कुँवर मानसिंह आमेर - काबुल अभियान (काबुल-जालालाबाद के अधिकारीयों का आत्म-समर्पण )
कुँवर जब काबुल से जलालाबाद पहुंचे तो कछवाहा सेना के आगे जालालाबाद के अधिकारी आत्म समर्पण कर देते है । काबुल मानसिंह के कदमों में पङा था । मानसिंह ने काबुलियों को धीरज दिया व अपने संरक्षण में लिया ।
काबुल में शाँति स्थापित करने के बाद मानसिंह अकबर से मिलने पंजाब पहुँचे । उन्होंने अपने बङे पुत्र जगतसिंह और ख्वाजा समसुद्दीन खां को काबुल में छोड़ा ताकि वे वहाँ का काम देखते रहें, और काबुलियों पर सतर्क होकर नजर रखें । यह दिसम्बर 1585 कि बात है सभी काबुल मुख्य सरदारों को उन्होंने अपने आधीन कर लिया था ।
सभी को मानसिंह ने अधिनता स्वीकारने के बाद अकबर से सलाह के बाद नई जागीरे व इनाम दिये व उचित स्थान दिया । काबुल के अमीरों को भी अकबर की और से कई ईनाम मिले ।
जयपुर के पोथी खाने की वंशावली के अनुसार कुँवर को काबुल में अपनी योग्यताभरी सेवाओं के लिये विशेष सम्मान दिया गया ।
काबुल में मानसिंह के महिमामय कृत्यों से अकबर अत्यधिक प्रसन्न था । वह उनकी संगठन की क्षमता से बहुत प्रभावित था । निश्चय ही, ऐसे सुदुर देश में जो मुगल प्रभाव क्षेत्र से काफी दूर पङता था । विद्रोही अफगानों को नियंत्रण में लाना और अराजकता में शांति स्थापना करना एक अद्भुत कार्य था । कुँवर को उसकी योग्यता के अनुरूप पारितोषिक मिले । उन्हें काबुल का गवर्नर बनाया गया और सीमान्त प्रदेश के रोशनियो(धर्मान्ध आंतकवादि) को कुचलने और दण्डित करने के कार्य का भी अधिकार दिया गया ।
यह रोशनिया(धर्मान्ध आंतकवादि) भयंकर अफगानि थे जो बहुदा खैबर दर्रे पर और राजमार्ग पर लूटपाट किया करते थे और इस प्रकार इन्होंने यात्रियों की यात्रा असुरक्षित बना दी थी । मानसिंह को सौंपा गया यह काम बङा कठिन और जिम्मेवारी पूर्ण था, पर उन्होंने सौंपे गये कठिन कार्य को बखुबी अंजाम देकर अपने आपको सफल बनाया ।।
रोशनियों को दंडित करने का एक अवसर मानसिंह को शीघ्र अपने आप मिल गया । ये लोग खैबर दर्रे के पास और आसपास बङी अशांति उत्पन्न करते थे । मानसिंह को पता लगा कि मीर कुरैशी, जो तुरान के बादशाह अबदुल्लाह खान का राजदूत था, बादशाह से मिलने आ रहा था । इसलिए मानसिंह ने भाई माधोसिंह को
काफिले में शामिल होने के लिये भेजा ताकि वह सुरक्षित खैबर दर्रे से ले आये ।।
यह कार्य रोशनियों की लूटमार से असंभव हो गया था । माधोसिंह खैबर में घुसे और मीर कुरैशी के काफिले में शामिल हो गयेष। मानसिंह स्वयं अली मस्जिद के किले तक आये जो दर्रे के बिल्कुल नजदीक था वह सेना की छोटी टुकङी के साथ थे ।
रोशनियां जिन्हें तारीकी कहा जाता है ने छोटी सेना का फायदा उठाकर कुँवर मानसिंह पर हमला बोल दिया । एक अँधेरी रात में अली मस्जिद के किले को घेर लिया और उनमें से कई किले के शीर्ष भाग पर जा पहुँचे । मानसिंह ने छोटी सेना होते हुए भी इस आक्रमण को पीछे खदेड़ दिया और शत्रुओं को दुसरे स्थान पर पीछे जाने को विवश कर दिया । दुसरे दिन सुबह तक विद्रोही तारीकियों को बाहर निकाल दिया गया । उनमें से बहुत से मारे गये । बङी संख्या में उनको बन्दी बना लिया गया । इसका प्रतिफल यह हुआ कि तुरान राजदूत ने केवल खैबर दर्रा ही पार नहीं कर लिया अपितु सुरक्षित उसे सिन्ध के पार पहुंचा दिया ।।
साभार पुस्तक- राजा मानसिंह आमेर
लेखक - राजीव नयन प्रसाद
अनुवाद- डा रतनलाल मिश्र
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