Saturday 11 August 2018

महाराजा मानसिंह आमेर

महाराजा मानसिंह आमेर:-




धर्म रक्षक राजा मानसिंह- आमेर ने अपने जीवन में काबुल से लेकर आसाम, बिहार, बंगाल व उडीसा तक 77 बड़े युद्ध लड़े व सभी में विजय प्राप्त की। मानसिंह जी न केवल कुशल सेनानायक ही थे बल्कि उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने अपने बुद्धिबल से वो विलक्षण व प्रभावशाली कार्य किये, जो वर्तमान व भविष्य की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुये। वे अपने जीवन में सदैव धर्म सापेक्ष रहे और अपने कुल के सिद्धांतवादी उद्घोष “यतो धर्मोस्ततो जयः’ के अनुरूप ही अपनी सामाजिक व राजनैतिक स्थिति का वर्चस्व कायम रहा। समकालीन ही नहीं उसके पश्चात् के कवियों ने भी उनके क्रियाकलापों को श्रेष्ठतम बताया है।

धार्मिक स्थलों का निर्माण व जीर्णोद्धार - राजा मानसिंह ने उड़ीसा के गर्वनर रहते हुये भगवान जगन्नाथ के पुरीमठ को मुसलमानों से मुक्त कराकर उसका जीर्णोद्धार कराया व खुर्दा के राजा को मंदिर का अधीक्षक बनाकर पुन: प्राण प्रतिष्ठा व मंदिर का शुद्धिकरण करवाया। वृंदावन में गोविन्द देव (कृष्ण) मंदिर बनवाया जिसे कालान्तर में औरंगजेब के शासनकाल में उन्हीं के वंशज राजा ने मूल विग्रह को जयपुर में पुर्नस्थापित करवाया। राजा मानसिंह ने ही काशी बनारस में गंगा नदी पर भव्य दशाश्वमेघ घाट का निर्माण करवाया। घाट के पास ही एक मंदिर बनवाया जिसे मान मंदिर कहते हैं।

बिहार के गर्वनर रहते हुये मानसिंह ने मानभूम (वर्तमान में बंगाल) में पारा गाँव के पास दो मंदिरों का निर्माण करवाया। तेलकूपी नामक गांव में भी मानसिंह द्वारा मंदिर निर्माण किया गया यह भी मानभूम क्षेत्र में है। बिहार के संथाल परगने के पास अम्बर नाम का परगना है। साक्षियों के अनुसार यह क्षेत्र मानसिंह ने ब्राह्मणों को जागीर में दिया था। बिहार राज्य के पटना जिले में बैकुण्ठपुर ग्राम की नींव राजा मानसिंह द्वारा रखी गई थी वहाँ मंदिर बनाया गया। मंदिर के मुख्य पुजारी के पास फरमान है और ये फरमान भूमिदान से संबंधित है। यहाँ पर राजा मानसिंह की माता की मृत्यु हुई थी। इस मंदिर का निर्माण 1600 ई. में करवाया गया था।

बिहार के गया क्षेत्र में एक कस्बे की नींव रखी जिसका नाम मानपुर था जो गया शहर में फाल्गुन नदी के किनारे पर स्थित है। स्थानीय मान्यता है कि स्थानीय मुसलमानों को करारी शिकस्त दी थी। मुस्लिम सरदारों पर विजय के उपलक्ष में यह कस्बा बसाया गया। यहाँ पर भी एक मंदिर बनवाया गया था। शाही सेनापति के रूप में मानसिंहजी जहाँ कहाँ भी नियुक्त हुये वहाँ की जनता में अपनी धर्म सापेक्षता की छाप छोड़ी। ऐसे मानसिंह के प्रति काव्य प्रणेता कविगणों का झुकाव होना स्वाभाविक ही है। उन्होंने अनेक कवियों को यथा योग्य सम्मान व पुरष्कृत किया। इसी कारण उन्हें कीर्ति पुरूप भी कहा जाता है। उनके दान की सर्वत्र प्रशंसा थी। उनकी दानवीरता के विषय में कवि हरनाथ का यह दोहा प्रसिद्ध है :-

बलि बोई कीरत-लता, कर्ण किए द्वेय पात।।
सींची मान महीप ने, जब देखी कुम्मलात्।।

अर्थ :- दानवीर बहलोचन सुत बलि राजा ने कीर्ति की बेल को बोया। महाभारत के अनुपम योद्धा सूर्य पुत्र कर्ण ने उसे सींचकर उसमें दो पत्तों की वृद्धि की। वह कीर्ति लता इस काल में कुमलाने लगी तो राजा मानसिंह ने उसमें द्रव्य जल देकर सूखने से बचाया।

महाराजाधिराज बीसलदेव चौहान 'उतरदेश रक्षक' अजमेर, सपादलक्ष सांभर का स्वर्णयुग (1153 - 1163 ई.)

महाराजाधिराज बीसलदेव चौहान 'उतरदेश रक्षक' अजमेर, सपादलक्ष सांभर का स्वर्णयुग (1153 - 1163 ई.)



अजमेर के महाराजा अणोंराज के वीर पुत्र बीसलदेव ने देश की रक्षा के पराक्रम में बहुत सफलता प्राप्त की थी । गजनी के सुल्तान खुसरो शाह मलिक ने एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण कर दिया था और वह खेतड़ी के पास विवेरा गांव तक आ पहुंचा था । विवेरा (बम्बेरा) खेतड़ी के पास का तीर्थ स्थान था जहां ब्राह्मण रहते थे । खुसरो की सेना ने तीर्थ स्थान पर आक्रमण करके पास के नगर बाघोट पर विजय प्राप्त कर ली । बीसलदेव को उसके मुख्यमंत्री श्रीधर ने सलाह दी कि वह धन देकर समझौता कर ले परन्तु उस वीर ने युद्ध करके आक्रमणकारी को खदेड़ दिया । इस युद्ध में गोगा तोमर और बाघ तोमर भाईयों ने अपूर्व वीरता दिखा कर अपना बलिदान दिया था । इस युद्ध में विजय प्राप्त करने पर बीसलदेव ने उत्तर देश के रक्षक की उपाधि धारण की ।

1163 ई. के दिल्ली शिवालिक स्तम्भ (फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में) का शिलालेख बीसलदेव की प्रशंसा में लिखता है कि बीसलदेव ने बार-बार मल्लेछो (मलिन इच्छा) का विनाश करके विंध्याचल से हिमालय के बीच के देश को पुन: केवल नाम का ही नहीं वरन् सच में आर्यावृत बना दिया है । बीसलदेव अपनी भावी संतानों को कहते है कि उद्योग मत छोड़ना और शेष प्रदेशों को तुम आर्यावृत बनाना ।’ यह शिलालेख अशोक स्तम्भ पर अम्बाला के पहाड़ों की तराई में गांव साधौरा में था । सोमदेव रचित नाटक ललित विग्रहराज में बीसलदेव कहते हैं कि मुझे जीने की परवाह नहीं, मैं ब्राह्मणों, मन्दिरों की, गजनी के अमीरों से रक्षा करके रहूंगा । बीसलदेव कवियों के आश्रयदाता था इसलिए उन्हें कविबोधक की उपाधि दी गई । वे कवि सोमदेव के सरंक्षक थे ।

बीसलदेव ने सैकड़ों गढ़ और मन्दिर बनवाए तथा अजमेर में संस्कृत कंठाभरण विद्यालय बनवाया जिसे मुसलमान आक्रमणकारियों ने बाद में तोड़ कर अढ़ाई दिन का झौंपड़ा बना दिया । अंग्रेज पुरातत्वविद्कन्हिगम ने इस विद्यालय की सुन्दरता को विश्व में बेजोड़ बताया है । बीसलदेव ने अजमेर में जैन विहार बनवाया और पवित्र तिथियों पर पशु हत्या पर रोक लगाई ।इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा के Rajasthan Throught the Ages-I के अनुसार बीसलदेव का राज्यकाल सपादलक्ष क्षेत्र का स्वर्ण युग कहलाने योग्य है । यह युग उन सभी उपलब्धियों से भरा था जिससे एक देश को महान कहा जा सकता है । प्रबंधकोष भी बीसलदेव को तुर्क विजयी कहता है।

आंचल और आग - प्रसिद्ध उद्योगपति श्री जी.डी. बिड़ला के ज्येष्ठ पुत्र श्री लक्ष्मीनाथ बिड़ला ने बीसलदेव चौहान पर यह उपन्यास लिखा है, जिसमें वे लिखते हैं कि 'इस उपन्यास का नायक बीसलदेव स्वतन्त्रता के अमर पुजारियों की श्रेणी में आता है और उसका स्थान इस कोटि के महापुरुषों में काफी ऊंचा है ।' Early Chauhan Dyasties- Dashrath Sharma (1150-1164),

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 74) इतिहास दर्पण 2005

जब सत्य की खोज करने वालों का अभाव हो जाता है

जब सत्य की खोज करने वालों का अभाव हो जाता है :-



जब सत्य की खोज करने वालों का अभाव हो जाता है, तब प्रदूषित बुद्धि वाले विद्वान, पूर्व पुरुषों द्वारा प्रकट किए हुए ज्ञान में अपनी बुद्धि से प्रदूषण का मिश्रण कर शास्त्रों का निर्माण करते हैं । शासक वर्ग भी प्रदूषित बुद्धि व आचरण वाले लोगों पर नियंत्रण करने के नाम पर नियम व कानूनों का निर्माण करने में संलग्न हो जाते हैं । इस प्रदूषण की होङ में नित नये शास्त्रों व उनकी व्याख्याओं के युग का आरंभ होता है । प्रदूषित शास्त्रों का अनुसरण करने से श्रेष्ठ मानव की जगह आसुरी शक्तियों का उदय होने लगता है ।

इस काल में जो व्यक्ति आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करता है, उसे लोग ईश्वर तुल्य मानकर, उसकी पूजा करने लगते हैं । ये श्रेष्ठ लोग आसुरी शक्तियों के विनाश की लोगों को प्रेरणा देने के लिए ज्ञान का आश्रय लेने के स्थान पर, अपने उज्ज्वल चरित्र से लोगों को प्रभावित कर उन्हें सत्य पथ का पथिक बनाना चाहते हैं । ऐसे युग को ही "त्रेतायुग" कहा जाता है, जहाँ ज्ञान के अभाव में पौरुष के प्रदर्शन को ही सर्वश्रेष्ठ कृत्य समझा जाता है । -

अबोध बोध - देवीसिंह महार साहब

राजा चन्द्रसेन डोर

राजा चन्द्रसेन डोर -



कुतुबुद्दीन का मेरठ और बरन बुलन्दशहर पर आक्रमण (1192 ई.) -
गजनी के सुल्तान मोहम्मद गौरी का प्रतिनिधि भारत में कुतुबुद्दीन एबक था । उसने इस क्षेत्र के डोर राजपूतों को हराने के लिए उसके राजा चन्द्रसेन पर हमला किया । हसन निजामी के अनुसार मेरठ में उस समय बहुत ऊंचा और सुदृढ़ किला था जो भारत भर में प्रसिद्ध था ।

मुसलमानों ने दुर्ग घेरा पर उनको सफलता की आशा नहीं थी इसलिए कुतुबुद्दीन ने दुर्ग रक्षक अजयपल और हीरा ब्राह्मण को अपनी ओर मिला लिया और उन्होंने चुपके से मुस्लिम सेना को प्रवेश दे दिया।

अचानक हुए इस धावे से राजपूत संभल नहीं सके परन्तु राजा चन्द्रसेन ने बहादुरी से युद्ध किया और उसने मुसलमानों के प्रसिद्ध सेनापति ख्वाजा लाल अली को मार डाला । अली की कब्र आज भी काली नदी के पार मौजूद है । ऐबक ने सारे मंदिर तोड़ मस्जिदें बनवाई ।

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 120)