Saturday 5 November 2016

कुँवर मानसिंह आमेर कि काबुल अभियान में भूमिका

कुँवर मानसिंह आमेर कि काबुल अभियान में भूमिका

जुलाई 1581 में काबुल अभियान शुरु हुआ मानसिंह इस अभियान में अग्र भाग में थे । मिर्जा हाकिम पहले ही लाहौर से भाग चुका था मानसिंह ने उसका लम्बे समय तक पिछा किया पर वह बच निकला ।।

फादर मोनसरेट इस अभियान में अकबर के शिवीर में था उसने इस अभियान के बारे में लिखा है कि मानसिंह जो कि जाति से भारतीय और मूर्तिपूजक था वह एक उत्साही सरदार था प्रमुख व्यक्ति था । इस अभियान में अकबर का पुत्र मुराद अग्रदल का नेता बणाया गया । उसके साथ "कालीचूमैकेनिस" जो सुरत का गवर्नर और एक अनुभवी वृद्ध योद्धा था तथा नौरानकेनुस जो गेडरासियाम चम्पालेनियम का गवर्नर था, को भेजा ।
कालीचूमैकनस के साथ मंगोलो की सेना थी, नौरनमैनूस के साथ चार हजार क्षाकटियन घुङसवार थे और मैकिनस के पास अपनी सेना थी ।

मोन्सेरेट आगे लिखता है अग्रभाग कि सेना जिसमें कुतुबदीकोनूस के पुत्र नोरानमेनुस के नेतृत्व था पर काबुल के समीप मिर्जा हकिम कि सेना ने आक्रमण कर दिया । इस समय नोरानमेनुस ने मानसिंह से सहायता के लिये प्रार्थना कि ।।
इस संघर्ष में मिर्जा की सेना को बुरी तराह पराजित होना पङा ।।

जब अकबर ने वापस हिन्दुस्तान लौटने का निश्चय किया तो उतर-पश्चिमी भू भाग के प्रशासन के लिये उसने समुचित प्रबंध किये । सिन्ध प्रान्त का संरक्षण कुँवर मानसिंह को सौंपा गया, पंजाब का प्रशासन सैयदखान, भगवन्तदास और कुँवर मानसिंह की संयुक्त देखरेख में रखा गया ।
यह व्यवस्था इसलिये की गयी कि अब भी पंजाब प्रान्त पर मिर्जा हकीम का खतरा मंडरा रहा था । जब मिर्जा गठबन्धन तोड़ दिया गया तब राजा भगवन्तदास को पंजाब का स्वतन्त्र गवर्नर बना दिया गया और सैयद खान को सम्बल भेज दिया गया, पर मानसिंह को सिन्ध क्षेत्र की सम्भाल पर रखा गया । 1582 के अन्त में यह व्यवस्था पूर्ण हुई जब अकबर पेट के दर्द से मुक्त हुआ ।।

कुँवर मानसिंह ने सफलतापूर्वक सिन्ध प्रान्त पर अपना प्रशासन स्थापित किया और मिर्जा मुहम्मद की गतिविधियों पर कङी नजर रखी । सन् 1585 में कुँवर से बदकशाँ का पूर्व शासक मिर्जा शाहरुख आकर मिला जो उसके लिए सम्मान का विषय था ।
इसी वर्ष अप्रैल 1585 कुँवर मानसिंह जो अटक में स्थित थे ने मिर्जा हकीम के गंभीर बीमार होने की खबर सुनी ।

मिर्जा हकीम कि मृत्यु 30 जुलाई 1585 को हो गई । अकबर ने मानसिंह को काबुल रवाना किया सेना सहीत ।।
डी. लैक्ट ने इस तथ्य की पुष्टि की है उसका कथन है "मु. हकीम जो काबुल का शासक था बिमार होकर मर गया । इस पर राजा मानसिंह जो जाति से राजपूत था और 5000 घुङसवारों का सेनापति था, को काबुल को एक प्रान्त बनाने हेतु भेजा गया । अकबर स्वयं पंजाब के लिये 22 अगस्त 1585 को रवाना हुआ । जब वह दिल्ली में था तो उसको यह समाचार मिला कि मानसिंह ने अपने कुछ सैनिक "नीलाम" के पार पेशावर भेजे हैं और शाहबेग जो मिर्जा का एक सरदार था, कुँवर के आगमन की बात सुनकर काबुल भाग गया है ।

इसी बीच जुलाई 1585 को मिर्जा की मौत के पश्चात मानसिंह को यह सूचना मिली कि वह शिघ्र काबुल जाए और इस विद्रोही प्रान्त को अपनी अधीनता में करें इसी समय जब पहली बार अटकसिन्ध नदी को पार करने का प्रश्न उठा तो सेना के साथ चलने वाले पुजारीयों ने सैनिकों में यह भ्रम पैदा कर दिया कि नदी के पार यवन प्रदेश हैं, जहाँ जाने से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा । इस पर कृष्ण भक्त मानसिंह स्वयं ने अपने सैनिकों से कहा था कि--

सभी भूमि गोपाल की, जामें अटक कहाँ ।
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ।।

इस प्रेरणा से सैनिक नदी पार करने को सहमत हो गये ।।

रणनीति के अनुसार कुँवर मानसिंह ने सिन्ध नदी पार की और वह पेशावर जा पहुँचे । उस क्षेत्र के अफगानों ने बिना किसी प्रतिरोध के अधिनता स्वीकार की । जब मानसिंह काबुल पहुँचे तो उन्होंने वहाँ बङी भ्रमपूर्ण स्थिति देखी । मिर्जा के पुत्र कैकुबाद और अफरासियाब बहुत छोटी अवस्था के थे, इसलिये देश का प्रशासन करने में सर्वथा असमर्थ थे । शहजादों की अल्पावस्था का लाभ लेकर काबुल के सरदारों ने प्रशासन पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था । मानसिंह के पहुँचने पर काबुल में शाँति का युग शुरु हुआ ।

इकबालनामा का कथन है कि बङी संख्या में काबुली लोग शाही सेनापति को देखने आये । राजा को ज्ञात हुआ कि उसके काबुल पहुंचने के पूर्व मिर्जा बख्तनिशा बेगम हकीम मिर्जा की विधवा तथा दो पुत्रों और फरदूनखान के साथ काबुल से जलालाबाद के लिये रवाना हो गयी थी । कुँवर मानसिंह शीघ्र जलालाबाद के लिये रवाना हुआ और एक स्थान पर पहुँच गया जिसका नाम बुतखाब या ताकखाक था ।

*जलालाबाद के अधिकारी ने कछवाहा सेना के आगे आत्म समर्पण कर दिया । काबुल कुँवर मानसिंह के कदमों पर पङा था । उन्होंने काबुलियों को धीरज दिया और उन्हें अपने संरक्षण का विश्वास दिलाया ।*

साभार पुस्तक- राजा मानसिंह आमेर
लेखक- राजीव नयन प्रसाद
अनुवाद- डा. रतनलाल मिश्र

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