महाराज रन्तिदेव
महाराज रन्तिदेव महाराज संकृति के पुत्र थे। रन्तिदेव धर्मात्मा और महान अतिथि सेवक थे। वे अतिथि की इच्छा को जानकर ही उसे पूरा करते थे महाराजा के यहाँ प्रतिदिन हजारों की संख्या में अतिथि आते थे और वे प्रतिदिन उनकी इच्छाओं की पूर्ति करते। अतिथि सेवा में महाराज का सब खजाना खाली हो गया और उनके पास आने वालों को देने के लिए कुछ भी नहीं बचा। इस पर रन्तिदेव ने राजपाट और राजमहल छोड दिया और स्त्री पुत्र के साथ जंगल में चले गये |
महाराज रन्तिदेव क्षत्रिय थे और क्षत्रिय कभी भिक्षा नहीं माँगते। उन्होंनें जंगल में कन्द मूल फल आदि खाकर ही अपना निर्वाह किया। एक समय राजा रन्तिदेव अपने पुत्र व स्त्री के साथ चलते चलते ऐसे जंगल में पहुंचे जहाँ फल, फूल कंद मूल आदि खाने को कुछ भी नहीं मिले यहाँ तक कि पेडों के पते भी नहीं मिले उस वन में जल भी नहीं था। भूख प्यास से रानी और राजकुमार तडपने लगे। अडतालीस दिन इस तरह बीत गये परन्तु पानी की एक बूद तक नहीं मिली। उनचासवें दिन राजा उस वन के बाहर पहुंचे। वन के बाहर पहुँचने पर राजा ने एक बस्ती में प्रवेश किया, वहाँ राजा को एक मनुष्य ने खाने को भोजन और पिने को पानी दिया, महाराज ने भगवान को भोग लगाया पर महाराज के मन में एक मलाल उठ रहा था कि आज बिना किसी अतिथि को खाना खिलाये उन्हें भोजन करना पडेगा।
इतने में ही वहाँ एक ब्राह्मण आ गया उसने राजा से भोजन माँगा राजा ने पहले ब्राह्मण को आदर से भोजन कराया। उसमें से जो भोजन बचा उसे राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को भोजन कराया। उसमें से जो भोजन बचा उसे राजा ने अपने खाने हेतु रक्खा। ज्यों ही राजा भोजन करने बैठ रहे थे इतने में ही एक भिखारी आ गया और भोजन माँगने लगा राजा ने बचा हुआ भोजन उस भिखारी को खिलाकर उसकी भूख मिटाई। अब राजा के पास केवल पीने को पानी बचा हुआ था। राजा अपनी प्यास बुझाने हेतु पानी पीने जा रहा था तभी एक चाण्डाल। वहाँ आ गया और कहने लगा कि प्यास के मारे उसके प्राण निकल रहे हैं थोडा पानी है तो पिला दो। राजा ने सहर्ष उस चाण्डाल को वह जल पिला दिया।
राजा रन्तिदेव इसके पश्चात् भूख प्यास के मारे मूच्छिंत होकर गिर पड़े। उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्म, विष्णु और महेश व धर्मराज प्रकट हो गये और बोले राजा हम आपकी अतिथि सेवा से बहुत प्रसन्न हैं और उसी के फलस्वरूप यहां प्रकट हुए हैं। धन्य है राजा रन्तिदेव और धन्य है उनकी अतिथि सेवा।
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