Monday 31 October 2016

अनुठी परम्परा

अनुठे पारम्परिक रिवाज का निर्वाह होता है डढे़ल में ।।

वर्तमान में सामूहिक परिवार विघटन व आधुनिक चकाचौंध के बिच जहाँ एक एक पारम्परिक परम्पराएँ, रिती रिवाज का हास हो रहा है वहाँ आज भी दिपावली व होली पर सामूहिक राम राम करने कि परम्परा हमारे गांव डढे़ल में जीवांत अवस्था में है ।

ढोल के साथ राम राम करने का रिवाज एक मात्र राजपूत जाति में ही है और यह परम्परा रियासत काल में प्रत्येक गाँव में थी, लेकिन नये दौर में विघटन के साथ यह परम्पराएँ एक एक करके खत्म हो गयी लेकिन हमारे गाँव में यह परम्परा आज भी है ।।

ढोल व नंगारे का राजपूत रिवाजों में मुख्य किरदार रहता है अन्य किसी समाज में यह रिवाज नही है और राजपूत ढोल व नंगारे को अपने स्वाभिमान का प्रतीक भी मानते है कालान्तर में ढोल और नंगारे के लिये युद्ध भी हुए है ।।

दिपावली व होली पर सुबह सर्वप्रथम गाँव के गढ में सुबह ढोल बजने पर सभी राजपूत वहाँ उपस्थित होते है और बङो से आशीर्वाद लेते है और वर्तमान में समाज कि क्या दिशा होनी चाहिए इस पर चर्चा होती है । इसके बाद ठाकुर जी के मंदिर में सभी साथ जाकर धौक लगाते है व अन्य मंदिरों में दर्शन करने के बाद सामूहिक राम राम पुरे गाँव में किये जाते है ।।

संगठन हमारी प्राचीन परम्परा :- भगवान बुद्ध ने क्षत्रियों से आह्वान किया था कि अपनी विरोधी शक्तियों को परास्त करने के लिये संगठन आवश्यक है और साल में कम से कम एक बार सबको एक जगह एकत्रित होना चाहिए ।

राजपूत संत व महात्माओं का मानना है कि वर्तमान में विध्यमान दुष्ट शक्तियों का कोई अकेला आदमी या परिवार सामना कर सके यह संभव नही इसलिए संगठन में रहकर दुष्ट शक्तियों से लङा जा सकता है उन्हें परास्त किया जा सकता है ।।

हमारी इस परम्पराएँ में आज के दिन तीन से चार पिढियाँ एक साथ होती है व बङो को देखकर आने वाली पिढी अनुशासित होती है ।।

Wednesday 26 October 2016

"राजा मानसिंह आमेर"

"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब


जब राजा मानसिंह आमेर आगरा से आमेर आ गये तो आने के बाद सर्व प्रथम सलिम समर्थक व मानसिंह विरोधीयों का दमन किया । जहाँगीर अपने समर्थकों के दमन से दुःखी व क्रुद्ध हुआ व उसने रोहतासगढ़ की जो जागीर अकबर ने मानसिंह को दी थी छीन ली व वहाँ के हथियार भी जब्त कर लिए । उसे यह भी भय हुआ कि मानसिंह अपने समर्थकों से कहीं बंगाल में बगावत नहीं करवा दे, इसलिए उसने सभी मानसिंह समर्थकों को बंगाल से वापस बुला लिया व मानसिंह को आदेश दिया कि वह दक्षिण ...कि तरफ जायें व परवेज व खानेखानम के नेतृत्व में भेजी गई सेना का सहयोग करे ।


विद्वान लेखक ने इस पुस्तक में लिखा है कि राजा मानसिंह आमेर दक्षिण में मुगल सेनापतियों के नेतृत्व में सफल नही रहे, लेकिन इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया कि राजपूतों के सहयोग की आवश्यकता व अपने नेतृत्व के महत्व को जहाँगीर के सामने स्थापित करने के लिये यह आवश्यक था कि वहाँ पर मुगल सेनापति को असफलता मिले । क्योंकि वहाँ मानसिंह सेनापति नही थे वह केवल सहयोगी थे इसलिए उन्होंने अपनी पहल पर सफलता के लिए कोई भी कार्य करना उचित नहीं समझा व ऐसा भी कोई कार्य नहीं किया जिससे असहयोग प्रदर्शित हो । यह कार्य उनकी नीतिज्ञता को ही प्रकट करता है ।


जहाँगीर मानसिंह से कितनी शत्रुता रखता था इस बात का अन्दाजा इससे लगाया जा सकता है कि मानसिंह कि मृत्यु के बाद भी उसने मानसिंह के बङे पुत्र जगतसिंह के पुत्र महासिंह को गद्दी पर नहीं बैठने दिया व मानसिंह के दुसरे पुत्र भावसिंह को आमेर का राजा घोषित कर दिया । खुद के उतराधिकार के अवसर पर जहाँगीर व उसके समर्थक वंश परम्परा के नियमों का बार बार हवाला दे रहे थे लेकिन मानसिंह के उतराधिकार के विषय में उन्होंने स्वयं राजपूतों के वंश परम्परा के नियमों को तोङकर जगतसिंह के पुत्र महासिंह को राज्य देने की बजाय मानसिंह के छोटे पुत्र भावसिंह को गद्दी पर बैठा दिया ।


जब कछवाहों में विरोध के स्वर उठने लगे तो बादशाह ने महासिंह को दक्षिण में ही सूबेदारी देकर पाँच हजार का मनसब दिया । इससे असन्तुष्ट कछवाहे इसलिए संतुष्ट हो गए कि भावसिंह के कोई सन्तान नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप भावसिंह कि मृत्यु के बाद महासिंह के पुत्र जयसिंह ( मिर्जा राजा ) आमेर के शासक बने ।।
उपर्युक्त तथ्य यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि जहाँगीर मानसिंह के विरोधियों के चंगुल में बुरी तराह फंसा हुआ था और यह कारण भी था कि मानसिंह ने मुस्लिम परम्परागत इस्लामीकरण को उनके काल में पनपने नही दिया इसलिए मुस्लिम सरदार व जहाँगीर मानसिंह विरोधी थे ।

यथार्थ में मानसिंह आमेर ने जहाँगीर के शत्रुतापूर्ण व्यवहार को भी केवल इसलिए बर्दाश्त किया कि मुगलों से संबंध विच्छेद करने परिणामस्वरूप पठान मुगल गठजोङ से सनातन धर्म को आघात पहुँचने कि पुरी संभावना थी ।


सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017 ।
रविवार, 1 बजे से ।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर ।


निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।

"राजा मानसिंह आमेर"



"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब


पिछली पोस्ट में हमने आपको बताया कि सनातन धर्म रक्षार्थ राजा मानसिंह आमेर अकबर के साथ बने रहे क्योंकि क्षीण हो चुकी राजपूत शक्ति को पुन: मजबूत करना था और इसके साथ भारत का इस्लामीकरण ना हो इसके लिये यह आवश्यक था कि पठान व मुगल कभी एक ना हो सके और इस कार्य में मानसिंह आमेर सफल रहे ।।

अकबर भी यह जानता था कि बिना मानसिंह आमेर व राजपूत शक्ति के उसका राज्य सुरक्षित नही है अत: दोनों पक्ष अपनी अपनी मजबूरी के कारण एक दुसरे के साथ थे ।


मानसिंह के बढ़ चूके प्रभाव से मुस्लिम सेनापति व सभी सल्लतनतों के सरदार मानसिंह को इस्लाम का दुश्मन मान चुके थे क्योंकि भारत में जो इस्लामीकरण कि बाढ आनी थी वह राजा मानसिंह के कारण रुक गयी ।


मानसिंह आमेर के सनातन धर्म रक्षक व इस्लामीकरण में बाधक होने के कारण ही सलीम व मानसिंह आमेर में निरन्तर दुरी बनी यह एक सत्य बात है पिछली पोस्ट में हमने इस पर विस्तार से बताया अब उससे आगे ।।


विद्वान लेखक ने जहाँगीरनामा की सत्यता को अस्वीकार करते हुए भी, उसी के तथ्यों को अधिक महत्व दिया है । दूसरी तरफ पिथलपोता की ख्यात को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जबकि इस ख्यात को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जबकि इस ख्यात का लेखक भी रामदास कछवाहा का दरबारी लेखक था । यधपि इस बात का कोई लिखित प्रमाण नही है कि रामदास कछवाहा, रायसल दरबारी व माधवसिंह को अकबर ने अपने जीवन काल में ही सलीम के पक्ष में कर दिया था, किन्तु परिस्थितियों इस बात की साक्षि देती है की ये तीनों व्यक्ति जो हमेशा मानसिंह का कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देते रहे, यकायक उसके विरूद्ध नही हो सकते थे ।
मानसिंह की आगरा व आमेर से लम्बी अनुपस्थिति ने अकबर व मानसिंह के विरोधियों को उन तीनों को अपने पक्ष में अथवा सलीम के पक्ष में करने का अवसर प्रदान किया ।।


मुस्लिम इतिहासकारो द्वारा यह लिखा गया है कि रायसल दरबारी ने मुगल सल्तनत के प्रति वफादारी के कारण सलीम का साथ दिया, किन्तु वफादारी दो विरोधी पक्षों के बिच कभी भी संभव नही है । रायसल दरबारी शेखावत थे, जिनके आदि पुरुष शेखा ने आमेर के राजा चन्द्रसेन के साथ यह सन्धि की थी की शेखावत हमेशा आमेर के राजाओं के साथ रहेंगे व आमेर राजा हर मुसीबत में शेखावतो का साथ देंगे । इस सन्धि का किसी भी पक्ष ने बिना उलंघन किए, एक-दूसरे का सहयोग कर बड़े से बड़ा त्याग किया था ।


आमेर के राजा साथ हुई इस सन्धि को तोड़ना क्या गलत नही था ? दूसरी तरफ माधवसिंह मानसिंह के सगे भाई थे जिसने अपने जीवन में मानसिंह के साथ खतरनाक युद्धों में भाग लेकर अपने जीवन को अनेक बार खतरे में डाला था । यह सम्भव नही है कि मानसिंह का ऐसा कोई हितैषि भाई बिना किसी षड्यंत्र का शिकार हुए मानसिंह का विरोध करता । इसी प्रकार रामदास कछवाहा भी इस हैसियत का व्यक्ति नही था जो अकेले मानसिंह कि खिलाफत का विचार भी करते । यथार्त इन तीनो को पहले ही बादशाह अकबर ने कोई प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया होगा ।।


सलीम के बादशाह बन जाने के बाद उसने यह सिद्ध कर दिया कि मानसिंह को प्राप्त सूचनाएं व उसके विचार पूरी तरह सही थे । जहाँगीर ने शासन प्राप्त करते ही मानसिंह के मनसब सात हजार से घटा कर पॉँच हजार का किया व उन्हें आगरा व बंगाल से दुर रखने के लिए, तुरन्त दक्षिण जाने का आदेश दिया, किन्तु मानसिंह अपनी नाराजगी दर्ज करवाने के लिए कटिबद्ध थे । अतः उन्होंने दक्षिण जाने की जगह आमेर जाने कि बात रखी जिसे न चाहते हुए भी, वह देने को मजबूर हूआ । मानसिंह ने इन तीन वर्षों का उपयोग, आमेर को सुदृढ़ करने मे किया ।।


सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017 ।
रविवार, 1 बजे से ।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर


निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।

Monday 24 October 2016

अकबर व मानसिंह के साथ रहने की मजबूरी




"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब




पुस्तक के अध्याय सात के अंतिम भाग में लेखक ने मानसिंह के लिए लिखा है की इस समय इनकी भूमिका एक षड्यन्त्रकारी की हो गयी थी । मानसिंह के लिए यह टिप्पणी पूरी तरह अनुचित है, क्योकि वास्तविकता यह है की मानसिंह उस समय उसके विरोधी मुगल षड्यन्त्रकारियों के षड्यन्त्र में पूरी तरह फंस चुके थे । इतिहासकारों की यह धारणा पूरी तराह भ्रामक है की मानसिंह अकबर के प्रति पूर्ण वफादार थे व अकबर मानसिंह पर पूरा विश्वास करता था ।




वास्तविकता यह है की अकबर व मानसिंह दोनों अपनी अपनी मजबूरियों के कारण एक दूसरे के साथ रहने व एक दूसरे के प्रति पूर्ण विश्वास प्रकट करने के लिए बाध्य थे । अकबर यह ठीक प्रकार जानता था की बिना राजपूतों व मानसिंह जैसे सुयोग्य सेनापति के सहयोग के वह पठानों का दमन व अपने शासन को सुरक्षित करने में समर्थ नही था । दूसरी तरफ मानसिंह भी इस बात को ठीक प्रकार से जानते थे की अगर पठान व मुगल परिस्तिथियो के दबाव में एक हो जाते है तो सम्पूर्ण राजपूत शक्ति एकजुट होकर भी उनको परास्त करने में समर्थ नही थी । ऐसी स्थिति में उनको मिलने देने का परिणाम होता सम्पूर्ण भारत का इस्लामीकरण । विभिन्न अवसरों पर खट्टे-मीठे घूंट पीकर भी मानसिंह अकबर व जहांगीर के साथ बने रहे ।।


मानसिंह अपने विरोधी मुग़ल दरबारियो व सेनापतियों की गतिविधियों के प्रति पूर्ण सजग था । मुगल दरबार की गतिविधियों की सूचना उन्हें मिलती रहे, इसके लिये उन्होंने पूरी व्यवस्था की थी । प्रतिदिन आगरा से मुगल दरबार में हुई गतिविधियों की सुचना आमेर भेजी जाती थी । यहां का अधिकारी इनमे से जो भी महत्वपूर्ण सुचना होती उसे तुरन्त अपने राजा के पास, चाहे वह कहीं भी हो, भेजता था । यह व्यवस्था मुगल शासन के अन्त तक लगातार चलती रही ।


लेखक ने राजा मानसिंह के अजमेर जाने का कारण विश्राम, अच्छी जलवायु का होना व शहजादा सलीम की अकबर के प्रति नाराजगी को दूर करना लिखा है । जबकि वास्तविकता यह थी की मानसिंह इस बात की थाह लेना चाहते थे की उनके प्रति सलीम के मन में किस हद तक नफरत भर दी गई है । जब उन्होंने देखा की उसके ह्रदय में सिमा से अधिक नफरत है, तो उन्होंने सलीम को अपने साथ ले जाने का प्रयतन किया ताकि उसे षड्यन्त्रकारियों से दूर रखा जा सके, जिसमे एक बार उन्हें सफलता मिलती दिखाई दी, किन्तु बाद में सलीम ने अलाहाबाद से आगे जाने से इंकार कर दिया ।


यहां पर यह बात द्रष्टव्य है की मुगल दरबार के प्रमुख दरबारियो में से केवल दो ही लोग मानसिंह के हितचिंतक थे, पहला बीरबल, जिसकी मृत्यु उस समय हो चुकी थी, जब मानसिंह बिहार के गवर्नर थे, दुसरा अबुल फज्ल, जिसकी कुछ ही समय पूर्व सलीम ने हत्या करवा दी थी । इस हत्या के बाद एक तरफ अकबर के दरबार में कोई भी प्रमुख व्यक्ति मानसिंह का हितचिंतक नही रह गया था, दूसरी तरफ, अबुल फ़ज़्ल की हत्या के बाद मानसिंह सलीम पर किसी भी प्रकार का विश्वास करने की स्थिति में नही थे । इस तरह वह अपने विरोधी षड्यन्त्रकारियों के चंगुल में फंस चुके थे ।।


उपरोक्त परिस्थितियों में मानसिंह के मन में सलीम व मुगल शासन के प्रति उत्पत्र हुई कटुता को अकबर ठीक प्रकार से समझता था । इसलिए मानसिंह को शांत करने के उद्देश्य से ही उसने अपने जीवन के अंतिम काल में मानसिंह को सप्तहजारी मनसबदार बनाकर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने की चेष्टा की थी । अकबर व सलिम के बिच ने कोई शत्रुता थी और न कोई न कोई दुरी । सलीम अपनी नाराजगी प्रकट कर मानसिंह के प्रभाव को अकबर द्वारा ही सिमित करवाना चाहता था । क्योकि मानसिंह के विरोधियो ने सलीम को यह पूरी तराह समझा दिया था की मानसिंह उसके लिए सबसे बड़ा खतरा है ।


यद्यपि लेखक ने कर्नल टाड के उस लेख पर में सन्देह व्यक्त किया है जिसमें उसने बूंदी के इतिहास के आधार पर यह लिखा है कि -- "अकबर ने मिठाई में जहर मिलाकर मानसिंह को देने का प्रयास किया था, किन्तु गलती से उस जहरीली मिठाई को अकबर स्वयं खा गया, परिणामस्वरूप वह रुग्ण होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ ।" आमेर और जयपुर के हर व्यक्ति के मुँह पर टाड की लिखी यह कथा आज भी प्रचलित है जिसे अस्वीकार करना कठिन है । कारण भी स्पष्ट है की अकबर भी यह ठीक प्रकार से समझ गया था की अब मानसिंह व सलीम के बीच जो दूरियाँ कायम हो गई हैं, उनको मिटाना असम्भव है ।


अतः उसने मानसिंह को ही रास्ते में से ऐसे तरीके से हटाने का प्रयास किया, जिससे उसके सामन्तों व अन्य राजपूत राजाओ में असन्तोष व्याप्त नही हो, किन्तु वह अपनी योजना में इसलिए असफल हुआ कि स्वयं की ही गलती से जिस मिठाई से वह मानसिंह के प्राण लेना चाहता था, उस मिठाई को स्वयं खाकर रुग्ण होकर मर गया


सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी 2017 ।
रविवार, 1 बजे से ।।
श्री राजपूत सभा भवन जयपुर ।


निवेदक - इतिहास शुद्धिकरण अभियान ।।

Sunday 23 October 2016

आमेर और बहरामखाँ

"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका- देवीसिंह महार साहब

विद्वान लेखक ने अकबर व भारमल की मित्रता में जो चकतायी खान की भूमिका का वर्णन किया है वह यथार्थ है किन्तु सम्भवतया पुस्तक 'कूर्मविलास' जो उस समय अप्रकाशित थी, लेखक को देखने को नहीं मिली, जिसमें उल्लेख हैं कि शेरशाह ने जिस युद्ध में हुमायूँ को परास्त किया था उसमें भारमल शेरशाह की तरफ से लङ रहे थे । युद्ध में हुमायूँ को परास्त होकर भागना पङा था, व उसके सेनापति बहरामखाँ को बन्दी बना लिया गया था ।

शेरशाह ने बहराम खाँ के लिए मृत्युदण्ड की घोषणा की, तब राजा भारमल ने शेरशाह से अनुरोध किया था कि ऐसे वीर पुरुष के लिए मृत्युदण्ड उचित नहीं है, इस पर शेरशाह ने उसे मुक्त कर दिया था ।

'कूर्म विलास' में यह उल्लेख है कि मुगल सेनापति शरीफुद्दिन से दुःखी होकर भारमल ने अपने भाई गोपालजी को बहरामखाँ के पास भेजा था । इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है उस समय चकतायी खान से भी बहरामखाँ अधिक प्रभावशाली था, अतः भारमल के साथ अकबर का समझौता कराने में न केवल चकतायी खाँ की, बल्कि बहरामखाँ की भी अहम् भूमिका थी । बहरामखाँ उस समय एक प्रकार से मुगल साम्राज्य का सर्वेसर्वा था, इसलिए तुरन्त, भारमल के साथ मुगल शासन के संबंध सुदृढ़ हो गये ।।

Friday 21 October 2016

राजा मानसिंह आमेर - भूमिका- देवीसिंह महार साहब

"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका - देवीसिंह जी महार साहब

"राजा मानसिंह आमेर" पुस्तक के विद्वान लेखक राजीव प्रसाद जो कि बिहार के निवासी हैं, ने राजा मानसिंह आमेर पर शोध कार्य कर, इतिहास में उपेक्षित एक महान व्यक्तित्व के तथ्यात्मक इतिहास को प्रकाश में लाने का कार्य किया है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है । दूर प्रदेश के निवासी होने, स्थानीय लोगों का पूर्ण सहयोग नहीं मिलने व ढूँढाङी भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण जो तथ्य उनकी जानकारी में नहीं आये अथवा जो गलत तथ्य उनके सामने प्रस्तुत हो गये हैं, उनके संबंध में जानकारी देने के उद्देश्य से मैंने यह भूमिका लिखने का निश्चय किया है ।

कोई भी व्यक्ति अथवा समाज काल व परिस्थिति निरपेक्ष नहीं हो सकता है, इसलिए चाहे इतिहास व्यक्ति का हो अथवा समाज या देश का उस पर उस काल की परिस्थितियों का न केवल प्रभाव होता है, अपितु जो व्यक्ति अथवा समाज काल व परिस्थितियों की उपेक्षा करके चलते है, ऐसा नही कि वह केवल सफलता ही प्राप्त नहीं कर सके, अपितु विनाश को भी प्राप्त होता है । आज के इतिहासकार उपर्युक्त तथ्यों पर प्रकाश डालें बिना ही इतिहास लेखन का कार्य कर रहे हैं, जिससे इतिहास के पात्रों के साथ न्याय नहीं हो पाता है ।

सिकन्दर ने इस देश पर ईसा पूर्व 326 में अथार्त 2342 वर्ष पूर्व आक्रमण किया था, उसके बाद सिन्ध पर लगातार आक्रमण होते रहे । महमूद गजनी ने ईस्वी 1001 व मुहम्मद गौरी ने ई. 1175 में भारत पर पहला आक्रमण किया । उसके बाद लगातार पठानों व बाद में मुगलों ने इस देश पर आक्रमण किये । इन आक्रमणों का उद्देश्य न तो लूटपाट था और न ही केवल शासन स्थापित करना, अपितु इनका उद्देश्य था- सम्पूर्ण देश का इस्लामीकरण । पिछले कुछ 100 वर्षों में ही ईरान, ईराक व अफगानिस्तान के विशाल भूभाग की जनता का धर्म परिवर्तन कर इनको इस्लाम में दीक्षित करने के बाद उनका मुख्य उद्देश्य भारत का इस्लामीकरण था ।

लगातार 2000 से अधिक वर्षों तक विदेशियों के आक्रमण का सामना करने व उसके कारण भारी जन-धन की हानि उठाने के कारण राजपूत-शक्ति क्षीण व क्षत्-विक्षत् हो गयी थी । मुसलमानों ने विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर आधुनिक हथियारों बन्दूकों, तोपों आदि का आविष्कार कर लिया था, जबकि हमारे देश के शिक्षा के ठेकेदार इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाये थे, परिणामस्वरूप मुसलमानों के विरुद्ध होने वाले युद्धों में राजपूतों को भारी हानि उठानी पङती थी । बाबर व शेरशाह सूर के काल तक परिस्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि लोग धन व राज्य के प्रलोभन में बङी संख्या में इस्लाम को अपनाने लगे थे ।

इक्के - दुक्के आक्रमणों को छोड़कर 2000 बर्षों में भारत पर सैकड़ों आक्रमण काबुल व कन्धार के रास्ते से हुए, लेकिन इस देश के किसी शासक ने खैबर व बोलन के दर्रों को बन्द करने की बुद्धिमता प्रदर्शित नहीं की । काबुल क्षेत्र में पाँच बङे मुसलमान राज्य थे, जहाँ पर हथियार बनाने के कारखाने स्थापित थे । इन राज्यों के शासक भारत पर आक्रमण करने वालों को मुफ्त में हथियार व गोला बारुद देते थे, व वापस लौटने वालों से बदले में लुट का आधा माल लेते थे । इस प्रकार धन के लोभ में बङी संख्या में हजारों मुसलमान इस देश पर आक्रमण करते थे, जिनमें से कुछ लोग ही वापस लौटते शेष धर्म परिवर्तन व राज्य के लोभ में यहीं रुककर पहले आए मुसलमानों के साथ मिल जाते, जिससे धर्म परिवर्तन का कार्य तेजी से बढ़ने लगा था व लाखों हिन्दुओं ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया था ।

इस खतरे को राणा सांगा जैसे बुद्धिमान शासक ने समझा था व बाबर से सन्धि भी की थी लेकिन साँगा उस सन्धि को निभा नहीं पाये, परिणामस्वरूप अन्ततोगत्वा बाबर से उनका युद्ध हुआ जिसमें पराजित होना पङा । किन्तु इसके बाद आमेर में लगातार तीन पिढी़ तक नीतिज्ञ, शूरवीर व बलवान शासक हुए, जिन्होंने मुगलों से सन्धि कर, न केवल बिखरी हुई दुर्बल व नष्ट प्रायः राजपूत शक्ति को एकत्रित कर उसमें आत्मविश्वास जगाया अपितु बाहर से आने वाली मुस्लिम आक्रमण शक्ति का रास्ता हमेशा के लिए रोक दिया । अपने राज्यों में आधुनिक शस्त्रों के निर्माण की व्यवस्था की व कुछ ही समय में मुगलों के बराबर शक्ति बन गये । इसके अलावा मुगलों को पठानों से लङाकर पठान शक्ति को तोङना व भारत के इस्लामीकरण की योजना को नेस्तानाबूद कर देना उनकी प्रमुख उपलब्धि थी ।।

आमेर के राजा भारमल ने अकबर से सन्धि की । उनके पुत्र भगवन्तदास ने इस सन्धि को ने केवल दृढ़ किया बल्कि उन्हीं के शासक काल में उन्होंने बादशाह अकबर को पठानों को मुगलों का नम्बर एक का शत्रु बताते हुए काबुल विजय की योजना बनवाई जिससे न केवल पठान शक्ति दुर्बल हुई बल्कि मुसलमानों की भारत के इस्लामीकरण की योजना भी दफन हो गई । तब मुसलमान ही मुसलमान से अपने राज्य को सुस्थिर करने के लिए लङ रहा था व इस लङाई का लाभ उठाकर राजपूत अपनी शक्ति को बढा़ते जा रहे है थे । अकबर के शासनकाल में मानसिंह इतने शक्तिशाली हो गये थे कि अकबर के मुसलमान सेनापति उसे भविष्य के लिए खतरा समझने लगे थे । इसी का परिणाम था कि अकबर के जीवनकाल में ही अकबर को अपने समस्त मुस्लिम सेनापतियों का विरोध इसलिए सहना पङा कि वह मानसिंह को अत्यधिक महत्व देता था । अकबर को अपने जीवनकाल में ही सलीम (जहाँगीर) का विरोध इसलिए सहना पङा कि वह मुस्लिम सेनापतियों के प्रभाव में था, जिन्होंने उसको यह समझा दिया था कि मानसिंह तेरे लिये सबसे बङा खतरा है ।

भगवन्तदास ने जिस बुद्धिमता से अकबर को काबुल विजय के लिए सहमत किया था उसकी क्रियान्विति कुँवर मानसिंह के शौर्य, युद्धकौशल व नीतिज्ञता से ही संभव हुई थी । मानसिंह ने ही काबुल विजय कर उन पाँच राज्यों के शस्त्र निर्माण करने वाले कारखानों को नष्ट किया था व वहाँ के शस्त्र निर्माण करने वाले कारीगरों को बन्दी बनाकर आमेर ले आये थे । जहाँ आज जयगढ़ का किला है, वहाँ पर शस्त्र निर्माण के एक कारखाने की स्थापना की गई थी । उन्हीं कारीगरों के वंशजों द्वारा निर्मित पहियों पर रखी संसार की सबसे बङी तोप आज भी जयगढ़ के किले में पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है । काबुल विजय के बाद कश्मीर से लेकर उङीसा व बंगाल तक पठानों का दमन, हिन्दू तीर्थों व मन्दिरों का उद्घार व उपर्युक्त क्षेत्र में नये राजपूत राज्यों की स्थापना ; मानसिंह के ऐसे कार्य थे, जिसके कारण उन्हें अपने काल में धर्म रक्षक कहें गये । लेकिन जैसा की इस पुस्तक के लेखक ने लिखा है बाद के इतिहासकारों ने उनका चरित्र-हनन करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी ।
क्रमशः ।।

सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी, रविवार 2017 ।
राजपूत सभा भवन जयपुर ।।
#राजा_मानसिंह_आमेर

रिंया ठाकुर शेरसिंह :-

रिंया ठाकुर शेरसिंह :-

जोधपुर दरबार रामसिंह के रक्षक थे 1857 के क्रांतिवीर रियां के ठाकुर सरदार शेरसिंह सिंहोत । मराठो को हराया तो जयपुर पर भी की थी चढ़ाई, स्टेट में मिला रियां ठिकाने को चीफ जज का मान !!
रियां ठाकुरो की याद में हर वर्ष भादवा सूदी नवमी से ग्यारश तक भरता है तीन दिवसीय मेला मेले में उमड़ रही है भारी भीड़, ठाकुरो की आदमकद मूर्तियों की होती है सुबह शाम पूजा अर्चना ।

ऐतिहासिक हलचल रियां बड़ी-

रियां बड़ी में हर वर्ष की भाँती इस वर्ष भी भादवा सूदी नवमी से इग्यारश तक लगाने वाला तीन दिवसीय मेला शनिवार से शुरू हो गया है। ये मेला रियां के ठाकुर शेरसिंह और उनके वंशजो की याद में मनाया जाता है। यहां मालियो की हथाई के सामने स्थित ठाकुर साहब के थड़े में ठाकुर शेर सिंह व उनके वंशजो का भव्य मंदिर बना हुआ है। जहां इनकी आदमकद मुर्तिया स्थापित है जिनकी सुबह शाम पूजा अर्चना की जाती है।

रियां इतिहास के झरोखे से-

पूर्व के काल में वर्तमान में बसे रियां बड़ी कस्बे में स्थित पहाड़ी के पीछे रियां गाँव था, इस जगह को प्राचीन रियां के नाम से जाना जाता है, रियां का यह ठिकाना सर्वप्रथम राव मालदेव के सेवक वरसिंह जोधावत के पुत्र तेजसी को मिला और उनका निधन विक्रम संवत 1575 में हुआ। तत्पश्चात राव मालदेव ने ये ठिकाना तेजसी के पुत्र सहसा को दिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत १५९५ में राव बीरमदेव ने अजमेर से आकर रियां पर आक्रमण किया जिसमे सहसा मारा गया। बाद में यह ठिकाना राव जयमल्ल के वंशज गोपालदास को २० गाँवों व ३५००० रेख सहित पट्टे में मिला।

इसके बाद क्रमश: उनके वंशज प्रतापसिंह, अचलसिंह व कुशलसिंह सरदारसिंह के पट्टे में रियां का ठिकाना रहा। ठाकुर शेरसिंह का रहा जोधपुर उमरावो में वर्चस्व दरबार भी मानते थे लोहा । ठाकुर सरदारसिंह के बाद ये ठिकाना उनके पुत्र शेरसिंह को मिला। वर्तमान में बसे रियां कस्बे को ठाकुर शेर सिंह सरदार सिंहोत मेड़तिया ने ही बसाया था इसलिए आज भी इसे शेरसिंह जी की रियां के नाम से भी जाना जाता है।

जोधपुर शोध संस्थान से मिले ऐतिहासिक तथ्यों के आधार से इस काल में इनका वर्चस्व मारवाड़ के सभी उमरावो पर भारी था। उस समय के जोधपुर दरबार रामसिंह का ठाकुर शेर सिंह सरदार सिंहोत मेड़तिया के सहयोग के बिना जोधपुर दरबार बन पाना संभव ही नहीं था। क्योंकि रामसिंह के भाई बख्तसिंह जोकि नागौर के राजाधिराज थे वो रामसिंह को हटाकर खुद जोधपुर दरबार बनना चाहते थे। जिसके लिए उन्होंने कई बार जोधपुर पर आक्रमण करने के प्रयास किये पर हर बार उन्हें मेड़ता में वर्तमान में सोगावास और मालकोट के समीप रियां ठाकुर शेरसिंह सरदार सिंहोत मेड़तिया रोक लेते थे।

ठाकुर शेरसिंह की मेड़ता में मराठो से लड़ाई और जीत-


विक्रम संवत १७९२ में सवाई जयसिंह के उकसाने पर मराठो ने मारवाड़ पर आक्रमण किया तब राणोजी सिंधिया व राव मल्हार होलकर ने मेड़ता के मालकोट दुर्ग पर धावा बोला। पर यहां शेरसिंह मेड़तिया के नेतृत्त्व में सभी छोटे बड़े ठिकानों ने मिलकर मराठो का डटकर सामना किया और उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया।

ठाकुर शेरसिंह की जयपुर पर चढ़ाई-

ऐतिहासिक प्रमाणों अनुसार जयपुर दरबार के लिए ईश्वरसिंह व उनके भाई माधोसिंह के बीच लड़ाई होने लग गयी और ईश्वरसिंह ने बाहरी मदद से जयपुर पर आक्रमण कर दिया। तब जोधपुर दरबार की आज्ञा अनुसार तकरीबन २००० सैनिको को साथ लेकर ठाकुर शेरसिंह ने ईश्वरसिंह पर आक्रमण कर दिया। ये लड़ाई बगरू में लड़ी गयी। जिसमे ईश्वरसिंह परास्त हुआ और उसे संधि कर जयपुर दरबार में से कुछ परगने लेकर ही संतोष करना पड़ा।

विजिया नोकर को लेने दरबार का रियां ठिकाने में आना-

रियां ठाकुर शेरसिंह के साथ एक विजिया नाम का नोकर जोधपुर दरबार रामसिंह के पास आया जाया करता था और वो नोकर दरबार रामसिंह को पसंद था तो उन्होंने शेरसिंह से उस नोकर को मांग लिया। जिस पर शेरसिंह नाराज होकर रियां आ गए और कहा की महाराज ने आज नोकर माँगा है कल को और कुछ मांग लेंगे इसलिए में जोधपुर नहीं जाऊंगा। इसी दौरान जोधपुर दरबार रामसिंह नागौर पर आक्रमण करने खेडूली पहुंचे पर अपनी स्थिति कमजोर देख उन्हें शेरसिंह की याद आयी और देवीसिंह दोलतसिंहोत को रियां उन्हें बुलाने भेजा। जिस पर शेरसिंह ने कहा की महाराजा की रक्षा के लिए में धर्म और वचनबद्ध हूँ पर उन्हें मेरे लिए रियां आना पडेगा। इस पर उस समय जोधपुर दरबार रामसिंह 140 ऊंट सवारो के साथ रियां ठिकाने में पहुंचे जो उस समय एक बहुत बड़ी घटना थी। इसके बाद वो युद्ध के लिए रवाना हुए।

दो वीर योद्धाओ ने पाई एक साथ वीरगति-

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार आउवा के ठाकुर कुशालसिंह व रियां ठाकुर शेरसिंह दोनों ने मिलकर एक साथ 1857 की क्रान्ति में भी भाग लिया था। और अंग्रेजो का डटकर सामना किया था। जोधपुर दरबार रामसिंह व नागौर के राजा बख्तसिंह के बीच कई लड़ाईया लड़ी गयी। जिनमे से एक लड़ाई के दौरान रामसिंह की तरफ से रियां ठाकुर शेरसिंह मेड़तिया व बख्तसिंह की तरफ से आउवा ठाकुर कुशलसिंह के बीच दोनों के ना चाहते हुए भी स्वामिभक्ति व वचनबद्धता के चलते विक्रम संवत 1807 व 26 नवम्बर 1863 में मेड़ता में भीषण युद्ध हुआ। जिसमे ये दोनों मारवाड़ के वीर व कुशल योद्धाओ ने एक दूसरे को मार वीरगति पायी। (ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार ये दोनों रिश्ते में भाई भाई भी थे) ।

ठाकुर शेरसिंह के निधन के बाद उनके भाई सूरजमल व सूरजमल के पुत्र जवानसिंह, बख्तावरसिंह, बीदड़सिंह, शिवनाथ सिंह, देवीसिंह, गंभीरसिंह ने इस ठिकाने पर राज किया वर्तमान में कस्बे की पहाड़ी पर स्थित बिड़दा माता का मंदिर भी ठाकुर बीदड़सिंह ने ही बनवाया था।

ठाकुर विजयसिंह ने भी बढ़ाया रियां का मान स्टेट में चीफ जज का पद सम्भाला-

ठाकुर देवीसिंह के बाद इस ठिकाने को प्रसिद्धि मिली ठाकुर विजयसिंह के काल में, ये अत्यंत पढ़े लिखे होने व बेहद समझदार होने के चलते जोधपुर दरबार के खासमखास रहे। एक बार फ्रांस में जोधपुर दरबार के संकटकाल में ठाकुर विजयसिंह बहुत काम आये। जिसके चलते उन्हें राय बहादुर की उपाधि दी गयी। कुछ ही समय बाद उन्हें स्टेट में सहकारी जज व बाद में चीफ जज की नियुक्ति भी मिली। जो वो जीवन पर्यन्त तक रहे। इनके बाद गणपतसिंह ठाकुर बने जिनके प्रयासों से ही रियां बड़ी पंचायत समिति बनी और ठाकुर गणपतसिंह प्रथम प्रधान बने इनके बाद वर्तमान ठाकुर जगजीतसिंह को ये ठिकाना मिला उन्हें ग्रामीणों ने एक बार निर्विरोध ग्राम का सरपंच भी बनाया।

लेख - नागौर इतिहास द्वारा
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# रामचन्द्र सिंह रैकवार #

मार्गदर्शक महाराजा सर प्रताप

मार्गदर्शक महाराजा सर प्रताप

राजपूत समाज में समकालीन परिस्थितियों को देखकर भविष्य कि पहचान अगर किसी ने वक्त रहते हुवे कि और समाज को शिक्षा के क्षेत्र में पिछङने से बचाने का श्रेय जाता है तो वह जोधपुर रियासत के प्रधानमंत्री सर प्रताप को जाता है ।।
अंग्रेजों के जाने के बाद जो कांग्रेस वामपंथीयो कि सोच थी कि इस कौम को हमारे यहाँ आकर घुटने टेकने होंगे साकार नही हो पाये क्योंकि कांग्रेस व वामपंथी यह सोच पाते उससे पहले ही शिक्षा का बीज हमारे समाज में महानायक बो चुके थे ।।
...
सर प्रताप का स्वप्न ही था का रियासत जागीर जमीन सब कुछ चले जाने व परम्परागत सैनिक कार्य छुट जाने के बाद भी राजपूतों ने अपने पुरुषार्थ का लोहा सबको मना दिया और लोकतंत्र राजतन्त्र में भी अपनी अहम भूमिका रखते है ।।
पुरुषार्थी कौम को शिक्षा के मार्ग पर सबसे पहले धकेलने का कार्य इन्हीं महामानव ने किया ।।

जोधपुर-मारवाड़ के महान योद्धा-महानायक महाराजा सर प्रताप सिंह जी की 171वीं जयंती पर हार्दिक शुभकामनाएँ।
महानायक को कोटि कोटि नमन ।।
मारवाड़ के आम राजपूत को शिक्षा के जगत में महाराजा सर प्रताप सिंह जी के प्रयासो से ही सहयोग मिला ।।।

Wednesday 19 October 2016

सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर और गुजरात





4 जुलाई 1572 को राजा मानसिंह आमेर गुजरात कि तराफ बढे । उन्होंने अपने साथ चुनिन्दा फौज ली । गुजरात के रास्ते में जब सेना डीसा नामक नगर में पहुँची जो आबूरोड से थोड़ा दक्षिण में था, मानसिंह जी को यह ज्ञात हुआ कि शेरखां फौलादी के पुत्र, जिसका अहमदाबाद पर अधिकार था, इडर कि तरफ जा रहा था जो खेड ब्रह्मा ( दक्षिण पश्चिम में बीजापुर के पास ) से केवल दस मिल दूर था । इनके साथ इनका हरम और सेना भी थी ।


अकबर ने कुँवर मानसिंह को सजी-सजायी हुई से...ना देकर उनका पीछा करने के लिये भेजा । मानसिंह ने पुरे जोश के साथ उनका पीछा किया पर वे अपने साजोसामान को छोड़कर भाग गये । कुँवर मानसिंह लौटकर अपने शिविर में चले आये । जो गुजरात की प्राचीन राजधानी रही थी । 20 नवम्बर 1572 को अहमदाबाद को जीतकर वहाँ ठहरे थे । अहमदाबाद जीत से वह संतुष्ट नही हुवै । सुरत के बन्दरगाह पर कब्जा करने कि मंशा थी जहाँ विद्रोही अफगान सरदार आश्रय किये हुवे थे । जब सेनाएं अलग अलग दिशा में थी अकबर के दस्ते में 200 से ज्यादा सैनिक नही थे ।



सामने इब्राहिम हुसैन मिर्जा नदी के उस पार बङी सेना लेकर खङा था जब सिपाहियों ने यह सुना तो अकबर सेना का साहस ङगमङ करने लगा । महीदी नदी को पार करते समय कुँवर मानसिंह आमेर सेना के अग्र भाग में रहे जबकि अकबर डरा हुआ था कि उसके पास बेहद छोटी सी टुकङी है । महीदी नदी के तट प्रदेश में ही किला था दरवाजा नदी कि और था । जब इब्राहिम हुसैन मिर्जा को मालुम हुआ कि कुँवर मानसिंह कि सेना आगे है तो वह सरनाल से बाहर चला गया ।


कुँवर मानसिंह व राजा भगवन्तदास ने उसका पिछा किया एक ऐसी जगह दोनों सेनाओं का आमना सामना हुआ जहाँ रास्ता बङा तंग था दोनों तरफ झाड़ियां थी । तीन घुङसवार जहाँ मुश्किल से खङे हो सकते हो ।
मिर्जा के घुङसवारों ने हमला किया भगवन्तदास पर हमला किया जिसका उन्होंने बहुत अच्छा जवाब दिया ।
अंत में घुङसवारों को भागने पर विवश होना पङा । सेना पर बाण वर्षों हुई तो कुँवर मानसिंह ने अपना घोड़ा शत्रु दल के बिच कुदा दिया व झाड़ियों के बिच जाकर बङी विरता से उनकों खत्म किया । उमरा-ए-हनूद ने मानसिंह कि विरता कि प्रसंशा कि है ।


23 दिसम्बर 1572, को सरनाल की लङाई समाप्त हो गयी । इब्राहीम हुसैन मिर्जा युद्ध क्षेत्र से भाग गया था ।
इस युद्ध में विरता के लिये आमेर को सरनाल युद्ध के हरावल में रहने कि याद में ध्वज व नगारा विजय प्रतीक रुप में मिला ।।

Tuesday 18 October 2016

अबोध-बोध



श्रेष्ठ जीवन पद्धति इतनी ही है की स्वयं की श्रेष्ठताओ का विकास किया जावे और निकृष्ठताओ को विदा किया जावे।
दुसरो की श्रेष्ठता या निकृष्ठता न तो हमें कुछ दे सकती है और न ही कुछ छीन सकती है।
अपने ही भीतर, श्रेष्ठ व निकृष्ठ परवर्तियों की खोज व उनका शोधन करना होगा ।



अबोध-बोध

राजा मान सिंह जोधपुर

आभ फटै धर उल्टै , कटै बगत री कौर
सर तूटै धड़ तड़फड़ै जद छूटे जालौर ।


- राजा मान सिंह जोधपुर

सम्राट मिहिरभोज जयंती कन्नौज 2016

सम्राट मिहिरभोज जयंती कन्नौज ---

आज 18 अक्टूबर को कन्नौज (उ.प्र.)में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा कन्नौज के तत्वावधान में क्षत्रिय समाज ने अपने पूर्वज क्षत्रिय शिरोमणि महान चक्रवर्ती सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार की जयंती के अवसर पर रैली निकालकर सर्वसमाज को उनके शौर्य की गाथा बताई गई।

कार्यक्रम में मिहिरभोज जी के इतिहास पर भी चर्चा हुई। इनके इतिहास की जानकारी देते हुए बताया गया की ये कन्नौज मे 836 से 885 ईस्वी तक शासन किया था ये परिहार क्षत्रिय वंश के महान सम्राट थे। इन्होने 9 वीं शताब्दी में हो रहे अरब आक्रमणों को विफल किया एवं 40 युद्ध कर सनातन धर्म की रक्षा की एवं राजपूत समुदाय का नाम उंचा किया।

इनका ऐसा खौफ था की अरब के प्रसिद्ध इतिहासकार सुलेमान ने अपने ग्रंथ सिलसिला-उत- तावरीख पर मिहिरभोज के पराक्रम के बारे मे लिखा है की भारत में मिहिरभोज से बडा इस्लाम का शत्रु कोई नही है।
इस जयंती पर और भी अहम मुद्दों पर भी चर्चा हुई एवं आगामी जयंती को ज्यादा से ज्यादा भव्य बनाने के लिए सबकी सहमति हुई ।

इस कार्यक्रम को सफल बनाने में मुख्य रुप से युवाओं का भी बडा योगदान रहा जिसमे दीपक सिंह परिहार, मनोज सिंह परिहार सुमित सिंह चौहान, लवकेश सिंह परिहार, अर्जुन सिंह राठौर, कमल सिंह परिहार, राघवेंद्र सिंह राठौर, सुलभ सिंह परिहार, नितेश सिंह तोमर, अजय सिंह परिहार, राकेश सिंह चौहान, मनीष सिंह परिहार, रणविजय सिंह परिहार , विनय सिंह, सुरेंद्र सिंह परमार, सुधीर सिंह कलहंस, शंकर सिंह परिहार, नवीन सिंह परिहार, आदित्य सिंह राघव, अभिजीत सिंह परिहार आदि सैकडो युवाओं के साथ हजारो संख्या में लोगों ने इस रैली को ऐतिहासिक रुप दिया।

Thursday 13 October 2016

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार जयंती 18 अक्टूबर             

                    जीवन परिचय  
                  सनातन धर्म रक्षक
             सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार

(1) सम्राट मिहिरभोज का जन्म विक्रम संवत 873 (816 ईस्वी) को हुआ था। आपको कई नाम से जाना जाता है जैसे भोजराज, भोजदेव , मिहिर , आदिवराह एवं प्रभास।

(2) आपका राज्याभिषेक विक्रम संवत 893 यानी 18 अक्टूबर दिन बुधवार 836 ईस्वी में 20 वर्ष की आयु में हुआ था। और इसी दिन 18 अक्टूबर को ही हर वर्ष भारत में आपकी जयंती मनाई जाती है।

(3) इनके दादा का नाम नागभट्ट द्वितीय था उनका स्वर्गवास विक्रम संवत 890 (833 ईस्वी) भादो मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को हुआ। इनके पिता का नाम रामभद्र और माता का नाम अप्पादेवी था। माता पिता ने सूर्य की उपासना की थी जिसके फलस्वरूप उन्हें मिहिरभोज के रुप मे पुत्र की प्राप्ति हुई थी।

(4) सम्राट मिहिरभोज की पत्नी का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था। जो भाटी राजपूत वंश की थी। इनके पुत्र का नाम महेन्द्रपाल प्रतिहार था जो सम्राट मिहिरभोज के स्वर्गवास उपरांत कन्नौज की गद्दी पर बैठे।

(5) विक्रम संवत 945 (888 ईस्वी) 72 वर्ष की आयु में सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार का स्वर्गवास हुआ।

   -------- > साम्राज्य < --------

(1) सम्राट मिहिरभोज के साम्राज्य का विस्तार आज के मुल्तान से पश्चिम बंगाल और कश्मीर से उत्तर महाराष्ट्र तक था।

(2) सम्राट मिहिरभोज गुणी बलवान , न्यायप्रिय , सनातन धर्म रक्षक , प्रजा हितैषी एवं राष्ट्र रक्षक थे।

(3) सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार शिव शक्ति के उपासक थे। और उन्होंने मलेच्छों (अरब, मुगल, कुषाण, हूण) से पृथ्वी की रक्षा की थी। उन्हें वराह यानी भगवान विष्णु का अवतार भी बताया गया है। उनके द्वारा चलाये गये सिक्कों पर वराह की आकृति बनी हुई है। 

(4) अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक सिलसिला - उत - तारिका 851 ईस्वी में लिखी। वह लिखता है की सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार (परिहार) के पास उंटो, घोडों व हाथियों की बडी विशाल एवं सर्वश्रेष्ठ सेना है। उनके राज्य में व्यापार सोने व चांदी के सिक्कों से होता है। उनके राज्य में सोने व चांदी की खाने भी है। इनके राज्य में चोरों डाकुओं का भय नही है। भारत वर्ष में मिहिरभोज प्रतिहार से बडा इस्लाम का अन्य कोई शत्रु नहीं है। मिहिरभोज के राज्य की सीमाएं दक्षिण के राष्ट्रकूटों के राज्य , पूर्व में बंगाल के शासक पालवंश और पश्चिम में मुल्तान के मुस्लिम शासकों से मिली हुई है।

  ------> मिहिरभोज की सेना < -------

(1) सम्राट मिहिरभोज के पूर्वज नागभट्ट प्रथम (730 - 760 ईस्वी) ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा जो सर्व प्रथम चलाई , वो मिहिरभोज के समय और पक्की होई गई थी।

(2) विक्रम संवत 972 (915 ईस्वी) में भारत भ्रमण आये बगदाद के इतिहासकार अलमसूदी ने अपनी किताब मिराजुल - जहाब में इस महाशक्तिशाली , महापराक्रमी सेना का विवरण किया है। उसने इस सेना की संख्या लाखों में बताई है। जो चारो दिशाओं में लाखो की संख्या में रहती है।

(3) प्रसिद्ध इतिहासकार के. एम. मुंशी ने सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार की तुलना गुप्तवंशीय सम्राट समुद्रगुप्त और मौर्यवंशीय सम्राट चंद्रगुप्त से इस प्रकार की है। वे लिखते हैं कि सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार इन सभी से बहुत महान थे। क्योंकि तत्कालीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति के लिए जो चुनौती अरब के इस्लामिक विजेताओं की फौजों द्वारा प्रस्तुत की गई। वह समुद्रगुप्त , चंद्रगुप्त आदि के समय पेश नही हुई थी और न ही उनका मुकाबला अरबों जैसे अत्यंत प्रबल शत्रुओं से हुआ था।

(4) भारत के इतिहास में मिहिरभोज से बडा आज तक कोई भी सनातन धर्म रक्षक एवं राष्ट्र रक्षक नही हुआ।

एक ऐसा हिंदू क्षत्रिय योद्धा , अरबों का सबसे बडा दुश्मन जिसने लगभग 40 युद्घ कर अरबों को भारत से पलायन करने पर मजबूर कर दिया एवं सनातन धर्म की रक्षा की, ऐसे थे महान चक्रवर्ती सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार जिसने भारत पर 50 वर्ष शासन किया। 

=====  वृहद इतिहास =====

एक ऐसा राजा जिसने अरब तुर्क आक्रमणकारियों को भागने पर विवश कर दिया और जिसके युग में भारत सोने की चिड़िया कहलाया। मित्रों परिहार क्षत्रिय  वंश के नवमीं शताब्दी में सम्राट मिहिरभोज भारत का सबसे महान शासक था। उसका साम्राज्य आकार, व्यवस्था , प्रशासन और नागरिको की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए चक्रवर्ती गुप्त सम्राटो के समकक्ष सर्वोत्कृष्ट था।

भारतीय संस्कृति के शत्रु म्लेछो यानि मुस्लिम तुर्को -अरबो को पराजित ही नहीं किया अपितु उन्हें इतना भयाक्रांत कर दिया था की वे आगे आने वाली एक शताब्दी तक भारत की और आँख उठाकर देखने का भी साहस नहीं कर सके।

चुम्बकीय व्यक्तित्व संपन्न सम्राट मिहिर भोज की बड़ी बड़ी भुजाये एवं विशाल नेत्र लोगों में सहज ही प्रभाव एवं आकर्षण पैदा करते थे। वह महान धार्मिक , प्रबल पराक्रमी , प्रतापी , राजनीति निपुण , महान कूटनीतिज्ञ , उच्च संगठक सुयोग्य प्रशासक , लोककल्याणरंजक तथा भारतीय संस्कृति का निष्ठावान शासक था।

ऐसा राजा जिसका साम्राज्य संसार में सबसे शक्तिशाली था। इनके साम्राज्य में चोर डाकुओ का कोई भय नहीं था। सुदृढ़ व्यवस्था व आर्थिक सम्पन्नता इतनी थी कि विदेशियो ने भारत को सोने की चिड़िया कहा।

यह जानकर अफ़सोस होता है की ऐसे अतुलित शक्ति , शौर्य एवं समानता के धनी मिहिरभोज को भारतीय इतिहास की किताबो में स्थान नहीं मिला।
सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार के शासनकाल में सर्वाधिक अरबी मुस्लिम लेखक भारत भ्रमण के लिए आये और लौटकर उन्होंने भारतीय संस्कृति सभ्यता आध्यात्मिक-दार्शनिक ज्ञान विज्ञानं , आयुर्वेद , सहिष्णु , सार्वभौमिक समरस जीवन दर्शन को अरब जगत सहित यूनान और यूरोप तक प्रचारित किया।

क्या आप जानते हे की सम्राट मिहिरभोज ऐसा शासक था जिसने आधे से अधिक विश्व को अपनी तलवार के जोर पर अधिकृत कर लेने वाले ऐसे अरब तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों को भारत की धरती पर पाँव नहीं रखने दिया , उनके सम्मुख सुदृढ़ दीवार बनकर खड़े हो गए। उसकी शक्ति और प्रतिरोध से इतने भयाक्रांत हो गए की उन्हें छिपाने के लिए जगह ढूंढना कठिन हो गया था। ऐसा किसी भारतीय लेखक ने नहीं बल्कि मुस्लिम इतिहासकारो बिलादुरी सलमान एवं अलमसूदी ने लिखा है। ऐसे महान सम्राट मिहिरभोज ने 836 ई से 885 ई तक लगभग 50 वर्षो के सुदीर्घ काल तक शासन किया।

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार जी का जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में रामभद्र प्रतिहार की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है। मिहिरभोज के बारे में इतिहास की पुस्तकों के अलावा बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इनके शासन काल की हमे जानकारी वराह ताम्रशासन पत्र से मालूम पडती है जिसकी तिथि (कार्तिक सुदि 5, वि.सं. 893 बुधवार) 18 अक्टूबर 836 ईस्वी है। इसी दिन इनका राजतिलक हुआ था।

मिहिरभोज के साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक ओर कश्मीर से कर्नाटक तक था। सम्राट मिहिरभोज बलवान, न्यायप्रिय और धर्म रक्षक थे। मिहिरभोज शिव शक्ति एवं भगवती के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है।

प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिर भोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ था उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की।

50 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्रपाल प्रतिहार को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे। सम्राट मिहिरभोज का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिरभोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णु के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।

सम्राट मिहिरभोज का नाम आदिवाराह भी है। जिस प्रकार वाराह (विष्णु) भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार मिहिरभोज मलेच्छों(अरबों, हूणों, कुषाणों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की एवं सनातन धर्म के रक्षक बने।

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार की जयंती हर वर्ष 18 अक्टूबर को मनाई जाती है जिन स्थानों पर परिहारों, पडिहारों, इंदा, राघव, लूलावत, देवल, रामावत,मडाडो अन्य शाखाओं को सम्राट मिहिरभोज के जन्मदिवस का पता है वे इस जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिरभोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें।

अरब यात्रियों ने किया सम्राट मिहिरभोज का यशोगान अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में लिखी जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखता है कि प्रतिहार सम्राट की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह भी लिखा है कि भारत में सम्राट मिहिर भोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रु नहीं है। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार, सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यह भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने भी हैं।यह राज्य भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें डाकू और चोरों का भय नहीं है।

मिहिर भोज राज्य की सीमाएं दक्षिण में राष्ट्रकूटों के राज्य, पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में मुलतान के शासकों की सीमाओं को छूती है। शत्रु उनकी क्रोध अग्नि में आने के उपरांत ठहर नहीं पाते थे। धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की।

कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगणी में सम्राट मिहिरभोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मंडलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए दंडनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शांति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियंत्रण था।

किसी की आज्ञा का उल्लंघन करने व सिर उठाने की हिम्मत नहीं होती थी। उनके पूर्वज सम्राट नागभट्ट प्रतिहार ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस समय में और भी पक्की हो गई और प्रतिहार राजपूत साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है, जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता था।।

* आइये जानते है हिन्दू क्षत्रिय शौर्य और बहादुरी से जुड़े सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार" के रोचक पहलू *

== काव्यों एवं इतिहास मे इन विशेषणो से वर्णित किया ====

क्षत्रिय सम्राट,भोजदेव, भोजराज, वाराहवतार, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, महानतम भोज, मिहिर महान।

==== शासनकाल ====

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार ने 18 अक्टूबर 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक 50 साल तक राज किया। मिहिर भोज के साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक और कश्मीर से कर्नाटक तक था।

==== साम्राज्य ====

परिहार वंश ने अरबों से 300 वर्ष तक लगभग 200 से ज्यादा युद्ध किये जिसका परिणाम है कि हम आज यहां सुरक्षित है। प्रतिहारों ने अपने वीरता, शौर्य , कला का प्रदर्शन कर सभी को आश्चर्यचकित किया है। भारत देश हमेशा ही प्रतिहारो का रिणी रहेगा उनके अदभुत शौर्य और पराक्रम का जो उनहोंने अपनी मातृभूमि के लिए न्यौछावर किया है। जिसे सभी विद्वानों ने भी माना है। प्रतिहार साम्राज्य ने दस्युओं, डकैतों, अरबों, हूणों, से देश को बचाए रखा और देश की स्वतंत्रता पर आँच नहीं आई।

इनका राजशाही निशान वराह है। ठीक उसी समय मुश्लिम धर्म का जन्म हुआ और इनके प्रतिरोध के कारण ही उन्हे हिंदुश्तान मे अपना राज कायम करने मे 300 साल लग गए। और इनके राजशाही निशान " वराह " विष्णु का अवतार माना है प्रतिहार मुश्लमानो के कट्टर शत्रु थे । इसलिए वो इनके राजशाही निशान 'बराह' से आजतक नफरत करते है।

==== शासन व्यवस्था==

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार वीरता, शौर्य और पराक्रम के प्रतीक हैं। उन्होंने विदेशी साम्राज्यो के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपनी पूरी जिन्दगी अपनी मलेच्छो से पृथ्वी की रक्षा करने मे बिता दी। सम्राट मिहिरभोज बलवान, न्यायप्रिय और धर्म रक्षक सम्राट थे। सिंहासन पर बैठते ही मिहिरभोज ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। मिहिरभोज ने प्रतिहार राजपूत साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में उसे 'सम्राट' मिहिरभोज प्रतिहार की उपाधि मिली थी। अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे कई महान विशेषणों से वर्णित किया गया है।

==== वराह उपाधी ====

सम्राट मिहिर भोज के महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णु के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी। सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे यह मुख्य कारण हैं 

1. जिस प्रकार वाराह (विष्णु जी) भगवान ने
पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार मिहिरभोज ने मलेच्छों को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। इसीलिए इनहे आदिवाराह की उपाधि दी गई है।

==== उपासक ====

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार शिव शक्ति के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है। प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिरभोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ था। उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की। 50 वर्ष तक राज करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्रपाल प्रतिहार को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे। सम्राट मिहिरभोज का सिक्का जो कन्नौज की मुद्रा था उसको सम्राट मिहिरभोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था।

==== धन व्यवस्था ====

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णु के अवतार के तौर पर जाना जाता है। इनके पूर्वज सम्राट नागभट्ट प्रथम ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस समय में और भी पक्की हो गई और प्रतिहार साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है, जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता हो।

मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की दूनिया कि सर्वश्रेष्ठ सेना थी । इनके राज्य में व्यापार,सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यइनके राज्य में सोने और चांदी की खाने भी थी। भोज ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। मिहिरभोज ने प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया।

==== विश्व की सुगठित और विशालतम सेना ====

मिहिरभोज प्रतिहार की सैना में 8,00,000 से ज्यादा पैदल करीब 90,000 घुडसवार,, हजारों हाथी और हजारों रथ थे। मिहिरभोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय किसी को नहीं था। जरा हर्षवर्धन बैस के राज्यकाल से तुलना करिए। हर्षवर्धन के राज्य में लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे,पर मिहिरभोज के राज्य में खुली जगहों में भी चोरी की आशंका नहीं रहती थी।

==== बचपन से ही बहादुर और निडरता ====

मिहिरभोज प्रतिहार बचपन से ही वीर बहादुर माने जाते थे।एक बालक होने के बावजूद, देश के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को महसूस करते हुए उन्होंने युद्धकला और शस्त्रविधा में कठिन प्रशिक्षण लिया। राजकुमारों में सबसे प्रतापी प्रतिभाशाली और मजबूत होने के कारण, पूरा राजवंश और विदेशी आक्रमणो के समय देश के अन्य राजवंश भी उनसे बहुत उम्मीद रखते थे और देश के बाकी वंशवह उस भरोसे पर खरे उतरने वाले थे।

==== वह वैध उत्तराधिकारी साबित हुए ====

मिहिरभोज प्रतिहार राजपूत साम्राज्य के सबसे प्रतापी सम्राट हुए उनके राजगद्दी पर बैठते ही जैसे देश की हवा ही बदल गई । मिहिरभोज की वीरता के किस्से पूरी दूनीया मे मशूहर हुए।विदेशी आक्रमणो के समय भी लोग अपने काम मे निडर लगे रहते है। गद्दी पर बैठते ही उन्होने देश के लुटेरे,शोषण करने वाले, गरीबो को सताने वालो का चुन चुनकर सफाया कर दिया। उनके समय मे खुले घरो मे भी चोरी नही होती थी।

==== अरबी लेखो मे मिहिरभोज का है यशोगान ====

* अरब यात्री सुलेमान - पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं :
जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान सम्राट मिहिरभोज के बारे में लिखता है कि इस सम्राट की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह भी लिखा है कि भारत में सम्राट मिहिरभोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रु नहीं था । मिहिरभोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार,सोना चांदी के सिक्कों से होता है। ये भी कहा जाता है।कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने भी थी।

* बगदाद का निवासी अल मसूदी 915ई.-916ई *

वह कहता है कि (जुज्र) प्रतिहार  साम्राज्य में 1,80,000 गांव, नगर तथा ग्रामीण क्षेत्र थे तथा यह दो किलोमीटर लंबा और दो हजार किलोमीटर चौड़ा था। राजा की सेना के चार अंग थे और प्रत्येक में सात लाख से नौ लाख सैनिक थे। उत्तर की सेना लेकर वह मुलतान के बादशाह और दूसरे मुसलमानों के विरूद्घ युद्घ लड़ता है। उसकी घुड़सवार सेना देश भर में प्रसिद्घ थी।जिस समय अल मसूदी भारत आया था उस समय मिहिरभोज तो स्वर्ग सिधार चुके थे परंतु प्रतिहार शक्ति के विषय में अल मसूदी का उपरोक्त विवरण मिहिरभोज के प्रताप से खड़े साम्राज्य की ओर संकेत करते हुए अंतत: स्वतंत्रता संघर्ष के इसी स्मारक पर फूल चढ़ाता सा प्रतीत होता है। समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था,क्योंकि प्रतिहार राजपूत राजाओं ने 11 वीं सदी तक इस्लाम को भारत में घुसने नहीं दिया था। मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को आर्यवर्त का महान सम्राट कहा जाता था।