स्वर्ग में स्वागत - कल्ला रायमलोत सिवाणा
आज स्वर्ग में बड़ी हलचल थी, इतर का छिडकाव हो रहा था, मंडपों को अलंकृत किया जा रहा था, गन्धर्व अपने अपने तान्पुरों के तार कास रहे थे, अप्सराएँ सोलह श्रृंगार में व्यस्त थी |
मेनका सबसे प्रोढ़ थी किन्तु उसने तो आज ऐसी सज्जा बना ली थी जैसे उसी विश्वामित्र ऋषि को दुबारा छलने जा रही हो | उर्वशी को अपने सुकुमार सोंदर्य का भरोसा था फिर भी उसका प्रतिबिम्ब दर्पण से बार बार पूछ रहा था - 'कौन प्रतिस्पर्धा में विजयी होगा ?' जब दर्पण मूक ही रहा तो उर्वशी भी मनोयोग से अम्लान पुष्पों की माला गूंथने में सलंगन हो गई |तिलोत्तमा को अपने नृत्य पर भरोसा था इसलिए वह घुन्घुरुओं को ठीक कर रही थी |
चारों और झमक झमक और ता-तुन हो रही थी | इंद्र देव अपने सोमरस के घड़ों को सुव्यवस्थित कर रहे थे | जीन कसा हुआ उच्चेश्र्वा (घोडा) शायद किसी की सवारी के लिए उतावला हो कर हिन् हिना रहा था | एरावत हाथी पर शहनाईयां और नगारे बजाने के हौदे कसे जा रहे थे | इतने में ही ब्रह्मऋषि नारद खडाऊ पहने खट्ट-खट्ट करते हुए ' नारायण -नारायण ' बोलते आ धमके | उनका किसी ने अभिवादन तक नहीं किया | थोड़े अप्रतिभ होकर फिर स्वस्थ होकर इंद्र से पूछने लगे -
' सुरराज ! आज तो बड़ी तैयारियां हो रही है | वह कौन भाग्यशाली है जिसके लिए इतनी व्यस्तता है ,समूचे के समूचे स्वर्ग में ?'
बिना नारद को देखे देवराज इंद्र ने अपने सोमघटों पर नजर दौड़ते हुए कहा -
' तो क्या ऋषिराज ! आपको कुछ भी मालूम नहीं ?
' नहीं तो !'
' आज यहाँ कल्ला रायमलोत आ रहा है | '
इतना कहकर इंद्र ने नारद की और एक उडती हुई निगाह फेंकी |
यह कल्ला रायमलोत कौन है ? '
' उसका परिचय तो सरस्वती ही दे सकती है ,पर हाँ ! इस समय मृत्यु लोक में उसके हाथ उसका परिचय दे रहे है | स्वयं ही देख लीजिए न |'
नारद जी खटाक-खटाक कर चलते हुए स्वर्ग के एक-एक वातायन को खोल कर नीचे मृत्यु लोक को झांक कर देखने लगे |
कल्ला रायमलोत लड़ रहा है जिसकी मूंछे भोंहों से भिड़ी हुई है | केसरियां वस्त्र धारण किये यंत्र वत तलवार चला रहा है |
खच्च !
हाथी का झटका हो गया -
खच्च !
एक शत्रु के कंधे में तलवार घुसी और उसके घोड़े को पार कर करती हुई निकाल गई -
खच्च !
एक मुगाक की दाड़ी को काटती हुई ,रक्त पीते , पीठ फाड़ कर बाहर निकाल गई -
नारद की अंगुली वीणा के एक तार से अनजाने ही उलझ गई -
तुन -तुनन ......तुन .........|
खच्च ! खच्च !!
मुगलों के दो सिर इस प्रकार गुड़क गए जैसे किसी सन्यासी की फटी झोली से दो तुम्बे धरती पर गिर गएँ हो |
किले का भेदिया नाई मुग़ल सेनापति के साथ किले में घुस आया | और खच्च -
तलवार के एक ही वार से नाई को अमर लोक मिल गया और सेनापति -' ला हौल विला कुव्वत ' कहता हुआ भाग गया |
धडाधड मुग़ल सैनिकों ने किले में प्रवेश किया और कल्ला रायमलोत को घेर कर लड़ने लगे |
खचा -खच , खचा -खच | खच्च !!
शत्रुओं के सिर ऐसे बिखर गए जैसे तूफान में खेजड़ी के खोखे |
नारद जी के चहरे पर मुस्कराहट फ़ैल गई |जीती हुई बाजी हारते देख असंख्य शत्रु किले में घुस आये और अंधाधुंध वार चलाने लगे | और खच्च !
कल्ला का सिर धड से अलग हो गया |
सिर चला गया हवा में चक्कर कटता हुआ हाड़ी के पास जो पहले से ही हाथ में नारियल लिए इसी की प्रतीक्षा कर रही था |
चिता जल उठी और नारद जी ने मन मन ही मंत्रार्ध गुन गुनगुनाया -
अजो नित्य : शाश्वतोय्म पुराणों,
न हन्यते हन्यमाने शरीरे |
सिर चला गया और धड दोनों हाथों से तलवारें चला रहा है | एक और कल्ला की तलवारें शत्रुओं के शोणित से अपनी प्यास बुझा रही है और दूसरी और चिता में जलकर राजपूती अपनी प्यास आग में बुझा रही है | एक और व्योम मार्ग पर दो पथिक अनंत पथ की यात्रा पर बढ़ते आ रहे है हाथ में हाथ लिए , मुस्कराते हुए कभी कभी मुड़कर देखते है अपने ही बहे हुए रक्त को और अपनी ही जलती हुई चिता को | दूसरी और मृत्यु लोक में एक अमर कहानी ख़त्म हो रही है -सदा के लिए ,सदा सर्वदा के लिए |
स्वर्ग में गन्धर्वो के तानपुरे सहसा झनझना उठे | अप्सराओं के घुंघरू तबलों की थप्पी के साथ एक साथ छनछना उठे | सोमरस के प्याले में प्रेम भरी मनुहारें चलने लगी | शंख और दिव्य शहनाईयों में परस्पर वार्तालाप होने लगे | देवताओं की स्वागत भरी निगाहें परस्पर ले दे रही थी | नारद जी ने मुंह मोड़कर देखा तो कल्ला खड़ा है , मरा नहीं और हाड़ी भी जली नहीं , सामने खड़ी है |
नारद जी ने अपनी शंका का स्वयं ही समाधान किया - ' ऐसी जिन्दगी भी क्या कभी जल मर सकती है ? मरती तो केवल छाया है -छाया |' आँखों को अर्ध्मुन्दी कर मग्न होकर नारद ने वीणा बजाना शुरू किया | अप्सराओं को ऐसे ओजपूर्ण ,शूरवीर और तेजस्वी वर के गले में वरमाला डालने का साहस नहीं हो रहा था | फिर भी स्वर्ग सनाथ हो गया और धरती अनाथ क्योंकि धरा का पति कल्ला आज धरा को छोड़ कर स्वर्ग में चला आया था |
अकबर के दरबार तो बाद में भी लगे है , कई शहंशाहों के ठाठ बने और उजाड़ गए पर भरे दरबारों में मूंछ पर हाथ देने का साहस किसी को नहीं हुआ क्योंकि एसा तो केवल कल्ला ही था जो कभी लौटकर नहीं आया |
मूंछो वाले तो आज भी बहुत है , लेकिन वह पानी कहाँ मुछ का , वह अलबेला बांकापन कहाँ जो सल्तनतों तक को चुनौती दे सके | मूंछों की तो मरोड़ ही कल्ला रायमलोत के साथ चली गई |
रूप की प्यास बुझाने के लिए अल्लाउद्दीन चितौड़ पर और औरंगजेब रूपनगर पर चढ़ आया था पर मौत की मजाक उड़ाकर अकबर की प्यास को अंगूठा दिखाने वाला कल्ला रायमलोत ही था | मौत की अब कौन मसखरी करे , कल्ला जो चला गया |
पृथ्वीराज ने तो बाद में भी कविताएँ की है , कई रसिक महाकवि भी बन गए , नै भाषाओँ ने जन्म लिए और नई कल्पनाओं ने उड़ाने भरी है पर वह शमा ही कहाँ ,वह प्रवाह ही कहाँ , और वह सौष्ठव भी कहाँ ? उन्हें तो पात्र ही नहीं मिलता क्योंकि कविताएँ धरती पर रह गई और उनका पात्र कल्ला स्वर्ग जो चला गया |
युद्ध भी होंगे , वीर भी जन्मेंगे , धरती कभी निर्बीज नहीं हुई है | सिर भी कटेंगे और कटने के बाद भी लड़े है , बोटी बोटी कटने पर झुझते हुए दिखाई देंगे परन्तु हाथियों के चक्कर करने वाला और घोड़ों की टाँगे पकड़कर फेंकने का दृश्य कभी नहीं देखा , कल्ला रायमलोत जो चला गया |
मरुधरा की सूखी और भूखी धरा वर्षों से प्रतीक्षा कर रही है , सिवाणे का उपेक्षित और उजड़ा हुआ किला अब भी दहाड़ मार रहा है , कोई हमारी भी प्यास बुझाओ , कोई हमें भी सनाथ करो , तब वर्षा की कंजूस फुहारें उदारता का स्वांग रचकर फुसलाने की चेष्ठा करती है लेकिन इन पत्थरों पर लिखी हुई अमिट कविताओं की आग न कभी शांत हुई है और न कभी शांत होगी | कल्ला रायमलोत लौट के आने का नहीं और धरा और धर्म की मांग पूरी होने की नहीं |
कल्ला रायमलोत के वियोग में यहाँ की वनस्पति सुख गई है , फिर भी उसकी आँखों में कातरता के जलप्रपात ढुलक रहे है |
जिसकी तलवार से आसमान के सितारे टूट गए थे ,मरने के बाद भी जिसकी भुजाएँ अपना कर्तव्य निभा रही थी , जिसकी यादगार आज भी कर्तव्य की याद दिला रही है, याद दिला रही है कि वह भी एक क्षत्रिय था ।
बदलते दृश्य - तनसिंह जी बाङमेर ।
आज स्वर्ग में बड़ी हलचल थी, इतर का छिडकाव हो रहा था, मंडपों को अलंकृत किया जा रहा था, गन्धर्व अपने अपने तान्पुरों के तार कास रहे थे, अप्सराएँ सोलह श्रृंगार में व्यस्त थी |
मेनका सबसे प्रोढ़ थी किन्तु उसने तो आज ऐसी सज्जा बना ली थी जैसे उसी विश्वामित्र ऋषि को दुबारा छलने जा रही हो | उर्वशी को अपने सुकुमार सोंदर्य का भरोसा था फिर भी उसका प्रतिबिम्ब दर्पण से बार बार पूछ रहा था - 'कौन प्रतिस्पर्धा में विजयी होगा ?' जब दर्पण मूक ही रहा तो उर्वशी भी मनोयोग से अम्लान पुष्पों की माला गूंथने में सलंगन हो गई |तिलोत्तमा को अपने नृत्य पर भरोसा था इसलिए वह घुन्घुरुओं को ठीक कर रही थी |
चारों और झमक झमक और ता-तुन हो रही थी | इंद्र देव अपने सोमरस के घड़ों को सुव्यवस्थित कर रहे थे | जीन कसा हुआ उच्चेश्र्वा (घोडा) शायद किसी की सवारी के लिए उतावला हो कर हिन् हिना रहा था | एरावत हाथी पर शहनाईयां और नगारे बजाने के हौदे कसे जा रहे थे | इतने में ही ब्रह्मऋषि नारद खडाऊ पहने खट्ट-खट्ट करते हुए ' नारायण -नारायण ' बोलते आ धमके | उनका किसी ने अभिवादन तक नहीं किया | थोड़े अप्रतिभ होकर फिर स्वस्थ होकर इंद्र से पूछने लगे -
' सुरराज ! आज तो बड़ी तैयारियां हो रही है | वह कौन भाग्यशाली है जिसके लिए इतनी व्यस्तता है ,समूचे के समूचे स्वर्ग में ?'
बिना नारद को देखे देवराज इंद्र ने अपने सोमघटों पर नजर दौड़ते हुए कहा -
' तो क्या ऋषिराज ! आपको कुछ भी मालूम नहीं ?
' नहीं तो !'
' आज यहाँ कल्ला रायमलोत आ रहा है | '
इतना कहकर इंद्र ने नारद की और एक उडती हुई निगाह फेंकी |
यह कल्ला रायमलोत कौन है ? '
' उसका परिचय तो सरस्वती ही दे सकती है ,पर हाँ ! इस समय मृत्यु लोक में उसके हाथ उसका परिचय दे रहे है | स्वयं ही देख लीजिए न |'
नारद जी खटाक-खटाक कर चलते हुए स्वर्ग के एक-एक वातायन को खोल कर नीचे मृत्यु लोक को झांक कर देखने लगे |
कल्ला रायमलोत लड़ रहा है जिसकी मूंछे भोंहों से भिड़ी हुई है | केसरियां वस्त्र धारण किये यंत्र वत तलवार चला रहा है |
खच्च !
हाथी का झटका हो गया -
खच्च !
एक शत्रु के कंधे में तलवार घुसी और उसके घोड़े को पार कर करती हुई निकाल गई -
खच्च !
एक मुगाक की दाड़ी को काटती हुई ,रक्त पीते , पीठ फाड़ कर बाहर निकाल गई -
नारद की अंगुली वीणा के एक तार से अनजाने ही उलझ गई -
तुन -तुनन ......तुन .........|
खच्च ! खच्च !!
मुगलों के दो सिर इस प्रकार गुड़क गए जैसे किसी सन्यासी की फटी झोली से दो तुम्बे धरती पर गिर गएँ हो |
किले का भेदिया नाई मुग़ल सेनापति के साथ किले में घुस आया | और खच्च -
तलवार के एक ही वार से नाई को अमर लोक मिल गया और सेनापति -' ला हौल विला कुव्वत ' कहता हुआ भाग गया |
धडाधड मुग़ल सैनिकों ने किले में प्रवेश किया और कल्ला रायमलोत को घेर कर लड़ने लगे |
खचा -खच , खचा -खच | खच्च !!
शत्रुओं के सिर ऐसे बिखर गए जैसे तूफान में खेजड़ी के खोखे |
नारद जी के चहरे पर मुस्कराहट फ़ैल गई |जीती हुई बाजी हारते देख असंख्य शत्रु किले में घुस आये और अंधाधुंध वार चलाने लगे | और खच्च !
कल्ला का सिर धड से अलग हो गया |
सिर चला गया हवा में चक्कर कटता हुआ हाड़ी के पास जो पहले से ही हाथ में नारियल लिए इसी की प्रतीक्षा कर रही था |
चिता जल उठी और नारद जी ने मन मन ही मंत्रार्ध गुन गुनगुनाया -
अजो नित्य : शाश्वतोय्म पुराणों,
न हन्यते हन्यमाने शरीरे |
सिर चला गया और धड दोनों हाथों से तलवारें चला रहा है | एक और कल्ला की तलवारें शत्रुओं के शोणित से अपनी प्यास बुझा रही है और दूसरी और चिता में जलकर राजपूती अपनी प्यास आग में बुझा रही है | एक और व्योम मार्ग पर दो पथिक अनंत पथ की यात्रा पर बढ़ते आ रहे है हाथ में हाथ लिए , मुस्कराते हुए कभी कभी मुड़कर देखते है अपने ही बहे हुए रक्त को और अपनी ही जलती हुई चिता को | दूसरी और मृत्यु लोक में एक अमर कहानी ख़त्म हो रही है -सदा के लिए ,सदा सर्वदा के लिए |
स्वर्ग में गन्धर्वो के तानपुरे सहसा झनझना उठे | अप्सराओं के घुंघरू तबलों की थप्पी के साथ एक साथ छनछना उठे | सोमरस के प्याले में प्रेम भरी मनुहारें चलने लगी | शंख और दिव्य शहनाईयों में परस्पर वार्तालाप होने लगे | देवताओं की स्वागत भरी निगाहें परस्पर ले दे रही थी | नारद जी ने मुंह मोड़कर देखा तो कल्ला खड़ा है , मरा नहीं और हाड़ी भी जली नहीं , सामने खड़ी है |
नारद जी ने अपनी शंका का स्वयं ही समाधान किया - ' ऐसी जिन्दगी भी क्या कभी जल मर सकती है ? मरती तो केवल छाया है -छाया |' आँखों को अर्ध्मुन्दी कर मग्न होकर नारद ने वीणा बजाना शुरू किया | अप्सराओं को ऐसे ओजपूर्ण ,शूरवीर और तेजस्वी वर के गले में वरमाला डालने का साहस नहीं हो रहा था | फिर भी स्वर्ग सनाथ हो गया और धरती अनाथ क्योंकि धरा का पति कल्ला आज धरा को छोड़ कर स्वर्ग में चला आया था |
अकबर के दरबार तो बाद में भी लगे है , कई शहंशाहों के ठाठ बने और उजाड़ गए पर भरे दरबारों में मूंछ पर हाथ देने का साहस किसी को नहीं हुआ क्योंकि एसा तो केवल कल्ला ही था जो कभी लौटकर नहीं आया |
मूंछो वाले तो आज भी बहुत है , लेकिन वह पानी कहाँ मुछ का , वह अलबेला बांकापन कहाँ जो सल्तनतों तक को चुनौती दे सके | मूंछों की तो मरोड़ ही कल्ला रायमलोत के साथ चली गई |
रूप की प्यास बुझाने के लिए अल्लाउद्दीन चितौड़ पर और औरंगजेब रूपनगर पर चढ़ आया था पर मौत की मजाक उड़ाकर अकबर की प्यास को अंगूठा दिखाने वाला कल्ला रायमलोत ही था | मौत की अब कौन मसखरी करे , कल्ला जो चला गया |
पृथ्वीराज ने तो बाद में भी कविताएँ की है , कई रसिक महाकवि भी बन गए , नै भाषाओँ ने जन्म लिए और नई कल्पनाओं ने उड़ाने भरी है पर वह शमा ही कहाँ ,वह प्रवाह ही कहाँ , और वह सौष्ठव भी कहाँ ? उन्हें तो पात्र ही नहीं मिलता क्योंकि कविताएँ धरती पर रह गई और उनका पात्र कल्ला स्वर्ग जो चला गया |
युद्ध भी होंगे , वीर भी जन्मेंगे , धरती कभी निर्बीज नहीं हुई है | सिर भी कटेंगे और कटने के बाद भी लड़े है , बोटी बोटी कटने पर झुझते हुए दिखाई देंगे परन्तु हाथियों के चक्कर करने वाला और घोड़ों की टाँगे पकड़कर फेंकने का दृश्य कभी नहीं देखा , कल्ला रायमलोत जो चला गया |
मरुधरा की सूखी और भूखी धरा वर्षों से प्रतीक्षा कर रही है , सिवाणे का उपेक्षित और उजड़ा हुआ किला अब भी दहाड़ मार रहा है , कोई हमारी भी प्यास बुझाओ , कोई हमें भी सनाथ करो , तब वर्षा की कंजूस फुहारें उदारता का स्वांग रचकर फुसलाने की चेष्ठा करती है लेकिन इन पत्थरों पर लिखी हुई अमिट कविताओं की आग न कभी शांत हुई है और न कभी शांत होगी | कल्ला रायमलोत लौट के आने का नहीं और धरा और धर्म की मांग पूरी होने की नहीं |
कल्ला रायमलोत के वियोग में यहाँ की वनस्पति सुख गई है , फिर भी उसकी आँखों में कातरता के जलप्रपात ढुलक रहे है |
जिसकी तलवार से आसमान के सितारे टूट गए थे ,मरने के बाद भी जिसकी भुजाएँ अपना कर्तव्य निभा रही थी , जिसकी यादगार आज भी कर्तव्य की याद दिला रही है, याद दिला रही है कि वह भी एक क्षत्रिय था ।
बदलते दृश्य - तनसिंह जी बाङमेर ।
No comments
Post a Comment