मेरी जीवन-गाथा (39)
ठा. ओंकारसिंह, आई. ए. एस. (से. नि.)
जय नारायण व्यासजी ने एक बड़ी गलती कि - महाराजा हनवन्तसिंहजी के सप्तऋषियों को बिना किसी विधिक कार्यवाही के पुन: नियुक्ति दे दी।
जय नारायण व्यासजी से एक अन्य बड़ी गलती हो गई। जोधपुर राज्य में महाराजा हनवन्तसिंहजी के राज्यकाल में दीवान पी.एस. राव आई.सी.एस. ने राज्य को प्रशासनिक सेवा के कई अधिकारी, जो परगनों के हाकिम बखास्तगी विधि अनुसार महाराजा की अनुमति से की गयी थी। श्री राव इन लोगों को 'सप्तऋषि' कहते थे। व्यासजी ने इन सप्तऋषियों को बिना किसी विधिक कार्यवाही के पुन: नियुक्ति दे दी। इससे व्यासजी को बड़ी बदनामी हुई और उनके विरोधी कांग्रेसी नेताओं को व्यासजी के विरुद्ध एक बड़ा मुद्दा मिल गया।
व्यासजी के चरित्र के एक पहलू पर एक घटना का उल्लेख करूंगा। स्वतंत्रता के पश्चाव्र विभिन्न राज्यों की सेनाओं का भारतीय सेना में विलीनीकरण हो गया था। जोधपुर के सरदार रिसाला (जोधपुर लांसर्स) का विलीनीकरण 61वीं कैवलरी में हुआ, जिसका मुख्यालय जयपुर ही था। सरदार रिसाला के पूर्व-सैनिक अधिकारी जयपुर आ गये। उनमें से बिग्रेडियर सुल्तानसिंह चांपावत (किसारी) और कैप्टिन प्रेमसिंह चांपावत (अड़वड़) एक समस्या के समाधान हेतु व्यस्त थे। जब जोधपुर में सरदार रिसाला का विघटन हुआ तो रिसाला क्षेत्र में घोड़ो के चरने का जो विशाल क्षेत्र था उसे रिसाला के पूर्व-सैनिकों के बच्चों को स्कूल हेतु देने का आदेश महाराजा हनवन्तसिंहजी ने दिया था।
जोधपुर राज्य का विलय राजस्थान में हो चुका था। रिसाला के पूर्व-अधिकारियों के आग्रहपूर्ण निवेदन पर महाराजा हनवन्तसिंहजी ने पुराने दिनांक से आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये। वह आदेश विधिक दृष्टि से मान्य नहीं था। इस कथित समस्या का समाधान सरल नहीं था। ब्रि. सुल्तानसिंहजी और कैप्टिन प्रेमसिंहजी ने इस विषय में मेरे से बात की, तो मैंने उन्हें बताया कि मुख्यमंत्री व्यासजी यों तो चुनाव में महाराजा हनवन्तसिंहजी से हारे थे, परन्तु उनके व्यक्तिगत संबंध महाराजा साहब से अच्छे थे और वे दोनों एक दूसरे का आदर करते थे, अत: व्यासजी को नम्रता से निवेदन किया जाय तो शायद व्यासजी उनका निवेदन स्वीकार कर लेंगे। दोनों सैनिक अधिकारी बड़े योग्य और चतुर थे।
वे व्यासजी से मिले और व्यासजी को समस्या बताई, तो व्यासजी ने कहा कि 'महाराजा साहब का आदेश विधि के अनुसार सही नहीं है, आदेश पर फाइल का नम्बर नहीं है, परन्तु महाराजा साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा है, अत: मैं उनके आदेश को मान्यता प्रदान कर देता हूँ। व्यासजी ने महाराजा साहब के आदेश को मान्यता प्रदान करके अपनी विशाल-हृदयता दर्शायी। यह उनके चरित्र का एक उज्ज्वल पक्ष था।
व्यासजी ने जब देखा कि प्रदेश कांग्रेस के कई बड़े नेता उनके विरुद्ध हैं तो उन्होंने विरोधी पक्ष के राजपूत विधायकों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया। इसमें उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। राजपूत विधायकों में अधिकांशत: जागीरदार थे, उन्हें विश्वास हो गया कि जागीरी प्रथा शीघ्र समाप्त हो जाएगी। अत: सत्ताधारी दल कांग्रेस में शामिल होकर मुआवजे आदि का अधिक से अधिक लाभ अर्जित करना चाहिए। वे एक-एक कर कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने लगे। इनमें अग्रणी थे। भैंसवाड़ा (जिला-जालोर) के जागीरदार माधोसिंह।
ये वही व्यक्ति थे जिनके चुनाव परिणाम जानने के लिये महाराजा हनवन्तसिंहजी जालोर जा रहे थे और मार्ग में ही वायुयान दुर्घटना से उनका प्राणान्त हो गया था। माधोसिंह अब कांग्रेस के अनुयायी और व्यासजी के भक्त बन गये। उन्होंने दूसरे जागीरदारों को भी आत्मसमर्पण करवाया। व्यासजी ने जोधपुर में अपने समर्थकों को एक बैठक में जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर को मिलाकर एक अलग प्रान्त बनाने पर भी विचार किया। इसका पता चलने पर प्रदेश के अन्य कांग्रेसी नेता कुद्ध हो गये और दिल्ली में केन्द्रीय नेताओं से मिलकर व्यासजी को पदच्युत कराने का प्रयास करने लगे।
No comments
Post a Comment