Friday 6 July 2018

राजा जयचन्द्र गाहड़वाल कन्नौज

राजा जयचन्द्र गाहड़वाल कन्नौज



आगरा के निकट चन्दवार का युद्ध (1194 ई.) अब सुल्तान मोहम्मद गौरी गजनी से भारत आया और वह कन्नौज और बनारस के राजा जयचन्द्र गाहड़वाल से लड़ने आगे बढ़ा । उसके पास 50 हजार की सेना थी । दोनों पक्ष की सेनाएं फिरोजाबाद से तीन मील दूर यमुना तट पर चन्दवार नामक गांव में आमने-सामने हुई। घोर युद्ध शुरू हुआ जिसमें मुसलमानों का नेतृत्व कुतुबुद्दीन एबक और हुसैन ने किया ।

भारत का नेतृत्व स्वयं राजा जयचन्द ने हाथी पर सवार होकर किया । युद्ध के दौरान जयचन्द को एक घातक तीर आ लगा और वह हाथी से नीचे गिर गया । यह देख भारतीय घबरा गए और वे अस्त-व्यस्त हो गए और इस प्रकार मुसलमान जीत गये। हसन निजामी ने लिखा है कि स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बना कर पुरुषों को मार डाला गया। उसे लूट का बहुत माल व 300 हाथी प्राप्त हुए ।

मुसलमानी सेना ने आगे बढ़ कर बनारस और असनी दुर्ग को जीत कर लूटा और बनारस के एक हजार मंदिर तोड़े । परन्तु ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कनौज पर जयचन्द्र के पुत्र हरिशचन्द्र का 1199 ई. तक राज्य था । इस क्षेत्र में हिन्दुओं ने मुस्लिम सभा के विरूद्ध रुक-रुक कर उनके विद्रोह किए इसलिये एबक ने फिर से बनारस पर 1 197 ई. में आक्रमण किया । फिर भी स्थाई शान्ति नहीं हो सकी जो एबक के बाद इल्तुतमश के समय तक भी ऐसा होता रहा ।

डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ में देश धर्म रक्षा युद्ध (1194 ई.) यहां का दुर्ग भी भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से था । कुतुबुद्दीन एकब ने उसका घेरा डाला और जो युद्ध हुआ उसमें बहुत से मुसलमान मारे गऐ जिनकी कब्रे आज भी बलाई किले में दिल्ली दरवाजे से भन्ज मुहल्ले तक बनी हुई है । इस युद्ध में मुसलमान सफल हुए और उन्होंने दुर्ग पर अधिकार कर लिया ।  जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनको छोड़ बाकी को मार डाला गया । यहां एबक को बहुत धन-माल और हजार घोड़े प्राप्त हुए ।

(सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 123,124)।

डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ़ में देश धर्म रक्षा युद्ध

डोर राजपूतों के द्वारा कोल अलीगढ़ में देश धर्म रक्षा युद्ध



कोल अलीगढ़ का देश धर्म रक्षा युद्ध (1194 ई.) - डोर राजपूतों का कोल अलीगढ़ दुर्ग भी भारत के प्रसिद्ध दुर्गों में से था । देश भर में राजपूतो के त्याग, बलिदान, शौर्ये कि सुनने पढ़ने को मिलती है लेकिन हजारों धर्म युद्ध ऐसे भी है जिनकी चर्चा वामपंथी इतिहासकार नहीं करते, ना ही पाठ्यक्रम में इन युद्धों कि जानकारी है, आजाद भारत में लोकतांत्रिक सरकारे भी इस तरफ कभी ध्यान नहीं देती । इतिहासकार राजेंद्र सिंह राठौड़ बीदासर ने अपनी पुस्तक राजपूतों की गौरवगाथा में ऐसे सभी धर्म युद्धों और राजपूत काल में हुवे अरब आक्रमण और राजपूतों कि विजय और संघर्ष के बारे में लिखा है ।

जब कुतुबुद्दीन एबक ने 1994 ई. डोर राजपूतों के कोल अलीगढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया पहले उसका घेरा डाला और जो युद्ध हुआ उसमें बहुत से मुसलमान मारे गए जिनकी कड़ें आज भी बलाई किले में दिल्ली दरवाजे से भन्ज मुहल्ले तक बनी हुई है। इस युद्ध में मुसलमान सफल हुए और उन्होने दुर्ग पर अधिकार कर लिया । जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनको छोड़ बाकी को मार डाला गया । यहां एबक को बहुत धन-माल और हजार घोड़े प्राप्त हुए। लेकिन राजपूतों का धर्म रक्षा के लिए संघर्ष अमर हो गया । (सल्तनत काल में हिन्दु प्रतिरोध-डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 123)

राजा सुलक्षण प्रतिहार, ग्वालियर

राजा सुलक्षण प्रतिहार, ग्वालियर (1196 ई.)




भारत पर अरब से 2500 साल तक लगातार मुस्लिम आक्रमण होते रहे और राजपुतो से मुस्लिम पीटते रहे, लेकिन राजपुतो कि शक्ति लगातार युद्धों के कारण क्षीण होती रही और दुसरा प्रमुख कारण राजपूतों के कमजोर होने का यह रहा कि मुस्लिम विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ गए और राजपूत पिछड़ गए । लगातार 17 युद्ध हारने के बाद सुल्तान मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज से जितने के बाद अलग अलग अधिकारी बनाता है,  सुल्तान मोहम्मद गौरी ने बयाना के अधिकारी बहाउद्दीन तुगरिल को ग्वालियर जीतने भेजा ।

बहाउद्दीन तुगरिल व राजपूतों कि बहुत बार झड़पे होती रही और  बहाउद्दीन तुगरिल कि सेना में निराशा छाने लगी क्योंकि लम्बे समय तक प्रयास होते रहे पर सफलता नहीं मिल रही थी । तब तुगरिल ने दुर्ग के पास गरगज लगवाए । एक वर्ष तक प्रतिहार राजपूत बहाउद्दीन तुगरिल कि सेना से लड़ते रहे पर अन्त में उन्होंने दुर्ग मुसलमानों को संधि के तेहत सौंप दिया और अपने लिए मौके का इन्तजार करने लगे । जैसे ही मुसलमान कमजोर हुए विग्रह प्रतिहार ने 1209 ई. में पुनः ग्वालियर जीत लिया । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय)

महाराजा भीमदेव सोलंकी द्वितीय की गुजराती सेना और अजमेर के मेर योद्वाओं द्वारा देश धर्म रक्षा 1196 ई.

महाराजा भीमदेव सोलंकी द्वितीय की गुजराती सेना और अजमेर के मेर योद्वाओं द्वारा देश धर्म रक्षा 1196 ई.




अजमेर के मेर यौद्धाओं ने लगातार विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लिया था । 1195 ई. में जब कुतुबुद्दीन अजमेर आया तो उसे हराने के लिये मेर वीरों ने योजना बना कर गुजरात के अन्हलवाड़ से सैनिक सहायता के लिये दूत भेजे। इस रहस्य की जानकारी कुतुबुद्दीन को हो गई तो उसने गुजरात की सेना आने से पहले ही मेरों पर आक्रमण कर दिया परन्तु कुतुबुद्दीन जीत नहीं सका, दिन भर युद्ध हुआ ।

अगले ही दिन गुजरात की सेना ने ऐसा भीषण आक्रमण किया कि कुतुबुद्दीन का सेनापति ही मारा गया और भारतीय वीरों ने तुर्को का अजमेर तक पीछा किया । कुतुबुद्दीन एक हमले में घायल हो गया । उसके छ: बड़े घाव लगे, वह बहुत घायल हो गया । उसको छकड़े में डाल कर ले जाया गया । बाद में वह अजमेर के दुर्ग में घिर गया और हिन्दू वीरों ने दुर्ग को घेर लिया। यह घेरा कई महीने तक चलता रहा और इस दौरान क्या हुआ यह मुसलमान इतिहासकारों ने नहीं लिखा - ताजुल मासीर । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ) ।

ताजुल मासीर में लिखा है कि इस विषम स्थिति में एक विश्वस्त संदेशवाहक को गजनी भेजा गया कि वह सुल्तान को काफिरों की सेना का हाल समझाये और उससे आदेश प्राप्त करे कि अब क्या कार्यवाही की जाये । तब एक शाही आदेश जारी हुआ । खुसरू पर सम्मान और कृपायें बरसायी गई और विद्रोहियों का दमन और उन्मूलन उसी की समझ पर छोड़ दिया गया । उसकी सहायतार्थ एक बड़ी सेना भेजी गई जिसके नायक जहां पहलवान असदुद्दीन, अर्सलानकलिज, नासिरूद्दीन, हुसैन, मुबैयिद्दीन बलख का पुत्र इज्जुद्दीन मुहम्मद जराह थे ।

यह सहायक सेना शरद ऋतु के आरम्भ में अजमेर पहुंची और हिन्दुओं को हरा कर इसी सेना ने फिर गुजरात पर आक्रमण करके उसे अधीन किया । अगले कई सौ वर्षों तक मेरों ने हिन्दुत्व की रक्षा की और अड़सी मेर ने 1310 ई. में जालौर में खिलजी मुसलमानों से लोहा लिया था । सुल्तान इल्तुतमिश को भी पुनः अजमेर जीतना पड़ा था ।

लोकतंत्र एक वास्तविकता - लेखक - देवीसिंह जी महार साहब

पुस्तक - जागरण की बेला - लेखक - देवीसिंह जी महार साहब

लोकतंत्र एक वास्तविकता 



आज लोकतंत्र हमारे देश के लिये ही नहीं, संसार के लिए एक वास्तविकता है । इस वास्तविकता को नकार कर परम्परा के नाम पर साम्राज्यवाद की कल्पनाओं में डूबे रहना अपने जीवन में विकृति को पैदा करने के समान है ।

जैसा कि पहले लिखा जा चुका है जब संसार पुण्यवान लोगों का अभाव हो जाता है, उस समय लोकतंत्र ही एकमात्र ऐसी व्यवस्था शेष रहती है जिसके अन्तर्गत येनकेन प्रकारेण समाजों व राष्ट्रों की व्यवस्था को सुचारू रखा जा सकता है । 

संसार में लोकतंत्र के विकास की ओर ध्यान देने पर जब हमारी दृष्टि मुस्लिम राष्ट्रों पर जाती है तो यह स्पष्ट रुप में दिखाई देने लगता है कि ये राष्ट्र लोकतंत्र को पचा नहीं पाये हैं । बार बार सैनिक शासन व सताओं में परिवर्तन मुस्लिम राष्ट्रों के लिए एक आम बात है ।



पिछले एक हजार वर्षों में मुसलमान एक नेता के नेतृत्व रहते आये हैं । जिसको हम सामन्तशाही या राजाशाही कहते आयें हैं, इसी परम्परा में मुस्लिम सभ्यता जन्मी, बङी हुई व फली फूली । इसलिए एक का अनुसरण करना, एक के विरुद्ध कही बात नहीं सुनना, एक कहे वही धर्म, इस परम्परा का मुस्लिम समाज अभ्यस्त हो चुका था ।

लोकतंत्र इस व्यवस्था का सीधा कुठाराघात करता है । जब लोगों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है तो लोग अच्छी ही बात की अभिव्यक्ति करें यह आवश्यक नहीं है । वे जैसी भी बात कहें, उसको सुनने व शान्ति के साथ सुनने की आदत लोकतंत्र में में होनी चाहिए ।
इस आदत का विकास मुस्लिम समाज नही कर पाया इसी के परिणामस्वरूप लोकतंत्र की आँधी इन राष्ट्रों को बार-बार झकझोरती है, इनकी व्यवस्थाओं को डांवाडोल करती है तथा अन्ततोगत्वा उनके राष्ट्रीय जीवन में अस्थिरता पैदा कर देती हैं ।

इसमें भी भयानक परिणाम उन्हें यह भोगना पङ रहा है कि अन्य लोकतांत्रिक देश उन्हें अपने से पृथक, विजातीय तत्व समझते है; जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अन्य राष्ट्रों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है । हमारे सामाज की स्थिति आज मुस्लिम राष्ट्रों जैसी है । हमने हमारे सामाजिक संगठित को लोकतांत्रिक स्वरूप दिया है ।



देश की राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए हमने लोकतांत्रिक तरिके से चलने वाले राजनीतिक दलों में भी प्रवेश किया है । लेकिन परम्परागत नेताओं की जय - जयकार करना, अपनी आलोचना को नहीं सहन कर पाना व विचार के आधार पर चलने वाली पद्धति में सक्षम बनने योग्य विचारों का विकास नहीं कर पाना हमारे पिछड़ेपन का एक बहुत बङा कारण हैं ।

राजा त्रैलोक्यवर्मन चन्देल - मुसलमानों को हरा कर कलिंजर दुर्ग पर पुनः अधिकार करने वाले राजा (1205-1241 ई.)

राजा त्रैलोक्यवर्मन चन्देल -
मुसलमानों को हरा कर कलिंजर दुर्ग पर पुनः अधिकार करने वाले राजा (1205-1241 ई.)




राजा त्रैलोक्यवर्मन चन्देल (1205-1241 ई.) - जब कुतुबुद्दीन एबक ने कालिंजर पर अभियान किया तब राजा परमर्दिदेव दुर्ग से निकल मैदान में युद्ध के लिए आये । लेकिन मैदान युद्ध के दौरान जब उन्हें नुकसान होने लगा तो वह वापिस दुर्ग में जाकर लड़ने लगे, परन्तु हार और विनाश निश्चित हो जाने पर राजा परमर्दिदेव ने संधी की बात चलाई । यह प्रक्रिया चल ही रही थी कि राजा परमर्दिदेव कि मृत्यु हो गई ।


राजा कि मृत्यु के बाद राजा परमर्दिदेव के मंत्री अनदेव ने संधी नहीं कि और युद्ध करना शुरू किया । उस समय अकाल के कारण पानी की कमी थी जिसे पहाड़ों के स्रोत से आपूर्ति होती थी। मुसलमानों ने इस पानी को रोक दिया । इस कारण चन्देलों ने दुर्ग को कुतुबुद्दीन को सौंप दिया । उसने वहां के सभी मंदिर तोड़े, खूब धन लूटा और कई हजार लोगों को गुलाम बना कर मुसलमान बना दिया ।


कुतुबुद्दीन एबक ने कालिंजर के बाद चन्देलों के प्रसिद्ध नगर महोबा को भी ले लिया, परन्तु कुतुबुद्दीन के चले जाने के दो वर्ष बाद राजा परमर्दिदेव चन्देल के पुत्र त्रैलोक्यवर्मन (1205-1241 ई.) ने झांसी के पास ककदवा गांव में मुसलमानों को हरा कर कलिंजर दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया । उसने इस युद्ध में काम आए बाउता सामन्त के पूर्वज के लिए दान दिया । त्रैलोक्यवर्मन का अंतिम शिलालेख 1241 ई. तक उसे स्वतन्त्र राजा प्रमाणित करता है । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ, पृष्ठ 133)

बदायूँ के राष्ट्रकूट राठौड़ राजा लखनपाल

बदायूँ के राष्ट्रकूट राठौड़ राजा लखनपाल




बदायूँ के राष्ट्रकूट राठौड़ो के विद्रोह (1202 ई.) -
बदायुँ राजतंत्र में एक महत्वपूर्ण राज्य था, बदायुँ गंगा नदी के समीप बसा है, 11 वीं शती के प्राप्त अभिलेख के अनुसार इस नगर का नाम वोदामयुता भी था और बदायूँ पांचाल देश कि राजधानी था । बदायूँ की नींव राजा अजयपाल ने 1175 ई. में डाली थी, राष्ट्रकूट राठौड़ राजा लखनपाल को बदायुँ नगर को बसाने का श्रेय दिया जाता है। अरब आक्रमणकारियों में कुतुबुद्दीन बदायूँ आया उसने इल्तुतमिश को अधिकारी लगाया राजा लखनपाल ने नीलकंठ महादेव का प्रसिद्ध मंदिर भी बनवाया था जिसे इल्तुतमिश ने तुड़वा दिया। लेकिन बदायूं में राष्ट्रकूट राठौड़ों ने बार-बार मौके के अनुसार विद्रोह किए जिसे कुतुबुद्दीन ने दबाने कि भरपूर कोशिश कि और वहां इल्तुतमिश को अधिकारी लगाया ।

सारांश यह है कि 1178 ई. से 1202 ई. तक गजनी के गोर मुसलमानों ने अजमेर के चौहान, दिल्ली के तोमर, कन्नौज के गाहड़वाल, कालिन्जर के चन्देल, गुजरात, मालवा आदि को हरा कर बंगाल और आसाम को भी जीता था पर यह बहुत ही अल्पकालीन जीत रही । मुसलमानों की असली सत्ता केवल दिल्ली, आगरा, बदायूं और लाहौर तक सीमित रही। इसी को इतिहास में दिल्ली सल्तनत कहा गया । बाकी प्रदेशों पर राजपूत राजा पुनः स्वतन्त्र हो। गए थे । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ)