Friday 21 October 2016

राजा मानसिंह आमेर - भूमिका- देवीसिंह महार साहब

"राजा मानसिंह आमेर"
भूमिका - देवीसिंह जी महार साहब

"राजा मानसिंह आमेर" पुस्तक के विद्वान लेखक राजीव प्रसाद जो कि बिहार के निवासी हैं, ने राजा मानसिंह आमेर पर शोध कार्य कर, इतिहास में उपेक्षित एक महान व्यक्तित्व के तथ्यात्मक इतिहास को प्रकाश में लाने का कार्य किया है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है । दूर प्रदेश के निवासी होने, स्थानीय लोगों का पूर्ण सहयोग नहीं मिलने व ढूँढाङी भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण जो तथ्य उनकी जानकारी में नहीं आये अथवा जो गलत तथ्य उनके सामने प्रस्तुत हो गये हैं, उनके संबंध में जानकारी देने के उद्देश्य से मैंने यह भूमिका लिखने का निश्चय किया है ।

कोई भी व्यक्ति अथवा समाज काल व परिस्थिति निरपेक्ष नहीं हो सकता है, इसलिए चाहे इतिहास व्यक्ति का हो अथवा समाज या देश का उस पर उस काल की परिस्थितियों का न केवल प्रभाव होता है, अपितु जो व्यक्ति अथवा समाज काल व परिस्थितियों की उपेक्षा करके चलते है, ऐसा नही कि वह केवल सफलता ही प्राप्त नहीं कर सके, अपितु विनाश को भी प्राप्त होता है । आज के इतिहासकार उपर्युक्त तथ्यों पर प्रकाश डालें बिना ही इतिहास लेखन का कार्य कर रहे हैं, जिससे इतिहास के पात्रों के साथ न्याय नहीं हो पाता है ।

सिकन्दर ने इस देश पर ईसा पूर्व 326 में अथार्त 2342 वर्ष पूर्व आक्रमण किया था, उसके बाद सिन्ध पर लगातार आक्रमण होते रहे । महमूद गजनी ने ईस्वी 1001 व मुहम्मद गौरी ने ई. 1175 में भारत पर पहला आक्रमण किया । उसके बाद लगातार पठानों व बाद में मुगलों ने इस देश पर आक्रमण किये । इन आक्रमणों का उद्देश्य न तो लूटपाट था और न ही केवल शासन स्थापित करना, अपितु इनका उद्देश्य था- सम्पूर्ण देश का इस्लामीकरण । पिछले कुछ 100 वर्षों में ही ईरान, ईराक व अफगानिस्तान के विशाल भूभाग की जनता का धर्म परिवर्तन कर इनको इस्लाम में दीक्षित करने के बाद उनका मुख्य उद्देश्य भारत का इस्लामीकरण था ।

लगातार 2000 से अधिक वर्षों तक विदेशियों के आक्रमण का सामना करने व उसके कारण भारी जन-धन की हानि उठाने के कारण राजपूत-शक्ति क्षीण व क्षत्-विक्षत् हो गयी थी । मुसलमानों ने विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर आधुनिक हथियारों बन्दूकों, तोपों आदि का आविष्कार कर लिया था, जबकि हमारे देश के शिक्षा के ठेकेदार इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाये थे, परिणामस्वरूप मुसलमानों के विरुद्ध होने वाले युद्धों में राजपूतों को भारी हानि उठानी पङती थी । बाबर व शेरशाह सूर के काल तक परिस्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि लोग धन व राज्य के प्रलोभन में बङी संख्या में इस्लाम को अपनाने लगे थे ।

इक्के - दुक्के आक्रमणों को छोड़कर 2000 बर्षों में भारत पर सैकड़ों आक्रमण काबुल व कन्धार के रास्ते से हुए, लेकिन इस देश के किसी शासक ने खैबर व बोलन के दर्रों को बन्द करने की बुद्धिमता प्रदर्शित नहीं की । काबुल क्षेत्र में पाँच बङे मुसलमान राज्य थे, जहाँ पर हथियार बनाने के कारखाने स्थापित थे । इन राज्यों के शासक भारत पर आक्रमण करने वालों को मुफ्त में हथियार व गोला बारुद देते थे, व वापस लौटने वालों से बदले में लुट का आधा माल लेते थे । इस प्रकार धन के लोभ में बङी संख्या में हजारों मुसलमान इस देश पर आक्रमण करते थे, जिनमें से कुछ लोग ही वापस लौटते शेष धर्म परिवर्तन व राज्य के लोभ में यहीं रुककर पहले आए मुसलमानों के साथ मिल जाते, जिससे धर्म परिवर्तन का कार्य तेजी से बढ़ने लगा था व लाखों हिन्दुओं ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया था ।

इस खतरे को राणा सांगा जैसे बुद्धिमान शासक ने समझा था व बाबर से सन्धि भी की थी लेकिन साँगा उस सन्धि को निभा नहीं पाये, परिणामस्वरूप अन्ततोगत्वा बाबर से उनका युद्ध हुआ जिसमें पराजित होना पङा । किन्तु इसके बाद आमेर में लगातार तीन पिढी़ तक नीतिज्ञ, शूरवीर व बलवान शासक हुए, जिन्होंने मुगलों से सन्धि कर, न केवल बिखरी हुई दुर्बल व नष्ट प्रायः राजपूत शक्ति को एकत्रित कर उसमें आत्मविश्वास जगाया अपितु बाहर से आने वाली मुस्लिम आक्रमण शक्ति का रास्ता हमेशा के लिए रोक दिया । अपने राज्यों में आधुनिक शस्त्रों के निर्माण की व्यवस्था की व कुछ ही समय में मुगलों के बराबर शक्ति बन गये । इसके अलावा मुगलों को पठानों से लङाकर पठान शक्ति को तोङना व भारत के इस्लामीकरण की योजना को नेस्तानाबूद कर देना उनकी प्रमुख उपलब्धि थी ।।

आमेर के राजा भारमल ने अकबर से सन्धि की । उनके पुत्र भगवन्तदास ने इस सन्धि को ने केवल दृढ़ किया बल्कि उन्हीं के शासक काल में उन्होंने बादशाह अकबर को पठानों को मुगलों का नम्बर एक का शत्रु बताते हुए काबुल विजय की योजना बनवाई जिससे न केवल पठान शक्ति दुर्बल हुई बल्कि मुसलमानों की भारत के इस्लामीकरण की योजना भी दफन हो गई । तब मुसलमान ही मुसलमान से अपने राज्य को सुस्थिर करने के लिए लङ रहा था व इस लङाई का लाभ उठाकर राजपूत अपनी शक्ति को बढा़ते जा रहे है थे । अकबर के शासनकाल में मानसिंह इतने शक्तिशाली हो गये थे कि अकबर के मुसलमान सेनापति उसे भविष्य के लिए खतरा समझने लगे थे । इसी का परिणाम था कि अकबर के जीवनकाल में ही अकबर को अपने समस्त मुस्लिम सेनापतियों का विरोध इसलिए सहना पङा कि वह मानसिंह को अत्यधिक महत्व देता था । अकबर को अपने जीवनकाल में ही सलीम (जहाँगीर) का विरोध इसलिए सहना पङा कि वह मुस्लिम सेनापतियों के प्रभाव में था, जिन्होंने उसको यह समझा दिया था कि मानसिंह तेरे लिये सबसे बङा खतरा है ।

भगवन्तदास ने जिस बुद्धिमता से अकबर को काबुल विजय के लिए सहमत किया था उसकी क्रियान्विति कुँवर मानसिंह के शौर्य, युद्धकौशल व नीतिज्ञता से ही संभव हुई थी । मानसिंह ने ही काबुल विजय कर उन पाँच राज्यों के शस्त्र निर्माण करने वाले कारखानों को नष्ट किया था व वहाँ के शस्त्र निर्माण करने वाले कारीगरों को बन्दी बनाकर आमेर ले आये थे । जहाँ आज जयगढ़ का किला है, वहाँ पर शस्त्र निर्माण के एक कारखाने की स्थापना की गई थी । उन्हीं कारीगरों के वंशजों द्वारा निर्मित पहियों पर रखी संसार की सबसे बङी तोप आज भी जयगढ़ के किले में पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है । काबुल विजय के बाद कश्मीर से लेकर उङीसा व बंगाल तक पठानों का दमन, हिन्दू तीर्थों व मन्दिरों का उद्घार व उपर्युक्त क्षेत्र में नये राजपूत राज्यों की स्थापना ; मानसिंह के ऐसे कार्य थे, जिसके कारण उन्हें अपने काल में धर्म रक्षक कहें गये । लेकिन जैसा की इस पुस्तक के लेखक ने लिखा है बाद के इतिहासकारों ने उनका चरित्र-हनन करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी ।
क्रमशः ।।

सनातन धर्म रक्षक राजा मानसिंह आमेर स्मृति समारोह
29 जनवरी, रविवार 2017 ।
राजपूत सभा भवन जयपुर ।।
#राजा_मानसिंह_आमेर

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