Wednesday 9 May 2018

महाराणा सज्जनसिंहजी का अनोखा कार्य - (ठा. ओंकार सिंह)

महाराणा सज्जनसिंहजी का अनोखा कार्य - (ठा. ओंकार सिंह)




उदयपुर (मेवाड़) के महाराणा सज्जनसिंह अनेक गुणों से विभूषित थे। उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों में एक था नवोदित पंथ आर्य समाज का समर्थन। उन्होंने आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द को अनुपम समर्थन दिया। महर्षि दयानन्द ने उनके आतिथ्य में रहते हुए उदयपुर में वेदों का भाष्य लिखा। महर्षि ने एक संस्था आर्य परोपकारिणी सभा स्थापित की जिसके संरक्षक महाराणा सज्जनसिंह बनाये गये। महाराणा साहब मेवाड़ राज्य की महान प्रतिष्ठा और परम्परा को अक्षुण्य बनाये रखना चाहते थे। इस बात की पुष्टि के लिये मैं विख्यात स्वतंत्रता सेनानी श्री केसरीसिंहजी बारहठ के लेख का उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह लेख अखिल भारतीय चारण सम्मेलन की त्रैमासिक पत्रिका ‘चारण' के विक्रम संवत 1996 (ई. सन् 1939) के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख से पता चलेगा कि कैसे महाराणा सज्जनसिंहजी ने एक राजपूत राज्य को मुसलमान राज्य होने से बचाया -

"मेवाड़ के महाराणाओं को छोड़कर राजस्थान के राजाओं में देशाभिमान, कुलाभिमान एवं धर्माभिमान की इतिश्री तो मुस्लिमशाही के आगमन के साथ ही हो चुकी थी। महाराणा वंश की वह वृत्ति भी मराठाशाही के समय से शिथिल हो चुकी। फिर भी हमने अपनी आयुष्य के प्रथम भाग में इन राजाओं में स्वाभिमान की जो शेष झलक देखी उसका भी आज कहीं पता नहीं। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंहजी, फतहसिंहजी, बूंदी के महाराव राजा रामसिंहजी, एक छोटी-सी रियासत बांसवाड़ा के महारावल लक्ष्मणसिंहजी आदि स्वाभिमानी नरपतियों की वह तेजस्विता आज भी हमारे स्मृतिपटल पर प्रकाश डाल रही है। उस झलक को हम तीन-चार तरह के उदाहरणों से स्पष्ट करेंगे जिससे पाठक तब और अब का मार्मिक स्वरूप सहज जान सके।

“संवत् 1940 में उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंहजी मेहमान होकर जोधपुर गये। वहाँ जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंहजी ने महाराणा से कहा कि- “मैं एक असह्य घटना से विचलित हो रहा हूँ और वह यह है कि मेरा ननिहाल और सुसराल नवानगर (जामनगर) में है वहाँ के वर्तमान नरेश जाम वीभाजी अपनी एक मुसलमानी खवास (पासवान, रखैली) के पेट से पैदा होने वाले लड़के (कालूभा) को गोद लेकर राजगद्दी का वारिस करार दे दिया है और गवर्मेन्ट ने भी स्वीकार कर लिया है। इससे हमारा उस राज्य से सदा के लिये संबंध नष्ट होने जा रहा है। मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता, आपकी मदद चाहता हूँ।

महाराणा सदा हिन्दू धर्म के रक्षक और राजपूत जाति के शिरोमणी रहे हैं। इस पर महाराणा सज्जनसिंहजी ने सहायता देना स्वीकार कर लिया। दोनों ने सलाह करके उज्रदारी के तौर पर दो तार और दो खरीते गवर्मेन्ट-हिन्द के नाम लिखे और महाराजा जसवन्तसिंहजी ने वे अपने मुसाहिब पंजाबी श्री हरदयालसिंह के साथ जोधपुर के तत्कालीन रेजिडेन्ट कर्नल बेली के पास भेजकर जबानी कहलाया कि जामनगर के जाम साहिब बीभाजी ने मुसलमानी के पेट से पैदा हुए लड़के को अपनी गद्दी का हकदार कायम करके गवर्मेन्ट से मंजूरी ले ली है। उसके उज्रात बाबत महाराणा साहिब उदयपुर और मैं दोनों ही तार व बाजाब्ता खरीते देते हैं वे सरकार अंग्रेजी में पहुँचा दें। पोलिटकल रेजिडेन्ट ने वे तार-खरीते उस समय के एजेन्ट टु दि गवर्नर जनरल राजपूताना कर्नल जाडफोर्ड के पास भेज दिये और सूचना दे दी कि दोनों ही ईस आप से अजमेर में मिलेंगे।

‘‘महाराणा सज्जनसिंहजी उदयपुर लौटते समय महाराजा जसवन्तसिंहजी के साथ अजमेर पहुँचे। वहाँ ए.जी.जी. कर्नल जाडफोर्ड दोनों रईसों से मिलने के लिये किशनगढ की कोठी पर आये। उस समय ए.जी.जी. ने कहा- 'कि आप दोनों रईसों ने जामनगर के मामले में तार व खरीते भेजे वे बेजा हैं, क्योंकि हर एक रईस को अपनी ही रियासत के मामलों में तहरीर देने व उद्धात पेश करने का इख्तियार है। कोई दूसरी रियासत के मामले में दखल नहीं दे सकता। इसके अलावा राजपूताने की रियासत का कोई मामला होता तो किसी खास सूरत में आपका कहना और मेरा सुनना कुछ ठीक भी समझा जाता।

मगर जामनगर काठियावाड़ में है इसलिये आपका उज़ करना बेजा है, आप अपने ख़रीते वापस ले लें जाम वीभा के शादी की हुई रानियों से कोई औलाद नहीं है, वह अपनी खानेअंदाज की हुई मुसलमान औरत के पेट से खास उसी के नुत्फे से पैदा हुए लड़के को अपना वलीअहद बनाना चाहता है तो उसे कैसे रोका जा सकता है। महाराणा साहिब की तो कोई रिश्तेदारी भी नहीं है।'' इस पर महाराजा जसवंतसिंहजी तो चुप हो गये परन्तु महाराणा सज्जनसिंहजी ने उत्तर दिया कि किसी समय समस्त भारतवर्ष पर हम राजपूत जाति बहुत कम हो गई। फिर मुसलमान बादशाहों की लड़ाइयों में लाखों राजपूत मारे गये इससे हमारे राज्य गिनती के रह गये जिसका हमें दुःख है।

अब इस अमन के जमाने में भी राजाओं की खानेअंदाज मुसलमान व अंग्रेज औरतों के पेट से पैदा होने वाले दोगले लड़के रस बना दिये जाएंगे तो ये रही-सही रियासतें भी मुसलमान व ईसाइयों की हो जाएंगी। इसको हम कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते। अपनी जाति की रक्षा करना हमारा फर्ज है। आप खुद अपनी कौम व मजहब की तरक्की के लिये कैसी-कैसी कोशिशें कर रहे हैं? पादरी लोगों की मिशन को दूर-दूर मुल्कों में, बल्कि हमारे रियासतों में भी भेजकर हर तरह की मदद देते हैं और उनके रहने व गिरजा वगैरह के लिये जमीन आदि देने के लिये हम लोगों पर दबाव डालते हैं।

आपको अपनी कौम का ख्याल है उसी तरह हमें भी अपनी कौम का ख्याल होना स्वाभाविक है। क्या हम मनुष्य नहीं हैं। जामनगर काठियावाड़ में होने से क्या हुआ? है तो राजपूतों का ही मालूम होता है जाम का दिमाग बिगड़ गया है, मगर हमारा तो ठिकाने है। हम इस तरह राजगद्दियों को भ्रष्ट नहीं होने देंगे। यह ठीक है कि आपका ताल्लुक काठियावाड़ से नहीं है। इसीलिये तो ये खरीते आपके नाम नहीं बल्कि वायसराय के नाम है। रही मेरी रिश्तेदारी की बात। रिश्तेदारी दो-तीन पीढ़ी तक ही चलती है, मगर मेरा संबंध उससे भी अधिक व्यापक और चिरस्थायी है। चाहे आप माने या न मानें परन्तु वास्तव में समस्त संसार उदयपुर के महाराणा को हिन्दू सूर्य कहता है और मैं भी अपनी उस जिम्मेदारी को मानता हूँ।

अतः जहाँ कहीं भी हिन्दू हो वहाँ तक मेरे अधिकार की सीमा है। यह मामला तो खास मेरी जाति के एक राजघराने का है और यही मेरे प्रबल प्रतिवाद का कारण है। हम अंग्रेज सरकार के भी दोस्त हैं इसलिये नहीं चाहते कि व्यर्थ में ऐसा बवण्डर उठे जो वायसराय को भी कठिनाई में डाल दे। इसलिये आप मेरे नाम से यह नेक सलाह वायसराय को भेज दें कि वे जाम विभा की मूर्खता पर स्वीकृति न दें।' महारणा के इस उत्तर पर ए.जी.जी. निरुत्तर हो गये और कहा कि ठीक है, मैं आपकी मंशा से वायसराय को परिचित कर दूंगा और खुद भी कोशिश करूंगा। उम्मीद है, गवर्मेन्ट जामनगर संबंधी फाइल आपके पास देखने के लिये भेज दे।”

थोड़े ही समय बाद वह फाइल पोलिटिकल डिपार्टमेन्ट ने उदयपुर भेज दी। परन्तु दुःख है, इसी असे में महाराणा का स्वर्गवास हो गया। फिर भी परिणाम यह हुआ कि वह कालूभा जामनगर का उत्तराधिकारी न रहा। कैसा स्वाभिमान भरा था महाराणा सज्जनसिंह का वह अनुपम व्यक्तित्व। कालान्तर में उसी जाम वीभाजी ने दूसरी बार उसी मूर्खता भरी सनक से अपनी किसी मुसलमानी पासवान के पेट के दूसरे लड़के जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उस समय किसी राजा ने यूं तक नहीं की। महाराजा जसवंतसिंहजी भी मन-मसोस कर रह गये, क्योंकि सज्जनसिंह की तेजस्विता का बल संसार से उठ चुका था। यह उदाहरण है हिन्दु सूर्य की आसमुद्रांचल भारत पर आत्मीयता का, कुलाभिमान का, स्वधर्माभिमान का और सर्वोपरि क्षात्रोचित स्वाभिमान का।

महाराणा सज्जनसिंहजी के महत्त्वपूर्ण और सफल प्रयास के पश्चात् जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंहजी के लघु भ्राता महाराज सर प्रतापसिंहजी ने जमानगर के भावी उत्तराधिकारी की सहायता की। ये उत्तराधिकारी थे श्री रणजीतसिंहजी सारोदार जागीर के जागीरदार थे और राजघराने से उनका सम्बन्ध निकटतम था। इन्हें बचपन में ही जाम साहब विभाजी ने शिक्षा ग्रहण करने हेतु दीर्घकाल के लिये इंग्लैण्ड भेज दिया था। वहाँ रहते हुए रणजीत सिंह जी ने सन् 1891 में क्रिकेट के खेल में नाम कमाना शुरू किया। क्रिकेट के अतिरिक्त वे जिमनास्टिक व टेनिस के खेल में भी रुचि लेते थे, परन्तु क्रिकेट के खेल में उनकी उपलब्धि अनुपम थी। इंग्लैण्ड में क्रिकेट का खेल अत्यन्त लोकप्रिय था और इस खेल की मैचें देखने के लिये ब्रिटेन का राजपरिवार भी उपस्थित होता था। इंग्लैण्ड के खिलाड़ी भारतवंशियों को अपने बराबर नहीं गिनते थे और उनकी उपेक्षा करते रहते थे। परन्तु रणजीतसिंहजी ने अपनी प्रतिभा से इस खेल में ऐसी धाक जमायी कि सारे विश्व में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। उनके कारण कैम्ब्रिजसायर काउन्टी क्रिकेट क्लब की प्रतिष्ठा भी बढ़ गयी।

रणजीतसिंहजी नवानगर (जामनगर राज्य) की गद्दी के हकदार थे, उनका मार्गदर्शन महाराज सर प्रतापसिंहजी जोधपुर ने किया। उन्होंने ब्रिटिश राजघराने और भारत के वाइसराय को संस्तुति की कि रणजीतसिंहजी नवानगर राज्य की गद्दी के वास्तविक अधिकारी हैं। महाराणा सज्जनसिंहजी द्वारा तैयार की गयी भूमिका के बाद सरप्रताप के प्रयासों ने रंग दिखाया। जाम विभाजी के देहावसान के बाद वाइसराय ने रणजीतसिंहजी को जामनगर का शासक घोषित कर दिया। इन्हीं रणजीतसिंहजी के नाम से भारत में रणजी ट्राफी क्रिकेट का चलन हुआ। भारत के क्रिकेट प्रेमियों के लिये रणजीतसिंहजी पितामह के रूप में मान्य हैं। इन्हीं की स्मृति में बनी रणजी ट्राफी की मैचों में खेलते हुए खिलाड़ी राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचे हैं। आज भारत में रणजी ट्राफी के मैच सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय गिने जाते हैं।

पुनश्च :- हिन्दुओं के धर्मरक्षक मेवाड़ के महाराणा :- महाराणा सज्जनसिंहजी की साहसिक पहल से नवानगर (जामनगर) राज्य का सिंहासन एक मुसलमान के अधिकार में जाने से बच गया। इसी संदर्भ में एक ऐतिहासिक घटना का जिक्र करना आवश्यक है। जोधपुर राज्य के मंत्री और विख्यात चारण कवि कविराजा मुरारिदान मेवाड़ की राजधानी उदयपुर गये थे, वहाँ उनके सम्बन्धी श्यामलदास दधवाडिया महाराणा सज्जनसिंहजी के विश्वासपात्र और कृपापात्र थे। महाराणा सज्जनसिंहजी ने कविराजा मुरारिदानजी को लाख पसाव और जागीर देने की इच्छा जताई, परन्तु मुरारिदानजी ने यह सम्मान लेने से | इन्कार करते हुए महाराणा साहब को एक सवैया लिख भेजा, जो इस प्रकार था-

रावरो दान मुरार भने जग जाहिर है, कवि कीरति गाई।
मैं हूँ अचायक भूप जोधाण को, बीनति माफी की यातें कराई।
सज्जन मो अपराध न पेखिये, देखिये रावरी वंश बड़ाई।
धर्म निबाहन को हिन्दुआन के, राण रहे तत्रतांत्र सदाई।।

(मुरारिदान कहता है कि श्रीमान् का दान विश्व प्रसिद्ध है और इस कारण कवियों ने भी आपका यश गाया है। मैं जोधपुर नरेश का अयाचक चारण हूँ जो किसी अन्य दानदाता ये याचना नहीं कर सकता। हे सज्जनसिंहजी मेरे अपराध को मत देखिये, आप अपने वंश की बड़ाई देखिये। हिन्दुओं के धर्म निबाहने के लिये मेवाड़ के महाराणा सदा कवच और ढाल बनके रहे हैं, अत: आप भी मेरे धर्म को बचाइये।) ।

उपरोक्त सवैये से मेवाड़ के राजवंश का यशगान तो प्रकट होता ही है, इसके साथ ही कविराजा मुरारिदान की सिद्धान्तप्रियता और त्याग भी प्रदर्शित होता है। कवि ने उपरोक्त सवैये द्वारा बड़े सटीक तर्क से महाराणा से क्षमा मांगी है। ज्ञातव्य है कि कविराजा मुरारिदान को जोधपुर नरेश महाराजा जसवन्तसिंहजी ने लूणी ग्राम की बड़ी जागीर प्रदान करके अयाचक बना दिया था।

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