Thursday 21 December 2017

अभयगढ़

अबयगढ ( अभयगढ़ )


भाईसाब ये अबयगढ (अभयगढ़)  का रास्ता कौन सा है ।
ग्वाला -आगले गाँव से आथुणो गेलो जावेलो ।
अबयगढ (अभयगढ) मारवाड़ के मुख्य ठिकानों मे था,
सुना जाता है 7 बिघा मे गढ़ था ।

1921 से अरजन सिंह जी राजगद्दी पर थे ।
1921 से 1928 तक इन्होंने राजकोष का धन गरिबो मे बाट दिया ।
सुना है अंग्रेजों को लगान नही दिया तो इन्हें राजगद्दी से उतार दिया था और सुबालिया गाँव से किसी को यहाँ का राज-काज दिया गया ।

अरजन सिंह जी और अंग्रेजों मे झङप निरन्तर होती रही और एक दिन माधु सेठ ने मुखबरी कर दि अरजन सिंह जी कि ।

सुबालिया ठाकर और अंग्रेजी सेना का अरजन सिंह और उनके बड़े बेटे 12 साल का ही रहा होगा ने जमकर मुकाबला किया, अब यह बता पाना मुश्किल है कि बेटे ने ज्यादा अंग्रेजो के शीश काटे या पिता ने !!
अन्त मे विरता से लड़ते हुए सैकडों अंग्रेजो कों मौत के घाट उतारकर पिता-पुत्र विरगती को प्राप्त हुवे ।

बाप-बेटे कि छतरी आज भी एक साथ मौजूद है और आज भी ढाढी-ढोली दिल खोलकर हृदय विदारक वृतान्त सुनाते है ।
सेठ साहुकार और बड़े घरो के लोग तो नही आते पर निची कही जिने वाली जातियों के लोग मैले कुचलै कपड़ों मे छतरी पर आते है और इनके धोक लगाते है ।
अरजन सिंह जी को झुंझार का दर्जा तो बेटे दौलत सिंह को भौमिया के रुप मे पुजते है ।



मै अगले गाँव पहुँचकर आथुणी(पश्चिम) दिशा से रास्ता पकड़ता हुँ ,
कोई 1-2 मिल चला तो पुराने गढ़ के कुछ अवशेष नजर आने लगे । गाँव से ये किला अलग था शायद गाँव अब किले के बाहर बस गया होगा ।
अरजन सिंह जी के समय तक गाँव किले के भीतर ही बसा हुवा था !!
मैंने उजङ चलना ठिक समझा आगे एक दो खेत छोड़कर कोई मुझे अपनी भेङ बकरीयाँ टिचकारता मिला ।


सांझ का समय था वो शायद अपने रेवाङे कि तरफ जा रहा होगा ।
मैंने अपने पैर तेज उठाये ।
मैं मारवाड़ से ही हूँ और बचपन मे रेतिले टिलो और माटी मे खुब खेला हुँ चलने मे कोई तकलीफ नही थी ।

नजदीक पहूँचा तो मेरे कुछ पुछने से पहले ही ग्वाले ने पुछा "कुण है भाई तु, और अने कने जावै"
मेरे दिमाग मे उत्तर और प्रश्न एक साथ घुमने लगे कुछ बताउँ या पूछु ?
भाईसाब अठे कोई सती माता मन्दिर है ।
हाँ है क्यों ? काई नाम है थारो ?
बबब... बलवीर.... बलवीर सिंह....

बन्ना हो ? थे अटे किया आया अठे तो गाँव मे कोई राजपूत घर ही कोनी ।
यहाँ सुना है सति माता मन्दिर है ?
हाँ है ।
झुंझार और भौमिया कि छतरी भी है ओ किलो अरजन सिंह जी को हो ।

मैंने बातों बातों मे जानना चाहा ये झुंझार तो अरजन सिंह जी व भौमिया दौलत सिंह उनके पुत्र थे ।
सति माता कौन थे क्या ये इनके साथ ही सति हुए ।
ग्वाला एक रायका था उसके पुरखों को अरजन सिंह जी ने जमीन दि थी गाँव मे बसने को और जीवन यापन करने को ।

गाँव मे कोई राजपूत परिवार नही था चौधरी उनपे जुल्म करते है ।
आजादी के समय इनकी जमीने काफि चौधरीयों ने अपने कब्जे मे कर ली ।
आगे बताने लगा सति दौलत सिंह जी के माता जी है ।



वो तो सति उसि समय अरजन सिंह जी के ही हो जाते, पर पेट से थे माजिसा ने नही होने दिया कहा कि ये शास्त्र अनुसार पाप है ।

अरजन सिंह जी के झुंझार होने के 5 महिने बाद बेटा हुआ ।
माजिसा ने थाली बजवायी तो मेरे बापू बताते है गाँव पुरी रात नही सोया मिठाईयाँ बाँटी गयी पुरी रात उत्साह से खेलते रहे ।
खेमो चौधरी भी और माधो सेठ भी माजिसा को आधि रात को ही बधाई देने चले आये ।

संकट के दिन अभी खत्म नही हुए थे,
माजिसा तो भाटियों कि बेटी थे अरजन सिंह के जाने के बाद भी हिम्मत नही हारे पर एक सुबह भजन-कीर्तन के बाद उन्होंने देह त्याग दि ।

अब घर मे कोई 13 साल पहले दूल्हन बनकर आयी शेखावतों कि बेटी थी ।
जिन्होंने अभी कुछ दिन पहले अबयगढ ठिकाने के चांदावत वंशज को जन्म दिया है जो वंश को आगे बढायेगा ।
माजिसा ने अपने पोते का नाम शैतान सिंग रखा था ।

"कैसा कटा बचपन सुनकर आँखें भर आयी दोनों तरफ सिसकिया थी ।"

शैतान सिंह बङा होकर फौजी बना अपने पूरखो कि तरह वीर और साहसी था ।
आजादी के बाद रिस्ते करते वक्त अब सरकारी नौकर को ज्यादा तव्जो दि जाने लगी तो फौजी होने के कारण मिनारगढ से रिस्ता आया ।

आज अबयगढ वर्षों बाद खुशी के आँसू रोया बूढ़े बढेरे तो आज सुबह से आशिस पर आशिस दिये जा रहे है,
आज 1928 के बाद कई साल हो गये पहली बार झुंझार और भौमियो कि छतरी सजी है ।

शादि के अगले दिन ही बुलावा आया अभी गोना-मुकलावा भी नही हुवा पाकिस्तानीयों ने हमला कर दिया ।
शैतानसिंह जी ने अपने पिता के पदचिन्हो का अनुसरण किया । सरकार ने उन्हें वीरता से लड़ने का चक्र दिया ।

सुना है हमने रेडियों वालो ने बताया पाकिस्तानी सेना को शैतानसिंह कि छोटी सी टुकङी ने ही भगा दिया, वह सबसे आगे जाकर लड़े और वो वीर-गति को प्राप्त हुए ।

जब उनका देह तिरंगे मे लिपटकर आया तो मिनारगढ वाले अपनी बेटी को ले चुके थे कुछ सब ले जा रहे थे ।

इधर माँ ने अपने बेटे शैतान सिंह को गोद मे लिया और चिता पर बैठकर सुर्यनारायण स्तुति कि,
सेना ने अपनी तरफ से हवा मे बारुद दागा तो सूर्य कि पहली किरण से चिता को आग लगी ।

माँ बेटे के साथ सति हो गयी और अबयगढ का अन्तिम चिराग बुझ गया ।
सुना है शैतानसिंह कि पत्नी जिसे मिनारगढ वाले वापस लेके गये ने वैराग्य धारण कर लिया ।

लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल-डीडवाना ।

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