Monday 8 December 2014
Saturday 29 November 2014
Tuesday 21 October 2014
Monday 20 October 2014
चाँम्पावत
चाँम्पावत
काहु के दो चार है, काहू के दस बीस ।
रहे उजेनी राङ मे, चाँपावत चालीस ॥
रहे उजेनी राङ मे, चाँपावत चालीस ॥
जुध कीयो जोरे जबर, जाण्यो सोह जगत ।
खाग बजाई खैरवे, चौङे चाँपावत ॥
खाग बजाई खैरवे, चौङे चाँपावत ॥
चाँपा थारी चाल, औरा न आवे नी ।
बीकानौ थारे लार, जैपर है जलेब मे ॥
बीकानौ थारे लार, जैपर है जलेब मे ॥
चलियो चांपो चंड, अमर पिंड धर अषव पर ।
पहुँचयो प्रबल प्रचंड, मुगलां दल देखत मुदै ।।
पहुँचयो प्रबल प्रचंड, मुगलां दल देखत मुदै ।।
प्राचिर ऊपर पूग्ग, कोई नय नंहलरव कमध ।
पैली पारहि पुग्ग, कपि शिर खाई लाँघकर ।।
पैली पारहि पुग्ग, कपि शिर खाई लाँघकर ।।
मंगल - मरण :-
मंगल - मरण :-
मरणो - मरणो सब करै, मरै सकल नर नार !
मरनै पहली जो मरै, सो मरण बळीहार !!
मरनै पहली जो मरै, सो मरण बळीहार !!
मरै सरब पण ठाकरां, मरनै भेद बहोत !
सूरा रण खेतां मरै, कायर मोचै मौत !!
सूरा रण खेतां मरै, कायर मोचै मौत !!
मरदां मरणा हक्क है, उबरसी गल्हा !
सा पुरसां रा जीवणा, थोड़ा ही भल्ला !!
सा पुरसां रा जीवणा, थोड़ा ही भल्ला !!
मरै चोर, कायर मरै, अंतर मरण अपार !
हुवै सोच घर कायरा, सुहडा जस संसार !!
हुवै सोच घर कायरा, सुहडा जस संसार !!
चुरु चाली ।
चुरु चाली ।
कादाँ खाया कमध्जा, घी खायो गोला ।
चुरू चाळी ठाकरा, बाजंता ढोळाह ॥
चुरू चाळी ठाकरा, बाजंता ढोळाह ॥
हाठ हताया बिगड्या, गढ़ बिगड्या गोला ।
चूरु थारी ठाकरा बाजंता ढोला ।।
चूरु थारी ठाकरा बाजंता ढोला ।।
The Rajput
एक अंग्रेज इतिहासकार लिखता है -
"The Rajputs have learnt nothing and forgotten nothing since the days of Mohamed-bin-kasim".
अर्थात् भारत पर प्रथम मुसलमान आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम के समय से लगातार अब तक राजपूतों ने न कुछ सीखा है और ने कुछ भुला है ।
Sunday 19 October 2014
प्रमाण अलेखूं पुख्ता है ।
प्रमाण अलेखूं पुख्ता है ।
प्रमाण अलेखूं पुख्ता है, इतिहास जिकण रो साखी है ।
इण आजादी री इज्जत नैं, म्हे राजस्थान्यां राखी है ।।
इण आजादी री इज्जत नैं, म्हे राजस्थान्यां राखी है ।।
म्हैं इतिहासां में बांच्योड़ी, साचकली बात बताऊं हूं ।
घटना दर घटना भारत रै, गौरव री गाथ सुणाऊं हूं ।।
घटना दर घटना भारत रै, गौरव री गाथ सुणाऊं हूं ।।
इण गौरवगाथा रै पानां में, सोनलिया आखर म्हारा है ।
कटतोड़ा माथा, धड़ लड़ता, बख्तर अर पाखर म्हारा है ।।
कटतोड़ा माथा, धड़ लड़ता, बख्तर अर पाखर म्हारा है ।।
धारां धंसतोड़ां, भड़बंकां, मर कर राखी है आजादी ।
सिंदूर, दूध अर राखी री, कीमत दे राखी आजादी ।।
म्हे रीझ्या सिंधू रागां पर, खागां री खनकां साखी है।
इण आजादी री इज्जत नैं, म्हे राजस्थान्यां राखी है।।
इण आजादी री इज्जत नैं, म्हे राजस्थान्यां राखी है।।
''शक्तिसुत''
Wednesday 15 October 2014
"उतर भट्ट किवाड़ भाटी"
उतर भट्ट किवाड़ भाटी :-
वि. सं. 1233 के करीब यवन सेना अनहलवाङ पर चढाई को चली ।
लोद्रवा के भाटी भोजदेव ने जिनकी पदवी "उत्तर भटट् किवाड़ भाटी" थी ।
ने यवनों के आक्रमण को रोकने के लिए अपने चाचा जैसलदेव को लिखा ।।
"भङ किवाड़ उतराद रा भाटी झेलण भार,
वचन रखा विजराज रो, समहर बांधा सार ।
वचन रखा विजराज रो, समहर बांधा सार ।
तोङा धङ तुकराण री, मोडां खान मगेज,
दाखै अनमी भोजदे, जादम करे न जेज" ।।
दाखै अनमी भोजदे, जादम करे न जेज" ।।
Friday 10 October 2014
झिरमिर झिरमर मेवा बरसे !!
झिरमिर झिरमर मेवा बरसे !!
खंडेला के देव मंदिर की रक्षार्थ सुजाण सिंह छापोली के बलिदान की गौरव गाथाये शेखावाटी के जन मन में किस रूप से व्याप्त हैं द्रष्टव्य है -
खंडेला के देव मंदिर की रक्षार्थ सुजाण सिंह छापोली के बलिदान की गौरव गाथाये शेखावाटी के जन मन में किस रूप से व्याप्त हैं द्रष्टव्य है -
झिरमिर झिरमर मेवा बरसे मोरां छतरी छायी !
कुळ मैं है तो आव सुजाणा फौज देवरै आयी !!
कै न प्यारा छोरी -छोरा कै न प्यारी जोय !
सूजा नै प्यारो देवरो राम करै सो होय !!
सूजा नै प्यारो देवरो राम करै सो होय !!
सुजाण सिंह के साथ भोळिया नाई भी लड़ाई में था । लोक काव्य ने उसे भी अमर कर दिया -
सोनगिरि पर रह्डू चालै, कर कर के गुमराई !
सुजाण सिंह कै साथ लड़े, अरे भोळियो नाई !!
रे नाई का आछ्या मुंड्या, बिना पाछण मूँड़ !
धन थारी जाई न रै, धन थारी माई न !!
साभार - मदन सिंह शेखावत
Wednesday 16 July 2014
बारह बरिस लै कूकर जीऐं !
बारह बरिस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लौ जिऐं सियार ।
बरिस अठारह छत्री जिऐं, आगे जीवन को धिक्कार ।
बरिस अठारह छत्री जिऐं, आगे जीवन को धिक्कार ।
मध्यप्रदेश के राजपूतों ने स्वतंत्रता समर सहयोग !
मध्यप्रदेश के राजपूतों ने स्वतंत्रता समर सहयोग !
मध्यप्रदेश के राजपूतों ने स्वतंत्रता समर अपना बहुत सहयोग दिया । मालवा मे जौधा राठौङो का एक छोटा सा राज्य अभझरा था ।1857 के समर के समय यहाँ के राजा बख्तावर सिंह थे । जुलाई 1857 मे नीमच मे स्वतंत्रता कि चिनगारी जाग उठी !
2 जुलाई को धार अभझरा व भोपाल मे क्रांति हो गई । इस क्रांति का नेतृत्व राजा बख्तावर सिंह राठौड़ ने किया । अंग्रेजी सेना 20 अक्टूबर 1857 को धार पहुँची । 11 दिन तक तोपो का जबरदस्त युद्ध हुआ । क्रांतिकारी वहाँ से निकले और मन्दसौर पर अधिकार कर लिया ।
मध्यप्रदेश के राजपूतों ने स्वतंत्रता समर अपना बहुत सहयोग दिया । मालवा मे जौधा राठौङो का एक छोटा सा राज्य अभझरा था ।1857 के समर के समय यहाँ के राजा बख्तावर सिंह थे । जुलाई 1857 मे नीमच मे स्वतंत्रता कि चिनगारी जाग उठी !
2 जुलाई को धार अभझरा व भोपाल मे क्रांति हो गई । इस क्रांति का नेतृत्व राजा बख्तावर सिंह राठौड़ ने किया । अंग्रेजी सेना 20 अक्टूबर 1857 को धार पहुँची । 11 दिन तक तोपो का जबरदस्त युद्ध हुआ । क्रांतिकारी वहाँ से निकले और मन्दसौर पर अधिकार कर लिया ।
अंग्रेजी सेना ने धार व अभझरा आदि पर अधिकार कर लिया तो बख्तावर सिंह लालगढ़ के किले मे चले गए ।
अंग्रेजी सेना के एक भारतीय अधिकारी जो अपने आपको क्रान्तिकारी बताता था, ने धोखे से बख्तावर सिंह को अंग्रेजों द्वारा कैद करवा दिया । इनके साथ कुछ सैनिक भी पकङे गए ।
इनके निकट के भाई ठाकुर सेदला और दीवान गुलाबराय को अंग्रेजों ने फांसी दे दी और 10 फरवरी 1858 को अंग्रेजी सरकार ने बख्तावर सिंह जी को फांसी दे दी ।।
अंग्रेजी सेना के एक भारतीय अधिकारी जो अपने आपको क्रान्तिकारी बताता था, ने धोखे से बख्तावर सिंह को अंग्रेजों द्वारा कैद करवा दिया । इनके साथ कुछ सैनिक भी पकङे गए ।
इनके निकट के भाई ठाकुर सेदला और दीवान गुलाबराय को अंग्रेजों ने फांसी दे दी और 10 फरवरी 1858 को अंग्रेजी सरकार ने बख्तावर सिंह जी को फांसी दे दी ।।
ठाकुर मोङ सिंह भवानीपुरा
ठाकुर मोङ सिंह भवानीपुरा
भवानीपुरा के जागीरदार ठाकुर मोङ सिंह जी सम्बन्ध में राव गोपालसिंह के निकटस्थ चाचा थे ।
खरवा के क्षत्रियोंचित वातावरण में पले-पोषे मोङ सिंह जी घुङसवारी और शस्त्र संचालन में पूर्ण दक्ष थे ।
भवानीपुरा के जागीरदार ठाकुर मोङ सिंह जी सम्बन्ध में राव गोपालसिंह के निकटस्थ चाचा थे ।
खरवा के क्षत्रियोंचित वातावरण में पले-पोषे मोङ सिंह जी घुङसवारी और शस्त्र संचालन में पूर्ण दक्ष थे ।
अपने पूर्व पुरुषों से विरासत में प्राप्त वीरता, निडरता और साहस आदि गुण उनमें मौजूद थे ।
मोङ सिंह जी गोपाल सिंह जी खरवा के विश्वास पात्र थे । उनके क्रांतिकारी कार्यों मे मोङ सिंह जी सदैव साथ रहे थे !
टाँडगढ़ की नजरबन्दी के बाद फरारी अवस्था में भी वह उनके साथ थे ।
गोपाल सिंह जी के साथ ये किशनगढ़ के पास सलेमाबाद में अंग्रेजी सेना द्वारा घेर लिये गये । इस समय अंग्रेजी सेना में 500 गोरे तथा केप्टन कूपलैण्ड व ग्रिनफिल्ड दो अफसर थे । यहाँ स्वतंत्रय यज्ञ में इन्होंने अपने प्राणों की आहुति दि ।
मोङ सिंह जी गोपाल सिंह जी खरवा के विश्वास पात्र थे । उनके क्रांतिकारी कार्यों मे मोङ सिंह जी सदैव साथ रहे थे !
टाँडगढ़ की नजरबन्दी के बाद फरारी अवस्था में भी वह उनके साथ थे ।
गोपाल सिंह जी के साथ ये किशनगढ़ के पास सलेमाबाद में अंग्रेजी सेना द्वारा घेर लिये गये । इस समय अंग्रेजी सेना में 500 गोरे तथा केप्टन कूपलैण्ड व ग्रिनफिल्ड दो अफसर थे । यहाँ स्वतंत्रय यज्ञ में इन्होंने अपने प्राणों की आहुति दि ।
अंग्रेजों के विरोधी राजपुत !
राजस्थान के राजाओं मे अंग्रेजों से सहायक सन्धि के बाद भी बहुत सारे जागीरदार अंग्रेजों के विरोधी थे ।
बिसाऊ के ठाकुर श्याम सिंह जी ने वि सं 1868 मे अंग्रेजों के खिलाफ रणजीत सिंह पंजाब कि सहायता मे अपनी सेना भेजी थी ।
इसी समय ज्ञान सिंह जी मण्डावा ने भी रणजीत सिंह पंजाब कि सहायता मे सेना भेजी थी ।।
बहल पर शेखावतो का अधिकार था ।
इसके बाद जब बहल पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ । तो श्याम सिंह जी ने अंग्रेज शासित कई गाँवों पर अधिकार कर लिया ।
अंग्रेजों ने उनकी शिकायत जयपुर महाराज से कि पर जयपुर महाराज ने बङी चालाकी से असमर्थता व्यक्त कर दि ।
जब अंग्रेजों रेजीडेण्ड ने सेना कि शक्ति से श्याम सिंह जी को दबाना चाहा तो जयपुर महाराज ने बीच बचाव कर मामला शांत करवाया ।
बहल पर सल्हेदी सिंह (भोजराज जी के शेखावत ) के वंशजो का अधिकार था ।
अमर सिंह के बाद कान सिंह का शासन था, बहल पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिए अंग्रेजों से इनका युद्ध हुआ ।
कान सिंह कि सहायता मे ददरेवा चुरु के सूरजमल राठौड़ ने अपनी सेना भेजी । पर अंग्रेजों का बहल पर अधिकार हो गया ।
कान सिंह के बाद उनके भाई सम्पत सिंह ने बहल पर अधिकार करने के लिए अंग्रेज सेना से युद्ध किया ।
सुना जाता है इस युद्ध मे 3000 भोजराज जी के शेखावत थे ।
इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है राजपुत अंग्रेजी शासन का विरोध शुरुआत से हि करते रहे थे ।
इसके बाद जब सितम्बर 1857 मे क्रांति हुई तो आउआ आसोप व राजस्थान भर के राजपुत क्रांतिकारी दिल्ली कि तरफ अंग्रेजी सेना से मुकाबला करने बढे तो इन्हीं सल्हेदी सिंह के शेखावतो ने उनका सहयोग किया ।
जौधपुर के राजा मान सिंह अंग्रेजों के विरोधी थे ।
जब इन्दौर के होल्कर और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ । और होल्कर पराजित हुए तो होल्कर को जौधपुर महाराज मान सिंह ने शरण दि थी ।
नागपुर का भौसला मधुराजदेव जब अंग्रेजों से पराजित हुआ तो वह रणजीत सिंह पंजाब कि शरण मे गया । रणजीत सिंह ने आनाकानी कि तो भौसला राजा मान सिंह कि शरण मे आकर रहा ।
लार्ड विलियम बेटिंग ने 1831 मे जब राजाओं का दरबार लगाया तो राजा मान सिंह जौधपुर उपस्थित नही हुए ।
और ना राजाओं के साथ हुई सन्धि का अनुमोदन किया, तथा अंग्रेजी सरकार को खिराज भी नही दिया । समकालीन कवि करणीदान बारहठ ने मान सिंह के इन कार्यों कि प्रशंसा कि है ।
शेखावाटी मे 1833-34 के लगभग फोरेस्टर के नैतृत्व मे शेखावाटी ब्रिगेड उन ठाकुरो के दुर्ग आदि तोड़ने मे लगी थी जो अंग्रेज विरोधी थे ।
शेखावाटी ब्रिगेड और शेखावतो कि हमेशा झङपे हुआ करती रोज आमना-सामना हो जाता ।
इसी दौरान क्रांतिकारी धीर सिंह शेखावत गुङा अंग्रेजों से लङते हुए विरगती को प्राप्त हुए ।फोरेस्टर ने उनका सिर मंगवाकर लटका दिया ।
तब एक युवक ने रात्रि को साहस के साथ प्रवेश कर धीर सिंह जी का सिर ले आया ।
लार्ड बेटिंग ने सांभर झील और आसपास के क्षैत्र पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया । इससे जयपुर नरेश राम सिंह और सरदारों मे आक्रोश फैल गया, उन्होंने 4 जून 1835 के दिन अंग्रेजी रेजीमेन्ट पर आक्रमण कर उनके सहायक ब्लेक को मौत के घाट उतार दिया ।
बिकानेर के राजा रतन सिंह जी जवाहर जी को और जौधपुर राजा तख्त सिंह जी ने डुंगजी को शरण दि थी । तब अंग्रेजों ने इन पर दबाव बनाया पर इन राजाओं के बीच बचाव के कारण उन्हें कभी अंग्रेजों कि जेल नही देखनी पङी ।
अन्त मे फैसला हुआ कि डूंगजी जौधपुर ही रहेंगे और जवाहर जी बिकानेर रहे बाद मे वो अपने गाँव पाटोदा आ गये थे ।।
सूरजमल राठौड़ ददरेवा चुरु
ये डूंगजी जवाहर जी के समकालीन थे । ये अंग्रेजों के खिलाफ हिसार और आस-पास के क्षैत्र मे गतिविधियां चलाते थे ।
इन्होंने जब अंग्रेजों और बहल के कान सिंह का युद्ध हुआ तो कान सिंह के पक्ष मे सेना भेजी थी ।
1857 कि क्रांति मे कुशाल सिंह राठौड़ आउवा के परम सहयोगी थे आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह जी इनकी सेना ने आउवा के युद्ध मे अंग्रेजी तोपखाने पर अधिकार कर लिया था । अंग्रेजी सेना भाग खङी हुई और उनके 2000 अंग्रेजी सैनिक मौत के घाट उतार दिये गये । और ब्रिगेडियर जनरल लारेन्स भागकर अजमेर चला गया ।
1857 के समर में आलणियावास के ठा, किशनसिंह और मण्डावा ठा, आनन्द सिंह शेखावत भी थे, कुशाल सिंह राठौड़ जब मेवाड़ चले गये तो कई क्रांतिकारियों के साथ बिशन सिंह जी आउवा मण्डावा के ठा आनन्द सिंह के पास आ गये । आलणियावास के अजीतसिंह आनन्द सिंह के श्वसुर थे ।
क्रांतिकारी यहाँ से मण्डावा ठाकुर कि सहायता लेकर दिल्ली कि और बढे । नारनोल के पास अंग्रेजी सेना ने इनका मुकाबला किया । वहां उनकी पराजय हुई ।
शेखावाटी के सल्हेदी सिंह के शेखावतो और बीदावाटी के बीदावतो ने इन क्रान्तिकारियों कि सहायता कि थी ।
सल्हेदी सिंह के भोजराज जी के शेखावतो का और अंग्रेजों बैर बहल के युद्धों के समय से ही चला आ रहा था ।
कुछ समय पुर्व जयपहाङी के मेजर यासिन खां के संग्रह पत्रो से मिली जानकारी के अनुसार सितम्बर 1857 में दिल्ली मे हुवे संग्राम मे डूडलोद ठाकुर जयसिंह जी के कामदार नागङ पठान फजल अलीखान भी लङ रहे थे ।
इन पत्रो से जानकारी मिलती है कि बहादुरशाह जफर व उनके शहजादो का जयसिंह जी से अच्छे सम्बन्ध थे । और जयसिंह जी क्रान्तिकारियों कि सहायता करते थे ।
वायसराय लाड कजन ने फरवरी 1903 मे दिल्ली दरबार आयोजित किया, उस समय मलसीसर हाउस जयपुर मे केशरी सिंह बारहठ, भूर सिंह मलसिसर और ठाकुर करणी सिंह जी ने विचार-विमर्श किया कि कुछ ऐसा कीया जाये कि उदयपुर महाराणा फतह सिंह जी दरबार मे शामिल ना हो ।
और इस कार्य को करने का दायित्व केशरी सिंह बारहठ को सौंपा गया ।
उन्होंने "चेतावनी रा चूगटया" नामक सोरठे लिखकर फतह सिंह जी के पास भीजवाया । उन्हें पढ़कर महाराणा इतने प्रभावित हुवे कि वह दिल्ली गये पर दरबार मे उपस्थित नही हुवे ।और अंग्रेज चाहते हुवे भी कुछ ना कर सके ।
अथार्थ 1857 के बाद भी राजपुत अंग्रेजी सरकार के विरोध मे शामिल थे ।
गांधी ने जब जज नमक कानून भंग करने के लिए सन् 1930 मे दाण्डी यात्रा कि ।
साबरमती से 12 मार्च 1930 को रवाना होकर 5 अप्रैल 1930 को दाण्डी पहुची ।
अंग्रेजों के भय से बहुत से सहयोगी रास्ते मे ही बिखर गये थे ।
दाण्डी पहुंचने वालो मे खिरोङ (शेखावटी) के मास्टर सुल्तान सिंह शेखावत भी एक थे ।
मास्टर साहब ने गांधीजी का पुरा सहयोग किया इस यात्रा मे ।।
बिसाऊ के ठाकुर श्याम सिंह जी ने वि सं 1868 मे अंग्रेजों के खिलाफ रणजीत सिंह पंजाब कि सहायता मे अपनी सेना भेजी थी ।
इसी समय ज्ञान सिंह जी मण्डावा ने भी रणजीत सिंह पंजाब कि सहायता मे सेना भेजी थी ।।
बहल पर शेखावतो का अधिकार था ।
इसके बाद जब बहल पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ । तो श्याम सिंह जी ने अंग्रेज शासित कई गाँवों पर अधिकार कर लिया ।
अंग्रेजों ने उनकी शिकायत जयपुर महाराज से कि पर जयपुर महाराज ने बङी चालाकी से असमर्थता व्यक्त कर दि ।
जब अंग्रेजों रेजीडेण्ड ने सेना कि शक्ति से श्याम सिंह जी को दबाना चाहा तो जयपुर महाराज ने बीच बचाव कर मामला शांत करवाया ।
बहल पर सल्हेदी सिंह (भोजराज जी के शेखावत ) के वंशजो का अधिकार था ।
अमर सिंह के बाद कान सिंह का शासन था, बहल पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिए अंग्रेजों से इनका युद्ध हुआ ।
कान सिंह कि सहायता मे ददरेवा चुरु के सूरजमल राठौड़ ने अपनी सेना भेजी । पर अंग्रेजों का बहल पर अधिकार हो गया ।
कान सिंह के बाद उनके भाई सम्पत सिंह ने बहल पर अधिकार करने के लिए अंग्रेज सेना से युद्ध किया ।
सुना जाता है इस युद्ध मे 3000 भोजराज जी के शेखावत थे ।
इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है राजपुत अंग्रेजी शासन का विरोध शुरुआत से हि करते रहे थे ।
इसके बाद जब सितम्बर 1857 मे क्रांति हुई तो आउआ आसोप व राजस्थान भर के राजपुत क्रांतिकारी दिल्ली कि तरफ अंग्रेजी सेना से मुकाबला करने बढे तो इन्हीं सल्हेदी सिंह के शेखावतो ने उनका सहयोग किया ।
जौधपुर के राजा मान सिंह अंग्रेजों के विरोधी थे ।
जब इन्दौर के होल्कर और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ । और होल्कर पराजित हुए तो होल्कर को जौधपुर महाराज मान सिंह ने शरण दि थी ।
नागपुर का भौसला मधुराजदेव जब अंग्रेजों से पराजित हुआ तो वह रणजीत सिंह पंजाब कि शरण मे गया । रणजीत सिंह ने आनाकानी कि तो भौसला राजा मान सिंह कि शरण मे आकर रहा ।
लार्ड विलियम बेटिंग ने 1831 मे जब राजाओं का दरबार लगाया तो राजा मान सिंह जौधपुर उपस्थित नही हुए ।
और ना राजाओं के साथ हुई सन्धि का अनुमोदन किया, तथा अंग्रेजी सरकार को खिराज भी नही दिया । समकालीन कवि करणीदान बारहठ ने मान सिंह के इन कार्यों कि प्रशंसा कि है ।
शेखावाटी मे 1833-34 के लगभग फोरेस्टर के नैतृत्व मे शेखावाटी ब्रिगेड उन ठाकुरो के दुर्ग आदि तोड़ने मे लगी थी जो अंग्रेज विरोधी थे ।
शेखावाटी ब्रिगेड और शेखावतो कि हमेशा झङपे हुआ करती रोज आमना-सामना हो जाता ।
इसी दौरान क्रांतिकारी धीर सिंह शेखावत गुङा अंग्रेजों से लङते हुए विरगती को प्राप्त हुए ।फोरेस्टर ने उनका सिर मंगवाकर लटका दिया ।
तब एक युवक ने रात्रि को साहस के साथ प्रवेश कर धीर सिंह जी का सिर ले आया ।
लार्ड बेटिंग ने सांभर झील और आसपास के क्षैत्र पर जबरदस्ती अधिकार कर लिया । इससे जयपुर नरेश राम सिंह और सरदारों मे आक्रोश फैल गया, उन्होंने 4 जून 1835 के दिन अंग्रेजी रेजीमेन्ट पर आक्रमण कर उनके सहायक ब्लेक को मौत के घाट उतार दिया ।
बिकानेर के राजा रतन सिंह जी जवाहर जी को और जौधपुर राजा तख्त सिंह जी ने डुंगजी को शरण दि थी । तब अंग्रेजों ने इन पर दबाव बनाया पर इन राजाओं के बीच बचाव के कारण उन्हें कभी अंग्रेजों कि जेल नही देखनी पङी ।
अन्त मे फैसला हुआ कि डूंगजी जौधपुर ही रहेंगे और जवाहर जी बिकानेर रहे बाद मे वो अपने गाँव पाटोदा आ गये थे ।।
सूरजमल राठौड़ ददरेवा चुरु
ये डूंगजी जवाहर जी के समकालीन थे । ये अंग्रेजों के खिलाफ हिसार और आस-पास के क्षैत्र मे गतिविधियां चलाते थे ।
इन्होंने जब अंग्रेजों और बहल के कान सिंह का युद्ध हुआ तो कान सिंह के पक्ष मे सेना भेजी थी ।
1857 कि क्रांति मे कुशाल सिंह राठौड़ आउवा के परम सहयोगी थे आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह जी इनकी सेना ने आउवा के युद्ध मे अंग्रेजी तोपखाने पर अधिकार कर लिया था । अंग्रेजी सेना भाग खङी हुई और उनके 2000 अंग्रेजी सैनिक मौत के घाट उतार दिये गये । और ब्रिगेडियर जनरल लारेन्स भागकर अजमेर चला गया ।
1857 के समर में आलणियावास के ठा, किशनसिंह और मण्डावा ठा, आनन्द सिंह शेखावत भी थे, कुशाल सिंह राठौड़ जब मेवाड़ चले गये तो कई क्रांतिकारियों के साथ बिशन सिंह जी आउवा मण्डावा के ठा आनन्द सिंह के पास आ गये । आलणियावास के अजीतसिंह आनन्द सिंह के श्वसुर थे ।
क्रांतिकारी यहाँ से मण्डावा ठाकुर कि सहायता लेकर दिल्ली कि और बढे । नारनोल के पास अंग्रेजी सेना ने इनका मुकाबला किया । वहां उनकी पराजय हुई ।
शेखावाटी के सल्हेदी सिंह के शेखावतो और बीदावाटी के बीदावतो ने इन क्रान्तिकारियों कि सहायता कि थी ।
सल्हेदी सिंह के भोजराज जी के शेखावतो का और अंग्रेजों बैर बहल के युद्धों के समय से ही चला आ रहा था ।
कुछ समय पुर्व जयपहाङी के मेजर यासिन खां के संग्रह पत्रो से मिली जानकारी के अनुसार सितम्बर 1857 में दिल्ली मे हुवे संग्राम मे डूडलोद ठाकुर जयसिंह जी के कामदार नागङ पठान फजल अलीखान भी लङ रहे थे ।
इन पत्रो से जानकारी मिलती है कि बहादुरशाह जफर व उनके शहजादो का जयसिंह जी से अच्छे सम्बन्ध थे । और जयसिंह जी क्रान्तिकारियों कि सहायता करते थे ।
वायसराय लाड कजन ने फरवरी 1903 मे दिल्ली दरबार आयोजित किया, उस समय मलसीसर हाउस जयपुर मे केशरी सिंह बारहठ, भूर सिंह मलसिसर और ठाकुर करणी सिंह जी ने विचार-विमर्श किया कि कुछ ऐसा कीया जाये कि उदयपुर महाराणा फतह सिंह जी दरबार मे शामिल ना हो ।
और इस कार्य को करने का दायित्व केशरी सिंह बारहठ को सौंपा गया ।
उन्होंने "चेतावनी रा चूगटया" नामक सोरठे लिखकर फतह सिंह जी के पास भीजवाया । उन्हें पढ़कर महाराणा इतने प्रभावित हुवे कि वह दिल्ली गये पर दरबार मे उपस्थित नही हुवे ।और अंग्रेज चाहते हुवे भी कुछ ना कर सके ।
अथार्थ 1857 के बाद भी राजपुत अंग्रेजी सरकार के विरोध मे शामिल थे ।
गांधी ने जब जज नमक कानून भंग करने के लिए सन् 1930 मे दाण्डी यात्रा कि ।
साबरमती से 12 मार्च 1930 को रवाना होकर 5 अप्रैल 1930 को दाण्डी पहुची ।
अंग्रेजों के भय से बहुत से सहयोगी रास्ते मे ही बिखर गये थे ।
दाण्डी पहुंचने वालो मे खिरोङ (शेखावटी) के मास्टर सुल्तान सिंह शेखावत भी एक थे ।
मास्टर साहब ने गांधीजी का पुरा सहयोग किया इस यात्रा मे ।।
ठाकुर कुशाल सिंह !
ठाकुर कुशाल सिंह :-
रचनाकार : बलवीर राठौड़ डढ़ेल-डीडवाना
जिस तरह से वीर कुँवर सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए अपना रण-रंग दिखाया उसी तरह राजस्थान में आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने भी अपनी अनुपम वीरता से अंग्रेजो का मान मर्दन करते हुए क्रांति के इस महायज्ञ में अपनी आहुति दी ।
पाली ज़िले का एक छोटा सा ठिाकाना था "आउवा" लेकिन ठाकुर कुशाल सिंह की प्रमुख राष्ट्रभक्ति ने सन् सत्तावन में आउवा को स्वातंत्र्य-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया । ठाकुर कुशाल सिंह तथा मारवाड़ का संघर्ष प्रथम स्वतंत्रता का एक स्वर्णिम पृष्ठ है।
जोधपुर के देशभक्त महाराजा मान सिंह के संन्यासी हो जाने के बाद अंग्रेजो ने अपने पक्ष के तख़्त सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया । तख़्त सिंह ने अंग्रेजो की हर तरह से सहायता की ।
जोधपुर राज्य उस समय अंग्रेजो को हर साल सवा लाख रुपया देता था । इस धन से अंग्रेजो ने अपनी सुरक्षा के लिए एक सेना बनाई, जिसका नाम घ् जोधपुर लीजन ' रखा गया । इस सेना की छावनी जोधपुर से कुछ दूर एरिनपुरा में थी । अँग्रेज़ सेना की राजस्थान की छह प्रमुख छावनियों में यह भी एक थी ।
राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत 28 मई, 1857 को नसीराबाद से हुई थी । इसके बाद नीमच और देवली के भारतीय सैनिक भी संघर्ष में कूद चूके थे । अब बारी थी एरिनपुरा के घ् जोधपुर लीजन ' की, जिसे फ़िरंगियों ने ख़ासकर अपनी सुरक्षा के लिए बनाया था ।
सूबेदार गोजन सिंह का आबू पर हमला :-
जोधपुर के महाराज तख़्त सिंह अंग्रेजो की कृपा से ही सुख भोग रहे थे, अतः स्वतंत्रता यज्ञ की जवाला भड़कते ही उन्होंने तुरंत अंग्रेजो की सहायता करने की तैयार कर ली । जोधपुर की जनता अपने राजा के इस आचरण से काफ़ी ग़ुस्से में थी । राज्य की सेना भी मन से स्वाधीनता सैनानियों के साथ थी तथा घ् जोधपुर लीजन ' भी सशस्त्र क्रांति के महायज्ञ में कूद पड़ना चाहती थी ।
नसीराबाद छावनी में क्रांति की शुरुआत होते ही जोधपुर-नरेश ने राजकीय सेना की एक टुकड़ी गोरों की मदद के लिए अजमेर भेद दी । इस सेना ने अंग्रेजो का साथ देने से इंकार कर दिया ।
कुशलराज सिंघवी ने सेनापतित्व में जोधपुर की एक और सेना नसीराबाद के भारतीय सैनिकों को दबाने के लिए भेजी गई । इस सेना ने भी अंग्रेजो का साथ नहीं दिया ।
हिण्डौन में जयपुर राज्य की सेना भी जयपुर नरेश की अवज्ञा करते हुए क्रांतिकारी भारतीय सेना से मिल गई । इस सब घटनाओं का अंग्रेजों की विशेष सेना घ् जोधपुर लीजन ' पर भी असर पड़ा । इसके सैनिकों ने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का निश्चय कर लिया।
अगस्त 1857 में इस घ् लीजन ' की एक टुकड़ी को रोवा ठाकुर के ख़िलाफ़ अनादरा भेजा गया । इस टुकड़ी के नायक हवलदार गोजन सिंह थे । रोवा ठाकुर पर आक्रमण के स्थान पर 21 अगस्त की सुबह तीन बजे यह टुकड़ी आबू पहाड़ पर चढ़ गई । उस समय आबू पर्वत पर काफी संख्या में गोरे सैनिक मौजूद थे ।
गोजन सिंह के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के स्वतंत्रता सैनिकों ने दो तरफ़ से फ़िरंगियों पर हमला कर दिया । सुबह के धुंधलके में हुए इस हमले से अँग्रेज़ सैनिकों में भगदड़ मच गई । आबू से अंग्रेजो को भगा कर गोजन सिंह एरिनपुरा की और चल पड़े । गोजन सिंह के पहुँचते ही लीजन की घुड़सवार टुकड़ी तथा पैदल सेना भी स्वराज्य-सैनिकों के साथ हो गई । तोपखाने पर भी मुक्ति-वाहिनी का अधिकार हो गया । एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने मेहराब सिंह को अपना मुखिया चुना । मेहराब सिंह को घ् लीजन ' का जनरल मान कर यह सेना पाली की ओर चल पड़ी ।
आउवा में स्वागत :-
आउवा में चम्पावत ठाकुर कुशाल सिंह काफ़ी पहले से ही विदेशी (अँग्रेज़ी) शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने का निश्चय कर चुके थें । अँग्रेज़ उन्हें फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे । नाना साहब पेशवा तथा तात्या टोपे से उनका संपर्क हो चूका था । पूरे राजस्थान में अंग्रेजो को धूल चटाने की एक व्यापक रणनीति ठाकुर कुशाल सिंह ने बनाई थी ।
सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के साथ मिलकर जो व्यूह-रचना उन्होंने की उसमें यदि अँग्रेज़ फँस जाते तो राजस्थान से उनका सफाया होना निश्चित था । बड़े राजघरानों को छोड़कर सभी छोटे ठिकानों के सरदारों से क्रांति के दोनों धुरधरों की गुप्त मंत्रणा हुई। इन सभी ठिकानों के साथ घ् जोधपुर लीजन ' को जोड़कर कुशाल सिंह और केसरी सिंह अंग्रेजो के ख़िलाफ़ एक अजेय मोर्चेबन्दी करना चाहते थे ।
इसीलिए जब जनरल मेहरबान सिंह की कमान में जोधपुर लीजन के जवान पाली के पास आउवा पहुँचे तो ठाकुर कुशाल सिंह ने स्वातंत्र्य-सैनिकों का क़िले में भव्य स्वागत किया ।
इसी के साथ आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह तथा आलयनियावास के ठाकुर अजीत सिंह भी अपनी सेना सहित आउवा आ गए । लाम्बिया, बन्तावास तथा रूदावास के जागीरदार भी अपने सैनिकों के साथ आउवा आ पहुँचे ।
सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के स्वातंत्र्य-सैनिक भी वहाँ आकर अंग्रेजो से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने लगे । स्वाधीनता सैनिकों की विशाल छावनी ही बन गया आउवा ।
दिल्ली गए सैनिकों के अतिरिक्त हर स्वातंत्रता-प्रेमी योद्धा के पैर इस शक्ति केंद्र की ओर बढ़ने लगे । अब सभी सैनिकों ने मिलकर ठाकुर कुशाल सिंह को अपना प्रमुख चुन लिया ।
मॉक मेसन का सर काटा :-
आउवा में स्वाधीनता- सैनिकों के जमाव से फ़िरंगी चिंतित हो रहे थे अतः लोहे से लोहा काटने की कूटनीति पर अमल करते हुए उन्होंने जोधपुर नरेश को आउवा पर हमला करने का हुक्म दिया ।
अनाड़सिंह की अगुवाई में जोधपुर की एक विशाल सेना ने पाली से आउवा की ओर कूच किया । आउवा से पहले अँग्रेज़ सेनानायक हीथकोटा भी उससे मिला । 8 सितम्बर को स्वराज्य के सैनिकों ने घ् मारो फ़िरंगी को ' तथा घ् हर-हर महादेव ' के घोषों के साथ इस सेना पर हमला कर दिया । अनाड़सिंह तथा हीथकोट बुरी तरह हारे । बिथौड़ा के पास हुए इस युद्ध में अनाड़ सिंह मारा गया और हीथकोट भाग खड़ा हुआ । जोधुपर सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा ।
इस सेना की दुर्गति का समाचार मिलते ही जार्ज लारेंस ने ब्यावर में एक सेना खड़ी की तथा आउवा की ओर चल पड़ा । 18 सितम्बर को फ़िरंगियों की इस विशाल सेना ने आउवा पर हमला कर दिया । ब्रिटानियों के आने की ख़बर लगते ही कुशाल सिंह क़िले से निकले और ब्रिटानियों पर टूट पड़े । चेलावास के पास घमासान युद्ध हुआ तथा लारेन्स की करारी हार हुई । मॉक मेसन युद्ध में मारा गया ।
क्रांतिकारियों ने उसका सिर काट कर उसका शव क़िले के दरवाज़े पर उलटा लटका दिया । इस युद्ध में ठाकुर कुशाल सिंह तथा स्वातंत्र्य-वाहिनी के वीरों ने अद्भूत वीरता दिखाई ।
आस-पास से क्षेत्रों में आज तक लोकगीतों में इस युद्ध को याद किया जाता है । एक लोकगीत इस प्रकार है |
ढोल बाजे चंग बाजै, भलो बाजे बाँकियो ।
एजेंट को मार कर, दरवाज़ा पर टाँकियो ।
झूझे आहूवो ये झूझो आहूवो, मुल्कां में ठाँवों दिया आहूवो ।
इस बीच डीसा की भारतीय सेनाएँ भी क्रांतिकारियों से मिल गई । ठाकुर कुशाल सिंह की व्यूह-रचना सफ़ल होने लगी और अंग्रेजो के ख़िलाफ़ एक मजूबत मोर्चा आउवा में बन गया ।
अब मुक्ति-वाहिनी ने जोधपुर को अंग्रेजो के चंगुल से छुड़ाने की योजना बनाई । उसी समय दिल्ली में क्रांतिकारियों की स्थिति कमज़ोर होने के समाचार आउवा ठाकुर को मिले कुशल सिंह ने सभी प्रमुख लोगों के साथ फिर से अपनी युद्ध-नीति पर विचार किया ।
सबकी सहमति से तय हुआ कि सेना का एक बड़ा भाग दिल्ली के स्वाधीनता सैनिकों की सहायता के लिऐ भेजा जाए तथा शेष सेना आउवा में अपनी मोर्चेबन्दी मज़बूत कर ले । दिल्ली जाने वाली फ़ौज की समान आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह को सौंपी गई ।
शिवनाथ सिंह आउवा से त्वरित गति से निकले तथा रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया । उधर ब्रितानियों ने भी मुक्ति वाहिनी पर नज़र रखी हुई थी । नारनौल के पास ब्रिगेडियर गेरार्ड ने क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया । अचानक हुए इस हमले से भारतीय सेना की मोर्चाबन्दी टूट गई । फिर भी घमासान युद्ध हुआ तथा फ़िरंगियों के कई प्रमुख सेनानायक युद्ध में मारे गए ।
बड़सू का भीषण संग्राम :-
जनवरी में मुम्बई से एक अंग्रेज फौज सहायता के लिए अजमेर भेजी गई । अब कर्नल होम्स ने आउवा पर हमला करने की हिम्मत जुटाई । आस-पास के और सेना इकट्ठी कर कर्नल होम्स अजमेर से रवाना हुआ ।
20 जनवरी, 1858 को होम्स ने ठाकुर कुशाल सिंह पर धावा बोला दिया । दोनों ओर से भीषण गोला-बारी शुरू हो गई ।
आउवा का किला स्वतंत्रता संग्राम के एक मजबूत स्तंभ के रूप में शान से खड़ा हुआ था । चार दिनों तक अंग्रेजो और मुक्ति वाहिनी में मुठभेड़ें चलती रहीं। अंग्रेजो के सैनिक बड़ी संख्या में हताहत हो रहे थे । युद्ध की स्थिति से चिंतित होम्स ने अब कपट का सहारा लिया । आउवा के कामदार और क़िलेदार को भारी धन देकर कर्नल होम्स ने उन्हें अपनी ही साथियों की पीठ में छुरा घौंपने के लिए राज़ी कर लिया ।
एक रात क़िलेदार ने कीलें का दरवाजा खोल दिया । दरवाज़ा खुलते ही अँग्रेज़ क़िले में घुस गए तथा सोते हुए क्रांतिकारियों को घेर लिया । फिर भी स्वातंत्र्य योद्धाओं ने बहादुरी से युद्ध किया, पर अँग्रेज़ क़िले पर अधिकार करने में सफल हो गए । पासा पटलते देख ठाकुर कुशाल सिंह युद्ध जारी रखने के लिए दूसरा दरवाज़े से निकल गए ।
उधर अंग्रेजो ने जीत के बाद बर्बरता की सारी हदें पार कर दी । उन्होंने आउवा को पुरी तरह लूटा, नागरिकों की हत्याएँ की तथा मंदिरों को ध्वस्त कर दिया । क़िले कि प्रसिद्ध महाकाली की मूर्ति को अजमेर ले ज़ाया गया । यह मूर्ति आज भी अजमेर के पुरानी मंडी स्थित संग्रहालय में मौजूद है ।
इसी के साथ कर्नल होम्स ने सेना के एक हिस्से को ठाकुर कुशाल सिंह का पीछा करने को भेजा । रास्ते में सिरियाली ठाकुर ने अंग्रेजों को रोका । दो दिन के संघर्ष के बाद अंग्रेज सेना आगे बढ़ी तो बडसू के पास कुशाल सिंह और ठाकुर शिवनाथ सिंह ने अंग्रेजों को चुनौती दी ।
उनके साथ ठाकुर बिशन सिंह तथा ठाकुर अजीत सिंह भी हो गए । बगड़ी ठाकुर ने भी उसी समय अंग्रेजों पर हमला बोल दिया । चालीस दिनों तक चले इस युद्ध में कभी मुक्ति वाहीनी तो कभी अंग्रेजों का पलड़ा भारी होता रहा । तभी और सेना आ जाने से अंग्रेजों की स्थिति सुधर गई तथा स्वातंत्र्य-सैनिकों की पराजय हुई । कोटा तथा आउवा में हुई हार से राजस्थान में स्वातंत्र्य-सैनिकों का अभियान लगभग समाप्त हो गया ।
आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने अभी भी हार नहीं मानी थी । अब उन्होंने तात्या टोपे से सम्पर्क करने का प्रयास किया । तात्या से उनका सम्पर्क नहीं हो पाया तो वे मेवाड़ में कोठारिया के राव जोधसिंह के पास चले गए । कोठारिया से ही वे अंग्रेजों से छुट-पुट लड़ाईयाँ करते रहे ।
ठाकुर कुशालसिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय इतिहास में पुनः उज्ज्वल कर दिया । कुशाल सिंह पूरे मारवाड़ में लोकप्रिय हो गए तथा पूरे क्षेत्र के लोग उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नायक मानने लगे । जनता का उन्हें इतना सहयोग मिला था कि लारेंस तथा होम्स की सेनाओं पर रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के ग्रामीणों ने भी जहाँ मौक़ा मिला हमला किया ।
इस पूरे अभियान में मुक्ति-वाहिनी का नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे से भी संपर्क बना हुआ था । इसीलिए दिल्ली में स्वातंत्र्य-सेना की स्थिति कमज़ोर होने पर ठाकुर कुशाल सिंह ने सेना के बड़े भाग को दिल्ली भेजा था । जनता ने इस संघर्ष को विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध किया जाने वाला स्वाधीनता संघर्ष माना तथा इस संघर्ष के नायक रूप में ठाकुर कुशाल सिंह को लोक-गीतों में अमर कर दिया ।
उस समय के कई लोक-गीत तो आज भी लोकप्रिय हैं ।
होली के अवसर पर मारवाड़ में आउवा के संग्राम पर जो गीत गाया जाता है,
उसकी बानगी देखिये :-
वणिया वाली गोचर मांय कालौ लोग पड़ियौ ओ
राजाजी रे भेळो तो फिरंगी लड़ियो ओ
काली टोपी रो !
हाँ रे काली टोपी रो । फिरंगी फेलाव कीधौ ओ
काली टोपी रो !
बारली तोपां रा गोळा धूडगढ़ में लागे ओ
मांयली तोपां रा गोळा तम्बू तोड़े ओ
झल्लै आउवौ !
मांयली तोपां तो झूटे, आडावली धूजै ओ
आउवा वालौ नाथ तो सुगाली पूजै ओ
झगड़ौ आदरियौ !
हां रे झगड़ौ आदरियो, आउवौ झगड़ा में बांकौ ओ
झगडौ आदरियौ !
राजाजी रा घेड़लिया काळां रै लारे दोड़ै ओ
आउवौ रा घेड़ा तो पछाड़ी तोड़े ओ
झगड़ौ होवण दो !
हाँ रे झगड़ौ होवण दो, झगड़ा में थारी जीत व्हैला ओ
झगड़ौ होवण दो !
रचनाकार : बलवीर राठौड़ डढ़ेल-डीडवाना
जिस तरह से वीर कुँवर सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए अपना रण-रंग दिखाया उसी तरह राजस्थान में आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने भी अपनी अनुपम वीरता से अंग्रेजो का मान मर्दन करते हुए क्रांति के इस महायज्ञ में अपनी आहुति दी ।
पाली ज़िले का एक छोटा सा ठिाकाना था "आउवा" लेकिन ठाकुर कुशाल सिंह की प्रमुख राष्ट्रभक्ति ने सन् सत्तावन में आउवा को स्वातंत्र्य-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया । ठाकुर कुशाल सिंह तथा मारवाड़ का संघर्ष प्रथम स्वतंत्रता का एक स्वर्णिम पृष्ठ है।
जोधपुर के देशभक्त महाराजा मान सिंह के संन्यासी हो जाने के बाद अंग्रेजो ने अपने पक्ष के तख़्त सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया । तख़्त सिंह ने अंग्रेजो की हर तरह से सहायता की ।
जोधपुर राज्य उस समय अंग्रेजो को हर साल सवा लाख रुपया देता था । इस धन से अंग्रेजो ने अपनी सुरक्षा के लिए एक सेना बनाई, जिसका नाम घ् जोधपुर लीजन ' रखा गया । इस सेना की छावनी जोधपुर से कुछ दूर एरिनपुरा में थी । अँग्रेज़ सेना की राजस्थान की छह प्रमुख छावनियों में यह भी एक थी ।
राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत 28 मई, 1857 को नसीराबाद से हुई थी । इसके बाद नीमच और देवली के भारतीय सैनिक भी संघर्ष में कूद चूके थे । अब बारी थी एरिनपुरा के घ् जोधपुर लीजन ' की, जिसे फ़िरंगियों ने ख़ासकर अपनी सुरक्षा के लिए बनाया था ।
सूबेदार गोजन सिंह का आबू पर हमला :-
जोधपुर के महाराज तख़्त सिंह अंग्रेजो की कृपा से ही सुख भोग रहे थे, अतः स्वतंत्रता यज्ञ की जवाला भड़कते ही उन्होंने तुरंत अंग्रेजो की सहायता करने की तैयार कर ली । जोधपुर की जनता अपने राजा के इस आचरण से काफ़ी ग़ुस्से में थी । राज्य की सेना भी मन से स्वाधीनता सैनानियों के साथ थी तथा घ् जोधपुर लीजन ' भी सशस्त्र क्रांति के महायज्ञ में कूद पड़ना चाहती थी ।
नसीराबाद छावनी में क्रांति की शुरुआत होते ही जोधपुर-नरेश ने राजकीय सेना की एक टुकड़ी गोरों की मदद के लिए अजमेर भेद दी । इस सेना ने अंग्रेजो का साथ देने से इंकार कर दिया ।
कुशलराज सिंघवी ने सेनापतित्व में जोधपुर की एक और सेना नसीराबाद के भारतीय सैनिकों को दबाने के लिए भेजी गई । इस सेना ने भी अंग्रेजो का साथ नहीं दिया ।
हिण्डौन में जयपुर राज्य की सेना भी जयपुर नरेश की अवज्ञा करते हुए क्रांतिकारी भारतीय सेना से मिल गई । इस सब घटनाओं का अंग्रेजों की विशेष सेना घ् जोधपुर लीजन ' पर भी असर पड़ा । इसके सैनिकों ने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का निश्चय कर लिया।
अगस्त 1857 में इस घ् लीजन ' की एक टुकड़ी को रोवा ठाकुर के ख़िलाफ़ अनादरा भेजा गया । इस टुकड़ी के नायक हवलदार गोजन सिंह थे । रोवा ठाकुर पर आक्रमण के स्थान पर 21 अगस्त की सुबह तीन बजे यह टुकड़ी आबू पहाड़ पर चढ़ गई । उस समय आबू पर्वत पर काफी संख्या में गोरे सैनिक मौजूद थे ।
गोजन सिंह के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के स्वतंत्रता सैनिकों ने दो तरफ़ से फ़िरंगियों पर हमला कर दिया । सुबह के धुंधलके में हुए इस हमले से अँग्रेज़ सैनिकों में भगदड़ मच गई । आबू से अंग्रेजो को भगा कर गोजन सिंह एरिनपुरा की और चल पड़े । गोजन सिंह के पहुँचते ही लीजन की घुड़सवार टुकड़ी तथा पैदल सेना भी स्वराज्य-सैनिकों के साथ हो गई । तोपखाने पर भी मुक्ति-वाहिनी का अधिकार हो गया । एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने मेहराब सिंह को अपना मुखिया चुना । मेहराब सिंह को घ् लीजन ' का जनरल मान कर यह सेना पाली की ओर चल पड़ी ।
आउवा में स्वागत :-
आउवा में चम्पावत ठाकुर कुशाल सिंह काफ़ी पहले से ही विदेशी (अँग्रेज़ी) शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने का निश्चय कर चुके थें । अँग्रेज़ उन्हें फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे । नाना साहब पेशवा तथा तात्या टोपे से उनका संपर्क हो चूका था । पूरे राजस्थान में अंग्रेजो को धूल चटाने की एक व्यापक रणनीति ठाकुर कुशाल सिंह ने बनाई थी ।
सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के साथ मिलकर जो व्यूह-रचना उन्होंने की उसमें यदि अँग्रेज़ फँस जाते तो राजस्थान से उनका सफाया होना निश्चित था । बड़े राजघरानों को छोड़कर सभी छोटे ठिकानों के सरदारों से क्रांति के दोनों धुरधरों की गुप्त मंत्रणा हुई। इन सभी ठिकानों के साथ घ् जोधपुर लीजन ' को जोड़कर कुशाल सिंह और केसरी सिंह अंग्रेजो के ख़िलाफ़ एक अजेय मोर्चेबन्दी करना चाहते थे ।
इसीलिए जब जनरल मेहरबान सिंह की कमान में जोधपुर लीजन के जवान पाली के पास आउवा पहुँचे तो ठाकुर कुशाल सिंह ने स्वातंत्र्य-सैनिकों का क़िले में भव्य स्वागत किया ।
इसी के साथ आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह तथा आलयनियावास के ठाकुर अजीत सिंह भी अपनी सेना सहित आउवा आ गए । लाम्बिया, बन्तावास तथा रूदावास के जागीरदार भी अपने सैनिकों के साथ आउवा आ पहुँचे ।
सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के स्वातंत्र्य-सैनिक भी वहाँ आकर अंग्रेजो से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने लगे । स्वाधीनता सैनिकों की विशाल छावनी ही बन गया आउवा ।
दिल्ली गए सैनिकों के अतिरिक्त हर स्वातंत्रता-प्रेमी योद्धा के पैर इस शक्ति केंद्र की ओर बढ़ने लगे । अब सभी सैनिकों ने मिलकर ठाकुर कुशाल सिंह को अपना प्रमुख चुन लिया ।
मॉक मेसन का सर काटा :-
आउवा में स्वाधीनता- सैनिकों के जमाव से फ़िरंगी चिंतित हो रहे थे अतः लोहे से लोहा काटने की कूटनीति पर अमल करते हुए उन्होंने जोधपुर नरेश को आउवा पर हमला करने का हुक्म दिया ।
अनाड़सिंह की अगुवाई में जोधपुर की एक विशाल सेना ने पाली से आउवा की ओर कूच किया । आउवा से पहले अँग्रेज़ सेनानायक हीथकोटा भी उससे मिला । 8 सितम्बर को स्वराज्य के सैनिकों ने घ् मारो फ़िरंगी को ' तथा घ् हर-हर महादेव ' के घोषों के साथ इस सेना पर हमला कर दिया । अनाड़सिंह तथा हीथकोट बुरी तरह हारे । बिथौड़ा के पास हुए इस युद्ध में अनाड़ सिंह मारा गया और हीथकोट भाग खड़ा हुआ । जोधुपर सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा ।
इस सेना की दुर्गति का समाचार मिलते ही जार्ज लारेंस ने ब्यावर में एक सेना खड़ी की तथा आउवा की ओर चल पड़ा । 18 सितम्बर को फ़िरंगियों की इस विशाल सेना ने आउवा पर हमला कर दिया । ब्रिटानियों के आने की ख़बर लगते ही कुशाल सिंह क़िले से निकले और ब्रिटानियों पर टूट पड़े । चेलावास के पास घमासान युद्ध हुआ तथा लारेन्स की करारी हार हुई । मॉक मेसन युद्ध में मारा गया ।
क्रांतिकारियों ने उसका सिर काट कर उसका शव क़िले के दरवाज़े पर उलटा लटका दिया । इस युद्ध में ठाकुर कुशाल सिंह तथा स्वातंत्र्य-वाहिनी के वीरों ने अद्भूत वीरता दिखाई ।
आस-पास से क्षेत्रों में आज तक लोकगीतों में इस युद्ध को याद किया जाता है । एक लोकगीत इस प्रकार है |
ढोल बाजे चंग बाजै, भलो बाजे बाँकियो ।
एजेंट को मार कर, दरवाज़ा पर टाँकियो ।
झूझे आहूवो ये झूझो आहूवो, मुल्कां में ठाँवों दिया आहूवो ।
इस बीच डीसा की भारतीय सेनाएँ भी क्रांतिकारियों से मिल गई । ठाकुर कुशाल सिंह की व्यूह-रचना सफ़ल होने लगी और अंग्रेजो के ख़िलाफ़ एक मजूबत मोर्चा आउवा में बन गया ।
अब मुक्ति-वाहिनी ने जोधपुर को अंग्रेजो के चंगुल से छुड़ाने की योजना बनाई । उसी समय दिल्ली में क्रांतिकारियों की स्थिति कमज़ोर होने के समाचार आउवा ठाकुर को मिले कुशल सिंह ने सभी प्रमुख लोगों के साथ फिर से अपनी युद्ध-नीति पर विचार किया ।
सबकी सहमति से तय हुआ कि सेना का एक बड़ा भाग दिल्ली के स्वाधीनता सैनिकों की सहायता के लिऐ भेजा जाए तथा शेष सेना आउवा में अपनी मोर्चेबन्दी मज़बूत कर ले । दिल्ली जाने वाली फ़ौज की समान आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह को सौंपी गई ।
शिवनाथ सिंह आउवा से त्वरित गति से निकले तथा रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया । उधर ब्रितानियों ने भी मुक्ति वाहिनी पर नज़र रखी हुई थी । नारनौल के पास ब्रिगेडियर गेरार्ड ने क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया । अचानक हुए इस हमले से भारतीय सेना की मोर्चाबन्दी टूट गई । फिर भी घमासान युद्ध हुआ तथा फ़िरंगियों के कई प्रमुख सेनानायक युद्ध में मारे गए ।
बड़सू का भीषण संग्राम :-
जनवरी में मुम्बई से एक अंग्रेज फौज सहायता के लिए अजमेर भेजी गई । अब कर्नल होम्स ने आउवा पर हमला करने की हिम्मत जुटाई । आस-पास के और सेना इकट्ठी कर कर्नल होम्स अजमेर से रवाना हुआ ।
20 जनवरी, 1858 को होम्स ने ठाकुर कुशाल सिंह पर धावा बोला दिया । दोनों ओर से भीषण गोला-बारी शुरू हो गई ।
आउवा का किला स्वतंत्रता संग्राम के एक मजबूत स्तंभ के रूप में शान से खड़ा हुआ था । चार दिनों तक अंग्रेजो और मुक्ति वाहिनी में मुठभेड़ें चलती रहीं। अंग्रेजो के सैनिक बड़ी संख्या में हताहत हो रहे थे । युद्ध की स्थिति से चिंतित होम्स ने अब कपट का सहारा लिया । आउवा के कामदार और क़िलेदार को भारी धन देकर कर्नल होम्स ने उन्हें अपनी ही साथियों की पीठ में छुरा घौंपने के लिए राज़ी कर लिया ।
एक रात क़िलेदार ने कीलें का दरवाजा खोल दिया । दरवाज़ा खुलते ही अँग्रेज़ क़िले में घुस गए तथा सोते हुए क्रांतिकारियों को घेर लिया । फिर भी स्वातंत्र्य योद्धाओं ने बहादुरी से युद्ध किया, पर अँग्रेज़ क़िले पर अधिकार करने में सफल हो गए । पासा पटलते देख ठाकुर कुशाल सिंह युद्ध जारी रखने के लिए दूसरा दरवाज़े से निकल गए ।
उधर अंग्रेजो ने जीत के बाद बर्बरता की सारी हदें पार कर दी । उन्होंने आउवा को पुरी तरह लूटा, नागरिकों की हत्याएँ की तथा मंदिरों को ध्वस्त कर दिया । क़िले कि प्रसिद्ध महाकाली की मूर्ति को अजमेर ले ज़ाया गया । यह मूर्ति आज भी अजमेर के पुरानी मंडी स्थित संग्रहालय में मौजूद है ।
इसी के साथ कर्नल होम्स ने सेना के एक हिस्से को ठाकुर कुशाल सिंह का पीछा करने को भेजा । रास्ते में सिरियाली ठाकुर ने अंग्रेजों को रोका । दो दिन के संघर्ष के बाद अंग्रेज सेना आगे बढ़ी तो बडसू के पास कुशाल सिंह और ठाकुर शिवनाथ सिंह ने अंग्रेजों को चुनौती दी ।
उनके साथ ठाकुर बिशन सिंह तथा ठाकुर अजीत सिंह भी हो गए । बगड़ी ठाकुर ने भी उसी समय अंग्रेजों पर हमला बोल दिया । चालीस दिनों तक चले इस युद्ध में कभी मुक्ति वाहीनी तो कभी अंग्रेजों का पलड़ा भारी होता रहा । तभी और सेना आ जाने से अंग्रेजों की स्थिति सुधर गई तथा स्वातंत्र्य-सैनिकों की पराजय हुई । कोटा तथा आउवा में हुई हार से राजस्थान में स्वातंत्र्य-सैनिकों का अभियान लगभग समाप्त हो गया ।
आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने अभी भी हार नहीं मानी थी । अब उन्होंने तात्या टोपे से सम्पर्क करने का प्रयास किया । तात्या से उनका सम्पर्क नहीं हो पाया तो वे मेवाड़ में कोठारिया के राव जोधसिंह के पास चले गए । कोठारिया से ही वे अंग्रेजों से छुट-पुट लड़ाईयाँ करते रहे ।
ठाकुर कुशालसिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय इतिहास में पुनः उज्ज्वल कर दिया । कुशाल सिंह पूरे मारवाड़ में लोकप्रिय हो गए तथा पूरे क्षेत्र के लोग उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नायक मानने लगे । जनता का उन्हें इतना सहयोग मिला था कि लारेंस तथा होम्स की सेनाओं पर रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के ग्रामीणों ने भी जहाँ मौक़ा मिला हमला किया ।
इस पूरे अभियान में मुक्ति-वाहिनी का नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे से भी संपर्क बना हुआ था । इसीलिए दिल्ली में स्वातंत्र्य-सेना की स्थिति कमज़ोर होने पर ठाकुर कुशाल सिंह ने सेना के बड़े भाग को दिल्ली भेजा था । जनता ने इस संघर्ष को विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध किया जाने वाला स्वाधीनता संघर्ष माना तथा इस संघर्ष के नायक रूप में ठाकुर कुशाल सिंह को लोक-गीतों में अमर कर दिया ।
उस समय के कई लोक-गीत तो आज भी लोकप्रिय हैं ।
होली के अवसर पर मारवाड़ में आउवा के संग्राम पर जो गीत गाया जाता है,
उसकी बानगी देखिये :-
वणिया वाली गोचर मांय कालौ लोग पड़ियौ ओ
राजाजी रे भेळो तो फिरंगी लड़ियो ओ
काली टोपी रो !
हाँ रे काली टोपी रो । फिरंगी फेलाव कीधौ ओ
काली टोपी रो !
बारली तोपां रा गोळा धूडगढ़ में लागे ओ
मांयली तोपां रा गोळा तम्बू तोड़े ओ
झल्लै आउवौ !
मांयली तोपां तो झूटे, आडावली धूजै ओ
आउवा वालौ नाथ तो सुगाली पूजै ओ
झगड़ौ आदरियौ !
हां रे झगड़ौ आदरियो, आउवौ झगड़ा में बांकौ ओ
झगडौ आदरियौ !
राजाजी रा घेड़लिया काळां रै लारे दोड़ै ओ
आउवौ रा घेड़ा तो पछाड़ी तोड़े ओ
झगड़ौ होवण दो !
हाँ रे झगड़ौ होवण दो, झगड़ा में थारी जीत व्हैला ओ
झगड़ौ होवण दो !
Tuesday 15 July 2014
आमेर -
जयपुर नरेश "कछवाहा" सूर्यवंशी क्षत्रिय है ।
वंश परम्परा राजा राम से कुश के वंशज है ।
राजधानी - अयोध्या से रोहतास से नरवर से ग्वालियर से बरेली ।
नरवर मे महाराज नल हुए जो संवत् 351 विक्रमाब्द हुवे ।
वंश परम्परा राजा राम से कुश के वंशज है ।
राजधानी - अयोध्या से रोहतास से नरवर से ग्वालियर से बरेली ।
नरवर मे महाराज नल हुए जो संवत् 351 विक्रमाब्द हुवे ।
महाराज नल 21 वी पिढि मे सोडदेव जी ने गोपाचल (ग्वालियर) को राजधानी बनाया ।
ग्वालियर से बरेली का समय वि स 933 के लगभग है ।
सोडदेव जी के पुत्र दुलेराय जी ने "घोसा" पर अधिकार जमाया ।
वि स 1093 मे दुलेराय जी का खोह मे देहान्त हुआ ।
इन्होंने ढूँढार मे कछवाहो के राज्य कि नींव रखि ।
ग्वालियर से बरेली का समय वि स 933 के लगभग है ।
सोडदेव जी के पुत्र दुलेराय जी ने "घोसा" पर अधिकार जमाया ।
वि स 1093 मे दुलेराय जी का खोह मे देहान्त हुआ ।
इन्होंने ढूँढार मे कछवाहो के राज्य कि नींव रखि ।
शेर खाँ पठान !
शेखा जी के बाद अमरसर गद्दी पर राव रायमल जी बैठे ।
जिस शेर खाँ पठान ने हिन्दुस्तान में हलचल मचा दी थी और शेरशाह का नाम धारण कर हिन्दुस्तान के शाही तख्त पर बैठा था ।
उसका दादा इब्राहीम मेवात जिले के परगने नारनोल के "शिमला"(खेतङी) नाम गाँव में रहता था, और सौदागर था ।
जिस शेर खाँ पठान ने हिन्दुस्तान में हलचल मचा दी थी और शेरशाह का नाम धारण कर हिन्दुस्तान के शाही तख्त पर बैठा था ।
उसका दादा इब्राहीम मेवात जिले के परगने नारनोल के "शिमला"(खेतङी) नाम गाँव में रहता था, और सौदागर था ।
शेरशाह का पिता हसन रायमल जी के यहाँ सिपाही कि नौकरी करता था ।
पाबूजी महाराज
पाबूजी महाराज
:-इनका जन्म फलौदी तहसील(जोधपुर)के कोलू गांव मेँ हुआ था।
:-इनके पिता का नाम धांधल जी राठौड़ था व माता का नाम कमलादे था।
:-पाबूजी की घोड़ी का नाम केसर कामली था।
:-कोलू(फलौदी)मेँ प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला लगता हैँ।
:-पाबूजी का प्रतीक चिन्ह भाला लिए अश्वरोही रुप है।
:-राजस्थान मेँ ऊँटोँ के देवता के रुप मेँ पाबूजी पूज्य है,अत:ऊँट के बीमार होने पर पाबूजी की पूजा की जाती है।
:-मनौती पूर्ण होने पर भोपा-भोपियोँ द्ररा पाबूजी की फड़ गाई जाती है।
:-राजस्थान लोक साहित्य मेँ पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार मानते हुए पाबूजी के पवाड़े विशेष रुप से गाये जाते है।
:-इनका जन्म फलौदी तहसील(जोधपुर)के कोलू गांव मेँ हुआ था।
:-इनके पिता का नाम धांधल जी राठौड़ था व माता का नाम कमलादे था।
:-पाबूजी की घोड़ी का नाम केसर कामली था।
:-कोलू(फलौदी)मेँ प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला लगता हैँ।
:-पाबूजी का प्रतीक चिन्ह भाला लिए अश्वरोही रुप है।
:-राजस्थान मेँ ऊँटोँ के देवता के रुप मेँ पाबूजी पूज्य है,अत:ऊँट के बीमार होने पर पाबूजी की पूजा की जाती है।
:-मनौती पूर्ण होने पर भोपा-भोपियोँ द्ररा पाबूजी की फड़ गाई जाती है।
:-राजस्थान लोक साहित्य मेँ पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार मानते हुए पाबूजी के पवाड़े विशेष रुप से गाये जाते है।
Sunday 13 July 2014
"शौर्य कथा ,
गिरी सुमेल युध के बाद एक कवि ने कहा !
संक्षेप मे इन भावो को व्यक्त करु तो यों कहुंगा !!
"शौर्य कथा, इतिहास भरै,
पर रंग अलग रजपूती का ।"
संक्षेप मे इन भावो को व्यक्त करु तो यों कहुंगा !!
"शौर्य कथा, इतिहास भरै,
पर रंग अलग रजपूती का ।"
राठौङो की रियासते !
राठौङो की रियासते !
अजेगढ बीजावर चरखारी पन्ना अरू,
अली राजपुर देखो दतिया जनेश है ।
अजेगढ बीजावर चरखारी पन्ना अरू,
अली राजपुर देखो दतिया जनेश है ।
झाबुआ ओरछा पुनि रतलाम सीतामऊ ,
सैलाना ईडर ओ आमझरा सवेश है ।
सैलाना ईडर ओ आमझरा सवेश है ।
जोधपुर बीकानेर कृष्णगढ राजफेर ,
राजस्थान मांहि हेर वंशज दिनेश है ।
इक्ष्वाकू राठौङ वंश
दानेसुरा साखा
(राजा धर्मबब दान अधिक देने से दानेरुर कहलाये )
रनराज भाखा यह षोडस नरेश है ।
जोधपुर राज्य का रास्ट्रीय गीत :-
जोधपुर राज्य का रास्ट्रीय गीत :-
धुंसो बाजे रे महाराजा हणवंतसिंह रो, (वाह-वाह) धुंसो बाजे रे !!
महाराजा हणवंतसिंह कँवर कन्हैया, हुकम दियो रे खेलो होली !!
वाह-वाह धुंसो बाजे रे महाराजा, थारी मारवाड़ में धुंसो बाजे रे !!
धुंसो बाजे रे महाराजा हणवंतसिंह रो, (वाह-वाह) धुंसो बाजे रे !!
महाराजा हणवंतसिंह कँवर कन्हैया, हुकम दियो रे खेलो होली !!
वाह-वाह धुंसो बाजे रे महाराजा, थारी मारवाड़ में धुंसो बाजे रे !!
जिवणी मिसल माहि चांपा कुंपा, ऐ ओगे मारू रण थाळ !
डावी रे मिसल उदा, मेड़तिया, जोधा है शुरा री ढाल !
आउवो आसोप तो माणक मूंगा , ज्यू सोहे रतना री माल !
रिंया रायपुर और खेरवो, दीपे ज्यू मारू करमाल !
जैमल हुओ मुलक चावो, अमरो हिन्दवा लज रखवाल !
मुकन जैदेव गोरा जसधारी, धिन दुर्गो रखियो अजमाल !
जठी रे जावे उठी फते कर आवे, बांकी है फोज राठौड़ी री राज !
बांका बांका पेच राठौडा ने सोहे, पिचरंगी पेच ढूंढाड़ भूपाल !
कड़ा ने किलंगी राठौडा ने फाबे, मोरिया पांख कछावा बाल !
लाख लाख वांरै तोप रैहकला, अणगिण ऊंट रसाला काल !
( जोधपुर गवर्नमेंट गजट से साभार, २७ जुलाई १९४७ ई.)
डावी रे मिसल उदा, मेड़तिया, जोधा है शुरा री ढाल !
आउवो आसोप तो माणक मूंगा , ज्यू सोहे रतना री माल !
रिंया रायपुर और खेरवो, दीपे ज्यू मारू करमाल !
जैमल हुओ मुलक चावो, अमरो हिन्दवा लज रखवाल !
मुकन जैदेव गोरा जसधारी, धिन दुर्गो रखियो अजमाल !
जठी रे जावे उठी फते कर आवे, बांकी है फोज राठौड़ी री राज !
बांका बांका पेच राठौडा ने सोहे, पिचरंगी पेच ढूंढाड़ भूपाल !
कड़ा ने किलंगी राठौडा ने फाबे, मोरिया पांख कछावा बाल !
लाख लाख वांरै तोप रैहकला, अणगिण ऊंट रसाला काल !
( जोधपुर गवर्नमेंट गजट से साभार, २७ जुलाई १९४७ ई.)
जद मेह अंधेरी राता मे टुटेडी ढाण्या चुती हि ।
तो मारु रा रंग-मेहला मे दारु रि जाजम ढलती ही।
जद बा उनाला कि लुवा मे करसे री काया जलति हि,
तो छेल-भँवर रे चौबारे चौपङ रि जाजम ढलति हि।
पण करसे रि रक्षा खातर,
पण करसे रि रक्षा खातर,
सिस तलवार पर तोलणो पङतो।
धरती तने बोलनो पङतो।
धरती तने बोलनो पङतो।
खाली धङ रि कद हुवे चेहरे बीनापिछाण,
खाली धङ रि कद हुवे चेहरे बीनापिछाण,
राजपूता रे बीना क्यारो राजस्थान ।
"तुरक सराह्यो तोर, तेग तणों थारो त्रिमल,
"तुरक सराह्यो तोर, तेग तणों थारो त्रिमल,
राज करो नागौर, दीन्हो मनसब राव को ।"
राज करो नागौर, दीन्हो मनसब राव को ।"
रण बंका
हरवळ भालां हाँकिया ,पिसण फिफ्फरा फौड़ ।
विडद जिणारौ वरणियौ, रण बंका राठौड़ ॥
विडद जिणारौ वरणियौ, रण बंका राठौड़ ॥
किरची किरची किरकिया, ठौड़ ठौड़ रण ठौड़ !
मरुकण बण चावळ मरद, रण रचिया राठौड़ ॥
पतसाहाँ दळ पाधरा, मुरधर धर का मौड़।
फणधर जेम फुंकारिया, रण बंका राठौड़ ॥
फणधर जेम फुंकारिया, रण बंका राठौड़ ॥
सिर झड़ियां जुडिया समर, धूमै रण चढ़ घौड़ !
जोधा कमधज जाणिया, रण बंका राठौड़ ॥
सातां पुरखाँ री सदा, ठावी रहै न ठौड़ !
साहाँ रा मन संकिया, रण संकै राठौड़ ॥
हाको सुण हरखावणो, आरण आप अरौड़ !
रण परवाड़ा रावळा, रण बंका राठौड़ ॥
वीरोँ की भूमी है !
वीरोँ की भूमी है
जिसको राजस्थान कहते हैँ ये बंजर हो कर भी
बुजदिल कभी पैदा नही करती !
काढी खग्ग !
" काढी खग्ग हाथ नीकी चोकी किनात बाढी,
सिस दाढी मियाँ गिरे गिरवान को ।।
सिस दाढी मियाँ गिरे गिरवान को ।।
नूरुद्दीन भाग्यो लार लाग्यो नहीं जान दीनू,
खबर लागी मार डारयो सारो कुल खांनको ।।
राजपुतो ने अपना एक कौल रखा,
राजपुतो ने अपना एक कौल रखा,
चाहते हैं सब ही राज की रक्खा ।।
हमारा तो मरने का ही इरादा,
इसी राह पर काम आये बाप-दादा ।।
"बलवीर"
सौ राजन का राजा कैसा,
सौ राजन का राजा कैसा,
जेठ मास कि आफताब जैसा ।।
जेठ मास कि आफताब जैसा ।।
रण का पहाड़, दुश्मन कि भुजा उपाङ,
तेग का बहादुर ढुंढाहङ का किँवाङ ।।
बखतावर सिंह खेतङी !
बखतावर सिंह खेतङी
" पातलिये अलवर लई, माधव रणथम्भोर ।
रामचन्द्र लंका लई बख्तावर बाघोर ।। "
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