुआ थी। दिखाने के लिए तो मुख्य कारण यह बताया गया कि महारानी सदा पर्दे में रहती आई थी और विदेश यात्रा में पर्दा समाप्त होने का भय था। यह भी कहा गया कि महारानी गर्भवती हैं और इंग्लैण्ड में इन्फल्युएंजा का रोग फैला हुआ है अतः महाराजा को इंगलैण्ड नहीं जाना चाहिए। परंतु वास्तविक कारण था मारवाड़-हितकारिणी सभा के नेताओं का यह भय कि महाराजा की अनुपस्थिति में सर सुखदेवप्रसाद निरंकुशता से शासन करेगे व उन लोगों को सताएंगे। (यहां यह बात नोट करने वाली हैं की प्रशासनिक तौर पर जनमानस पंडित सर सुखदेवप्रसाद काक से परेशान था ना की राजा या राजपूतों से )
25 फरवरी 1925 को मारवाड़ हितकारिणी सभा के नेताओं ने महाराजा की सेवा में एक ज्ञापन प्रस्तुत किया जिसमें उपरोक्त बातों के अतिरिक्त यह भी मांग की गई कि यदि महाराजा का इंग्लैण्ड जाना अत्यन्त आवश्यक ही हो तो कम से कम उनकी अनुपस्थिति में राज्य का शासन पंडित सर सुखदेवप्रसाद के हाथों में न देकर महाराजा अपने भाई महाराज अजीतसिंह को सौंप दें।(यहां यह बात नोट की जानी चाहिए की जनमानस का विश्वास पंडित सर सुखदेवप्रसाद काक मे नहीं था लेकिन महाराजा के भाई पर विश्वास था की वह न्यायपूर्ण शासन करेंगे )
महाराजा यह मांग नहीं मान सकते थे क्योंकि अजीतसिंह भी उनके साथ जा रहे थे। महाराजा के प्रस्थान के तीन दिन पहले, अर्थात् 18 मार्च, 1925 को लगभग दो हजार लोगों की भीड़ राइकाबाग राजमहल पहुंची और महाराजा को ज्ञापन पेश किया तथा मांग की कि इंग्लैण्ड जाने से पूर्व वे सर सुखदेवप्रसाद को उनके पद से हटा दें।
सर सुखदेव ने 20 मार्च को मारवाड़-हितकारिणी सभा के प्रमुख नेता चांदमल सुराणा, प्रताप चन्द सोनी और शिवकरण जोली को मारवाड़ से निष्कासित कर दिया। सभा के प्रमुख कार्यकताओं में से जयनारायण व्यास, आनन्दराज सुराणा, कस्तूरकरण, अब्दुल रहमान और अमरचंद को दस नंबरी घोषित करके पुलिस की निगरानी में रखा गया । (यहां यह बात नोट की जाये की पंडित सर सुखदेवप्रसाद काक जिनके वंशज आज राजपूतों को खलनायक घोषित करते हैं वह किस तरह का प्रशासन देख रहे थे महराजा की अनुपस्थिति में )
अक्टूबर, 1925 में जब महाराजा सपरिवार इंग्लैण्ड से लौटे तो सुराणा, सोनी और जोशी ने महाराजा से प्रार्थना की कि वे कई महीनों तक निष्कासन में रह चुके हैं अतः उन्हें मारवाड़ में पुनः आने की अनुमति प्रदान की जाय ।
जयनारायण व्यास आदि जिन नेताओं को दस नम्बरी करार दिया था, उन्होंने भी महाराजा से माफी मांग ली। महाराजा ने सभी को क्षमा कर दिया ।
आजकल स्वतंत्रा-संग्राम के बारे में लिखी जाने वाली कई पुस्तकों में उल्लेख किया जा रहा है कि उपरोक्त नेताओं व कार्यकताओं ने क्षमायाचना नहीं की थी। परंतु सही तथ्य यह है कि उन्होंने क्षमायाचना ही की थी। इस बात की पुष्टि के लिए महाराजा उम्मेदसिंह के उस अंग्रेजी पत्र का अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है जो उन्होंने 15 दिसम्बर 1925 को सर सुखदेवप्रसाद को लिखा था ।
राजमहल, जोधपुर
राजपूताना
25 दिसम्बर, 1925
प्रिय पंडित साहब,
जयनारायण व्यास, किस्तूरकरण, अमरचंद और अब्दुल रहमान ने क्षमायाचना की है। मैने यह याचना स्वीकार कर ली है ।
अब्दुल रहमान को आज ही मुक्त कर दिया जाय ।
पुलिस विभाग के महानिरीक्षक को कहा जाय कि वे जयनारायण व्यास, किस्तूरकरण, अमरचंद, आनदराज और अब्दुल रहमान के नाम नंबर 10 रजिस्टर से हटायें ।
इस विषय में जो मुकदमा मारवाड़ दंड संहिता की धारा 174 के अन्तर्गत जोधपुर की कोतवाली अदालत में चल रहा है उसे भी वापस ले लिया जाय।
आपका सद्भावी,
उम्मेदसिह
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि सन् 1925 में जो आवाज उठाई गई वह वास्तव में एक अधिकारी विशेष सर सुखदेवप्रसाद के विरुद्ध थी न कि महाराजा या राज्यशासन के। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जनता को महाराजा के प्रति पूर्ण विश्वास व श्रद्धा थी, और महाराजा भी प्रजा के प्रति कृपा व संवेदन- शीलता का रुख रखते थे।
पुस्तक - एक महाराजा की अन्तर्कथा
लेखक - ओंकार सिंह बाबरा
संकलन - कुँ. बलवीर राठौड़ डढ़ेल
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